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Updated: 20 अगस्त, 2019 06:46 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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वैसे तो आज गर्भपात करवाना उतना ही सामान्य है जितना गर्भधारण करना. लेकिन गर्भपात कानून की वजह से बहुत सी महिलाएं चाहकर भी गर्भपात नहीं करवा सकतीं. MTP act (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट) 1971 के तहत कोई भी महिला 20 हफ्ते (5 महीने) तक गर्भपात करवा सकती है. लेकिन गर्भ अगर 20 हफ्ते से ऊपर हो तो कोर्ट की इजाजत से ही गर्भपात कराया जा सकता है. अदालत ही निर्णय लेगी कि गर्भपात होना चाहिए या नहीं.

अदालत ने इससे पहले कई ऐसे फैसले दिए हैं जिनपर बहस हुई हैं. कभी तो अदालत के फैसले स्वागत योग्य थे तो कभी उन फैसलों पर सवाल उठे. लेकिन ऐसे में सवालों के घेरे में गर्भपात कानून आया जिसके संशोधन की मांग तेजी से उठी. और अब लगता है कि महिलाओं के हित में केंद्र सरकार जल्द ही एक अहम फैसला ले लेगी. गर्भपात कानून में संशोधन महिलाओं के लिए किसी तोहफे से कम नहीं होगा.

गर्भपात कराने की अवधि बढ़ाने को लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई है. जिसपर सुनवाई के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिल्ली हाईकोर्ट को बताया कि गर्भवती महिला के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उसके गर्भपात की समय सीमा 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 से 26 हफ्ते करने को लेकर मंत्रालय ने विचार-विमर्श शुरू कर दिया है. स्वास्थ्य मंत्रालय और नीति आयोग की राय लेने के बाद गर्भपात संबंधी कानून में संशोधन के मसौदे को जल्द ही अंतिम रूप दिया जाएगा. जिसके बाद उसे विधि मंत्रालय भेजा जाएगा जिससे गर्भपात संबंधी कानून पर जरूरी संशोधन हो सके.

abortionगर्भपात कानून में संशोधन महिलाओं के लिए किसी तोहफे से कम नहीं होगा

याचिका में ये मांग की गई हैं

महिलाओं के हित को ध्यान में रखकर दायर की गई इस याचिका में बहुत ही अहम मुद्दे उटाए गए हैं. जो जायज भी हैं और जरूरी भी. जनहित याचिका में कहा गया है कि-

- महिला और उसके भ्रूण के स्वास्थ्य के खतरे को देखते हुए गर्भपात कराने की अवधि 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 से 26 हफ्ते कर दी जाए.

- जिस तरह से गर्भधारण का अधिकार महिला के पास है उसी तरह से गर्भपात कराने का भी अधिकार महिला के पास होना चाहिए.

- अविवाहित महिला व विधवाओं को भी कानूनी रूप से गर्भपात कराने की अनुमति दी जाए.

क्यों पड़ी कानून में संशोधन की जरूरत

यूं तो 20 हफ्ते के भीतर गर्भपात करवाने में कोर्ट की इजाजत नहीं लेनी होती, लेकिन 20 हफ्ते के बाद अदालत ही निर्णय करती है कि महिला को गर्भपात की इजाजत दी जानी चाहिए या नहीं. इसमें कुछ आधार होते हैं जिन्हें देखते हुए अदालत फैसला लेती है. जैसे- अगर महिला के गर्भ में पल रहा बच्चा शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हो तो गर्भपात हो सकता है. लेकिन ये कोर्ट तय करेगा कि पेट में पल रहे बच्चे की क्या स्थिति है. कानून ने महिला की जान को सबसे जरूरी माना है. और इसीलिए अगर गर्भ के कारण महिला की जान को खतरा हो तो 20 हफ्ते के बाद भी महिला का गर्भपात हो सकता है. लेकिन वहीं, अगर इस गर्भपात से महिला की जान को खतरा हो जाए तो गर्भपात की इजाजत नहीं दी जाती.

abortion20 हफ्तों के बाद गर्भपात पर फैसला अदालत का ही होता है

यानी गर्भपात पर फैसला पूरी तरह से जज के विवेक पर ही निर्भर करता है. लेकिन कई घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसपर अदालत के फैसलों पर सवाल खड़े हुए.

- हम उस 10 साल की रेप विक्टिम बच्ची को नहीं भूल सकते जिसके गर्भपात की इजाजत अदालत ने नहीं दी थी. बच्ची के माता पिता को बच्ची की गर्भावस्था के बारे में 26 हफ्ते बीत जाने के बाद पता चला था. लेकिन गर्भपात कानून की वजह से 10 साल की उम्र में उस बच्ची को मां बनना पड़ा था. क्या इस बच्ची की उम्र ऐसी थी कि वो एक बच्चे की परवरिश कर सके?

- 2017 में बिहार की एक HIV पॉजिटिव रेप विक्टिम का गर्भ भी 26 हफ्ते पार कर चुका था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे गर्भपात कराने की इजाजत नहीं दी थी. आधार उस रिपोर्ट को बनाया गया था जो ये कहती थी कि 26 हफ्ते के बाद गर्भपात जानलेवा हो सकता है. मजबूरन उसने एक HIV पॉजिटिव बच्चे को ही पैदी किया होगा. क्या एक रेप विक्टिम इस अवस्था में होती है कि वो रेप से जन्म लेने वाले बच्चे को प्यार और अच्छी परवरिश दे सके?

- 2017 में ही जब 26 हफ्ते की गर्भवती महिला को ये पता चला कि उसके गर्भ में एक डाउन सिंड्रोम बच्चा है, तो उसने सुप्रीम कोर्ट से गर्भपात की इजाजत मांगी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने महिला की याचिका नामंजूर कर दी थी. कोर्ट का कहना था- 'ये दुख की बात है कि बच्चे में मानसिक और शारीरिक चुनौतियां हो सकती हैं और ये मां के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है, लेकिन हम गर्भपात की अनुमति नहीं देते. हमारे हाथों में एक जिंदगी है.' हालांकि ये बात कोर्ट ने मानी भी कि एक मां के लिए एक मानसिक रूप से अक्षम बच्चे को बड़ा करना बहुत मुश्किलों भरा होता है. लेकिन महिला को इजाजत नहीं दी गई. क्या अदालत ऐसे बच्चों को बड़ा करने के लिए सहायता उपलब्ध करवाती है? क्या सुप्रीम कोर्ट उस बच्चे के भविष्य में आने वाली परेशानियों के लिए व्यवस्था करती है? नहीं.

- वहीं इसी मामले से उलट 2017 में ही पुणे की अदालत ने 24 हफ्ते कते भ्रूण के गर्भपात की इजाजत दे दी थी क्योंकि गर्भ में पल रहे बच्चे का स्कल नहीं था. जब एक केस में ये बात कंसीडर की जा सकती है तो दूसरे केस में क्यों नहीं?

- उन महिलाओं को भी नहीं भूलना चाहिए जो अविवाहित हैं. मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 के तहत वर्तमान गर्भपात कानून में अविवाहित महिलाओं का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है. इसी वजह से अविवाहित या विधवा महिलाएं को गर्भपात करवाने में न सिर्फ शर्म महसूस करती हैं बल्कि काफी परेशानियां झेलती हैं. इसी वजह से वो छोटे-मोटे अबॉर्शन क्लीनिक्स पर जाकर अप्राकृतिक और असुरक्षित तरीकों से गर्भपात करवाने को लिए मजबूर होती हैं. जो उनकी जान के लिए खतरा साबित होता है.

abortionगर्भपात कानून में अविवाहित महिलाओं को जिक्र तक नहीं किया गया है

एक सर्वे के मुताबिक हर साल भारत में 10 मिलियन महिलाएं गुपचुप तरीके से गर्भपात करवाती हैं. वजह अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन नतीजा ये होता है कि महिलाओं की जान पर बन आती है.

अगर महिला को गर्भवती होने का अधिकार है, अपने शरीर पर अधिकार है तो गर्भपात करवाना है या नहीं करवाना इसका भी अधिकार महिला के पास होना चाहिए. बच्चे को जन्म देना ही सबकुछ नहीं होता बल्कि बच्चे की सही परवरिश और पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी महिला पर होती है. ऐसे में अगर वो इस जिम्मेदारी का जीवन भर पालन करने की स्थिति में नहीं है तो उसे गर्भपात की इजाजत मिलनी ही चाहिए. वहीं खास मामलों में तो महिलाओं के प्रति अदालत की ये जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. ऐसे में अदालत इस गर्भपात संबंधी कानून में संशोधन कर के महिलाओं के जीवन को थोड़ा और सरल कर सकती है. ये फैसला महिलाओं के हित में भी है और उनकी सुरक्षा के लिए जरूरी भी.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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