New

होम -> समाज

 |  एक अलग नज़रिया बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 27 जुलाई, 2021 10:00 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
  • Total Shares

जनसंख्या नियंत्रण कानून तो ठीक है लेकिन महिलाओं को इसके कारण जो बेइंतहा तकलीफ आने वाली है उसका विकल्प क्या है? क्या महिलाएं गर्भपात वाली गोलियां खाती रहें और अपनी जान गवांती रहें? पुरुष इस कानून को कितना समझते हैं? पुरुषों के लिए कोई प्रावधान है या दो बच्चे तक सीमित रहने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं को ही है?

महिलाएं हैं, तो दो बच्चों को लेकर कानून भी बनना चाहिए. मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा समेत, तेलंगाना, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा और असम जैसे दूसरे राज्यों में सालों से मिलता-जुलता कानून लागू है. अब यूपी में भी हो रहा है. पिछले 20-21 सालों में सरकार ने कानून बनाए तो सही लेकिन उसके लिए आपने किया क्या...उस कानून को लेकर आप क्या सजग रहे. 

  महिलाओं के दर्द को कौन समझेगा जो गर्भपात की दवाइयों से होती हैं महिलाओं के दर्द को कौन समझेगा जो गर्भपात की दवाइयों से होती हैं

दो बच्चों को लेकर जो कानून चल रहा है वो केवल पोस्टरबाजी और कैंपेनबाजी है या फिर इसके अलावा जमीनी स्तर पर कुछ किया जा रहा है. आपने महिलाओं के लिए क्या दवाइयां दीं. आपने कुछ किया या नहीं और अगर आपने कुछ किया तो फिर ऐसी चीजें कैसे होती चली गईं. इसी समाज में आप महिलाओं को लेकर दो बच्चों के लिए पोस्टर लगा रहे हैं लेकिन जो पुरुष समाज है वो इसे लेकर कितना जागरूक है...दो बच्चों को लेकर पुरुषों की क्या भूमिका है. आपने क्या किया और पुरुषों ने क्या किया.

ये एक अलग बात है कि कई लोग कहते हैं कि इतनी मंहगाई है या फिर शारीरिक गतिविधियों के कारण एक बच्चा पाल लें वही बहुत है. इसे लेकर आप कानून बना रहे हैं तो जिस तरह लोगों के पद जा रहे हैं, नौकरियां ना मिले, तमाम चीजे हैं इनसब में एक महिला की जो तकलीफ है, जो मेडिकल में मौजूद हैं जो तमाम तरह की वे गोलियां खा रही हैं, इसके पीछे जो उनकी दर्द है उसके लिए क्या उपाय है. इन तकलीफों को कौन देख रहा है. क्या पुरुष समाज इसे समझ रहा है. क्या सरकार इस तकलीफ को देख रही है कि महिलाएं एक किट खा कर एक-एक हफ्ते बेहोश रहती हैं, 20 लीटर खून बहता है.

आपने कानून तो बना दिया लेकिन यह नहीं बताया कि ये तकलीफ कैसे कम हो, इसे कैसे कम किया जाए. आप गांव-गांव जाकर मुहीम चलाते, लोगों को इसका विकल्प बताते तब तो समझ आता. अगर 20 साल पहले से ऐसा कानून है तो क्या आप कोई ऐसा टीका नहीं विकसित कर सकते थे जिससे महिलाएं इस तकलीफ से बच जाएं. तीन महीने में कोरोना का टीका बन सकता है तो इसका क्यों नहीं…

मुफ्त में टीका लग जाता फिर दो से द्यादा बच्चे होते ही नहीं, परिवार है समाज में लापरवाही है तो सुरक्षित विकल्प हमेशा मौजूद हो यह जरूरी तो नहीं. कई लोगों को पता ही नहीं होता कि बच्चे ना हो इसके लिए क्या किया जाए. सारी जागरूकता के बाद ये कष्ट मिल रहा है वो महिलाओं को मिल रहा है. इस कष्ट के पीछे की कहानी को आखिर कौन देख रहा है.

आप जागरूक कर नहीं रहे हैं, टीका दे नहीं है. परिवार है परंपरागत है साथ है तो ऐसी चीजें होती रही हैं और होती रहेंगी लेकिन उसका जो दुष्परिणाम है वो महिलाओं को भुगतना है. अगर कोई महिला साल में 2 बार भी ऐसी दवा ले रही है तो मेडसिन के पीछे की तकलीफ क्या है कौन समझेगा...महिलाएं जो दवाएं खाती हैं और वो इतनी हार्ज होती है कि किडनी और लीवर पर भी असर पड़ जाता है. ये जो पूरा कैंपन है इसकी कोई आधार है या फिर सिर्फ इन्हीं दवाइयों के पर दो बच्चों का बोझ टिका है. यानी एक दवा ही आधार है अगर एक महिला यह दवा नहीं खाएगा तो उसकी नौकरी जाएगी वो पंचायत सदस्य से हटा दी जाएगी. कितनी महिलाएं तो डॉक्टर के पास जाती नहीं है.

yogi aditya nath, women, child, third child, two child policy, uttar pradeshक्या पुरुष इस बात को समझ रहे हैं

कई महिलाओं को आंख से दिखता नहीं है, 5-6 बार अगर दवा खा लें तो कई महीने तक ब्लीडिंग होती रहती है फिर वो दवा करवाती रहती हैं. बच्चेदानी में कैंसर तक की समस्या आ जाती है. आप मुजबानी कानून बना देंगे लेकिन आज महिलाओं के लिए इससे बड़ी तकलीफ कोई है नहीं. महिलाएं 8 से 10 साल ये दवाइयां खाती रहती हैं. जो बहुत बड़ी समस्या की दिक्कत होती है. महिलाएं किसी से कह भी नहीं पातीं. अपने बच्चे को खोना का दर्द, उसका मोह कैसे खत्म करेंगे.

किसी वजह से अगर वह प्रेगनेंट हो गई उसके रोम-रोम में बच्चे का प्यार भर गया तो उसे बाद आप कहते हैं कि दवा से खत्म कर दो वरना नौकरी चली जाएगी...आपने ऐसा कोई चारा ही नहीं डाला, अगर आप वैक्सीन लगवा देते तो ऐसी कोई नौबत ही नहीं आती. महिलाएं तो 4 बच्चे हो जाएं तब भी आनेवाले बच्चों का ना मारें उनकी ममता को यह जीव हत्या लगती है.

बीजेपी महिला नेता ने पूछा क्या यही महिला सशक्तिकरण है

उत्तराखंड के हरिद्वार के लक्सर नगर पालिका की पूर्व महिला सभासद नीता पांचाल ने तीसरे बच्चे के जन्म के बाद अपना पद गवां दिया. वो कहती हैं कि “मैंने नगर पालिका सभासद पद की जगह अपने बच्चे को चुना है. मैंनें सच भी बोला और पद के लालच में अपना गर्भ नहीं गिराया, जो सच्चाई थी मैंने बताया. मेरी नगर पालिका सदस्यता इसी जुलाई इसलिए समाप्त कर दी गई क्योंकि मेरी तीसरी संतान ने जन्म ले लिया. मैं राजनीति में आगे आना चाहती हूं, लेकिन अब मैं कभी चुनाव भी नहीं लड़ पाऊंगी. क्या यही महिला सशक्तिकरण है?" नीता पांचाल भाजपा नेता हैं और दूसरी बार शिवपुरी के वार्ड नंबर चार से पार्टी टिकट से सभासद चुनी गईं थीं.

देश में पहले से ही कितनी महिलाएं गर्भनिरोधक और गर्भपात की गोलियां खाने से जानलेवा बीमारी से ग्रसित होती हैं, उपर से 2 बच्चों के कानून का भार अलग. सरकार ने क्या इसका कोई विकल्प सोचा है या फिर बस शहरी आबादी को देखते हुए बस कानून बनाने की मंशा है. इसका महिलाओं के स्वास्थय पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. खासकर गरीब और ग्रीमीण क्षेत्र की महिलाओं को कौन जागरूक करेगा. आज भी महिलाओं का एक बड़ा तबका ऐसा है जिन्हें पीरियड, सेक्स, और गर्भनिधक के बारे में जानकारी नहीं है.

जिसका नतीजा देखने को भी मिलता है कि उनके कई बच्चे पैदा हो जाते हैं. उपर से पुरुषों की सोच जो सुरक्षित सेक्स में दिलचस्पी नहीं लेते. हमारे समाज में सेक्स एजुकेशन के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता. कई तो पढ़े-लिखे लोगों को ही जानकारी नहीं होती और शादी होते ही वे माता-पिता बन जाते हैं. हमारे समाज के पुरुषों को कौन समझाए जिनके लिए सेक्स प्यार जताने का तरीका नहीं बल्कि रूटीन होता है. वैसे भी पत्नी को ना को हां समझने वाली आदत जाएगी भी नहीं. सेक्स उनका अधिकार है लेकिन अगर बच्चा रह जाए तो भुगतना महिलाओं को पड़ता है.

आपको नियम बनाने से हमें ऐतराज नहीं लेकिन क्या महिलाओं के मार्मिक दर्द को समझा जा रहा है. क्या ऐसे किसी टीके की व्यवस्था की जा रही है जिसे लगाने के बाद महिला को गलती से भी गर्भ ना ठहरे. जिस तरह एक साल के अंदर ही कोरोना का टीका बन गया ऐसा कोई टीका महिलाओं के लिए क्यों नहीं बन सकता. ताकि दो बच्चे होने के बाद महिलाएं अपना अस्पताल जाएं और टीका लगवा लें. मान लीजिए लाख कोशिश करने के बाद भी तीसरा बच्चा गर्भ में पल जाए तो वह महिला क्या करेगी...

क्या वह अपने बच्चे को कोख में भी मार देगी. हमारे देश में वैसे ही जीव हत्या ना करने की धार्मिक मान्यता है. ऐसे में महिलाएं अपने बच्चे की हत्या कैसे कर सकती हैं. उपर से बच्चे के साथ जो फिजिकली और मेंटली इमोशन जुड़ा होता है. कई लोग आज भी बेटे की चाह के लिए महिलाओं पर तबतक बच्चा पैदा करने का दबाव बनाते हैं जब तक वह उनके घर का चिराग पैदा ना हो जाए. कहने का मतलब यह है कि पुरुष इस बात को कितना समझते हैं. महिलाओं की दृष्टिकोण से सरकार क्या सोचती है. अगर तीसरा बच्चा पैदा होने से किसी महिला की नौकरी जाती है या उसका पद छिनता है तो क्या करेगी...

क्या महिलाएं एबॉर्शन की गोलियां खाती रहेंगी. आपको पता है कि इस तरह की गोलियां खाने से शरीर पर कितना साइडइफेक्ट होता है. महिलाएं मानसिक और शारीरिक रूप से कितना टूट जाती हैं. हां यह तो सदियों सेहोता चला आ रहा है और आगे भी होता ही रहेगा. मैं एक महिला को जानती हूं जो 20 बार यह गोलियां खा चुकी है. कई बार उसे 6-6 महीने तक ब्लीडिंग होती रही है. उसकी हालत ऐसी है कि उसका चलना-फिरना और सांस लेना भी मुश्किल है. जहां संयुक्त परिवार रहता है कई बार वहां कंडोम जैसी सुविधा नहीं भी रहती है.

भारतीय परिवेश ऐसा है कि लोग शर्म के बारे इस बारे में किसी को बताते नहीं है और चुपचाप 400 की गोली लाकर अपनी पत्नी को दे देते हैं. इसके बाद उसका जीना-मरना भगवान भरोसे. इन दावओं से महिलाओं का सिर घूमता है, उल्टी आती है, चेहरे पर बाल निकल आते हैं, किडनी खराब हो जाती है, यूट्रस में संक्रमण हो जाता है, चक्कर आता है, कमजोरी आती है, बाल झड़ जाते हैं, कमर में दर्द रहता है...लेकिन वह इनसब में भी काम करती रहती है, क्योंकि वह किसी को बता नहीं पाती कि उसके साथ क्या हो रहा है.

क्या सरकार इसके लिए कोई अभियान चलाने वाली है. क्या सरकार महिलाओं और पुरूषों को गांव-गांव घूमकर कैंपने चलाने वाली है. क्या सरकार कोई रास्ता सुझाने वाली है जिससे महिलाएं इस पीड़ा से बच सकें. ऐसे तो महिलाओं की सेहत पर गहरा असर पड़ेगा. मिसकैरेज का दर्द झेलना...क्या सरकार पुरुषों के लिए कोई नियम बनाने वाली है या फिर इसका दर्द सिर्फ महिलाओं को ही झेलना होगा...

लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय