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Updated: 29 मार्च, 2016 01:24 PM
गोपाल शुक्ल
गोपाल शुक्ल
  @gopal13shukla
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सुबह का अखबार पढ़ते समय जिस एक खबर पर आकर निगाह टिकी, उस खबर को लेकर निजी सरोकार जुड़ा हुआ था. हो सकता है कि उस खबर को अखबार में छपा हुआ देखने के बाद न जाने कितने ही लोगों की छिपी हुई भावनाओं को जुबान मिली हो, जिसे वो चाहकर भी सामने नहीं ला सकते थे. लेकिन सच यही है कि उस खबर ने कई लोगों के दिलों को सहलाया होगा. बिना किसी भूमिका के हम बताए देते हैं कि हम जिस खबर का यहां जिक्र कर रहे हैं वो कुछ और नहीं बस स्कूलों में मिलने वाली स्टेशनरी और किताबों की खबर है. एक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र ने इस बारे में उन माता पिताओं का दर्द साझा किया है जो इन दिनों इससे गुजरने को मजबूर हैं. जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे हैं उनकी मजबूरी बन चुकी है कि हर साल स्कूल में बच्चे का क्लास बदलते ही स्कूल खुलने से पहले वो किताबें और कांपियां खरीद लें.

यहां तक तो अजीब लगने वाली कोई बात है नहीं, लेकिन जब ये तय कर दिया जाता है कि फलां स्कूल के लिए फलां दुकान से या फलां काउंटर से ही किताबों की खरीद की जाए, और इस हिदायत के साथ कि हर बच्चे को हर साल नई किताबों से ही पढ़ाई करनी है, और उन्हीं कापियों में लिखना है जो कापियां उस स्टेशनरी की दुकान से मिलती हैं, जिस पर स्कूल के नाम की मुहर या लोगो लगा हो, तब जरूर बात अखरने की लगती है साथ ही जेहन में कई सवाल खड़े होने लगते हैं. पहला सवाल तो यही कि आखिर हमारी सरकार बच्चों की शिक्षा और पढ़ाई लिखाई को लेकर इतने बड़े बड़े वायदे करती है, इतनी बड़ी बड़ी कसमें खाती है और बड़े बड़े नारे उछालती है, लेकिन जमीनी हकीकत तो बिलकुल अलग है.

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छोटा सा नमूना है कि कक्षा पांच में पढ़ने वाले बच्चे के लिए 4500 से लेकर 5000 तक की स्टेशनरी खरीदनी जरूरी है और ये उस स्कूल के बच्चों के लिए अनिवार्य है जो मिशनरी स्कूल चलाने का दम भरते हैं, लेकिन ये उस स्कूल की एक सच्चाई है.

दूसरी सच्चाई ये है कि स्कूल का फरमान हर बच्चे को मानना बेहद जरूरी है और वो फरमान है कि हर बच्चे को स्कूल के लोगो और नाम वाली कॉपियों में ही लिखना जरूरी है. स्कूल के तय किए गए बुक बैग में मिलने वाली सामग्रियों को लेना जरूरी है, फिर चाहे वो एक बच्चे के पास पहले से मौजूद ही क्यों न हो. इतना ही नहीं जिस स्टेशनरी के लिए मां बाप को अपनी जेब से 4500 से 5000 रुपये ढीले करने पड़ते हैं, उसकी बाजार में वास्तविक कीमत तो 500 से किसी भी सूरत में ज्यादा नहीं हो सकती. लेकिन यहां कई गुना ज्यादा कीमत देने को मजबूर हैं.

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सवाल ये भी उठता है कि क्या स्कूल ऐसे बंदोबस्त नहीं कर सकते कि एक क्लास में पढ़ने वाली किताबें अगले साल उस क्लास में आने वाले बच्चे को दिलवा दी जाएं, ताकि उस पाठ्यपुस्तक का दोबारा इस्तेमाल हो सके. बच्चों के माता-पिता पर अतिरिक्त बोझ पड़ने से बच जाए और बच्चों को उसी प्रकाशन और सिलेबस की पाठ्यपुस्तक आसानी से मिल जाए. लेकिन ऐसा करने से स्कूल ही इनकार कर देते हैं. यहां सवाल यही उठता है कि ऐसा क्यों नहीं करते. तो उसका सीधा जवाब है कि अगर स्कूल ऐसा करने को मंजूरी दे देंगे तो उनकी कमाई का जरिया बंद नहीं हो जाएगा. उस प्रकाशक का धंधा चौपट नहीं हो जाएगा जो मोटे कमीशन के बदले स्कूल से अपनी पसंद की पुस्तकों को स्कूलों में चलवाने का पूरा रैकेट चलवा रहा है.

सबसे ज्यादा हैरानी की बात ये है कि स्कूलों की इस मनमानी पर लगाम लगाने का कोई बंदोबस्त नहीं है, न ही सरकारी तौर पर और न ही स्थानीय प्रशासन के तौर पर. यानी स्कूल और किताब माफिया खुलकर अभिभावकों की जेब काटने का धंधा कर रहे हैं और वो भी बेरोकटोक. हैरानी की बात ये है कि इस तरफ न तो सरकार का कोई ध्यान है और न ही हमारे देश की सर्वोच्च अदालत इस बात को संज्ञान में ले रही है. शायद संविधान में कोई ऐसी व्यवस्था ही नहीं की गई है कि स्कूलों की ऐसी किसी मनमानी पर सरकार या संवैधानिक एजेंसियां किसी भी तरह लगाम लगा सकें.

अब जरा सोचिये, ये बुक बैग तैयार करने वाला माफिया कितनी बड़ी तादाद में देश की जनता को खुलेआम लूट रहा है. सिर्फ दिल्ली या उसके आस पास की ही बात करें तो इस हिस्से में छोटे बड़े पब्लिक स्कूलों की तादाद करीब 1785 है. ये महज अनुमान है, मुमकिन है कि स्कूलों की तादाद इससे भी कहीं ज्यादा हो सकती है और इन 1785 स्कूलों में औसतन 3000 बच्चे हरेक स्कूल में पढ़ते हैं, यानी इन तमाम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तादाद हुई करीब 53,55,000. और हरेक बच्चे के माता पिता की जेब से अगर स्टेशनरी और स्कूल बैग के नाम पर स्कूल की तिजोरी में महज 1000 रुपये का औसत रख लें, तब भी ये आंकड़ा हो जाता है 5355000000 यानी 5 अरब, 35 करोड़ रुपये. यानी एक स्कूल के खाते में 30 लाख तीन हजार तीन सौ 65 रुपये. यानी बिना कुछ कहे और करे. स्कूल को सिर्फ अभिभावकों की जेब काटने की इजाजत देने के नाम पर ही 30 लाख रुपये की कमाई हो जाती है. हालांकि कमाई का ये आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा बड़ा होगा. हमने तो बस एक हिसाब को समझने के लिए एक आंकड़ा लिया है.

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मतलब साफ है कि जहां बुक माफिया को करोड़ों और अरबों का फायदा हो रहा है, तो सरकारी तंत्र का मुंह बंद करने के लिए वो लाखों करोड़ों रुपये क्यों नहीं बहा सकता. ऐसे में इस बात की गुंजाइश भी बन ही जाती है कि सरकारी तंत्र और प्रभाव रखने वाला प्रशासन इस तरफ से आंख मूंद ले क्योंकि जब स्कूलों को महज इजाजत देने के बदले में लाखों मिल सकते हैं तो प्रशासन को भी आंख बंद करने की कुछ न कुछ तो कीमत मिल ही सकती है. लेकिन इस पूरे चक्रम में अगर कोई बस्ते के बोझ तले दबता है तो वो है वो आम आदमी जो पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाने की गरज से ये कीमत अदा कर रहा है.

अफसोसजनक बात तो ये है कि अरबों रुपये के इस अनचाहे बोझ के तले जो लोग दब रहे हैं वो किसी के वोट बैंक नहीं हैं. लिहाजा न तो सरकार और न ही कोई सरकारी अमला इस समस्या की तरफ ध्यान दे रहा है. सही मायनों में ये किसी घुन की तरह हमारी शिक्षा व्यवस्था को भीतर ही भीतर खत्म कर रहा है. क्या इस तरफ सरकार और उसके तंत्र को ध्यान देने की जरूरत नहीं है.

लेखक

गोपाल शुक्ल गोपाल शुक्ल @gopal13shukla

लेखक टीवी टुडे में पत्रकार हैं

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