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Updated: 23 जुलाई, 2017 06:58 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' भले ही अभी रिलीज़ हुई हो, लेकिन चर्चाओं में ये कई दिनों से बनी हुई है. इस फिल्म के बारे में मैंने अब तक जितना पढ़ा, दोस्तों से जितना जाना उसके बाद से, जहां एक तरफ मैं फिल्म को लेकर क्यूरियस हूं तो वहीं दूसरी तरफ इस फिल्म के चलते मैं बड़ा व्यथित और चिंतित भी हूं. मेरे क्यूरियस होने का कारण बस इतना है कि, मुझे ये जानना है कि इसमें ऐसा क्या है जिसके चलते मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक सभी लोग इसके बारे में बात कर रहे हैं वहीं व्यथित और चिंतित होने का कारण ये कि, फिल्म का टाइटल कई सारे पूर्वाग्रहों को तोड़ने का प्रयास तो कर रहा है मगर हमारा समाज उसे टूटने नहीं दे रहा.

ध्यान रहे, इस फिल्म का टाइटल 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' है. यदि इसका नाम 'लिपस्टिक अंडर माय घूंघट' या फिर 'लिपस्टिक अंडर माय ब्रा' होता तब भी व्यथित और चिंतित रहता. मेरे चिंतित होने का कारण है वर्तमान समाज में महिलाओं की स्थिति और फेक फेमिनिस्म. जी सही सुना आपने मैं फेक नारीवाद के खिलाफ हूं. इस फिल्म के मद्देनजर, मैं बीते कई दिनों से लोगों के मुंह से इस फिल्म के बारे में बातें सुन रहा हूं. महिला हितों की बात करने वाला लोगों का एक बड़ा वर्ग इस पक्ष में है कि ये फिल्म हर उस महिला को देखनी चाहिए जो आजादी की बात करती है.

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, फिल्म, नारीवादलिपस्टिक अंडर माय बुर्का' बस एक फिल्म है जिसे हमें सिर्फ फिल्म की तरह देखना चाहिए

सोशल मीडिया के इस दौर में, मैं अक्सर इस महिला आजादी के मुद्दे को लेकर परेशान हो जाता हूं. मैं जैसे-जैसे इस मुद्दे पर सोच रहा हूं, वैसे-वैसे मेरे माथे पर चिंता के बल पड़ जाते हैं. आज सोशल मीडिया का टॉयलेट युग है, जहां फेसबुक और ट्विटर पर वही महिला आजाद मानी जाती है जो महिला हितों, ब्रा, सेक्स, पीरियड जैसी चीजों पर 'खुल' के राय प्रकट करती है. यहां वही महिला आजाद है जो ये मानती है कि सेक्स केवल पुरुषों के एन्जॉय करने की चीज नहीं है. इस पर एक महिला का भी उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष का है.

क्या सेक्स पर बात करना ही आजादी की निशानी है? क्या महिला सशक्तिकरण का उदय और अस्त, दोनों ब्रा, सेक्स, पीरियड जैसी ही चीजों के इर्द गिर्द होता है? मेरे दिमाग में अक्सर ही ये प्रश्न आते हैं और जब मैं इनका उत्तर तलाशता हूं तो मिलता है कि न ये कहीं से भी महिला सशक्तिकरण नहीं है और मैं बिल्कुल भी इसपर सहमत नहीं हूं.

व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि, जब एक महिला को समान अवसर मिलें, जब वो इस भीड़ में पुरुषों के संग कंधे से कंधा मिलाकर चल पाए, जब उसे अच्छी शिक्षा मिले, जब उसे दहेज के नाम पर जलाया न जाए, जब वो समाज के भूखे भेड़ियों की वहशी निगाहों से खुद की रक्षा कर पाए और सबसे अंत में जब वो अपनी लिपस्टिक को, अपने बुर्के या घूँघट में रखे और ये समाज कोई हो हल्ला न मचाए उसी दिन महिला सशक्तिकरण है.

बाकी फिल्मों में बहुत कुछ दिखाया जाता है 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' में भी बहुत कुछ दिखाया जाता है. वैसे भी निर्माता निर्देशक तो यही कहते हैं कि सिनेमा समाज का आईना है. शायद हो सकता है कि अब निर्माता निर्देशकों ने भी मान लिया हो कि फेमिनिस्म यही है जब आप मुद्दों पर 'खुल' के बात कर सकें और सराह सकें. यदि आप ऐसा कर ले गए तो बहुत अच्छी बात है वरना समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग बैठा है जो आपको पिछड़ा हुआ और महिला विरोधी मान लेगा. 

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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