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Updated: 15 दिसम्बर, 2017 06:10 PM
अमित अरोड़ा
अमित अरोड़ा
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भारतीय संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू करते समय इसकी समयसीमा शुरू के 10 सालों के लिए निर्धारित की थी. उन्हें उम्मीद थी की 10 सालों में यह समुदाय, विकास की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा. उम्मीद थी की 10 साल का आरक्षण अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति समुदाय को सवर्ण वर्ग के बराबर ले आएगा. और दुबारा इस व्यवस्था की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. लेकिन इतने दशक बीत गए पर आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं हो सकी. समाप्त होना तो दूर, 1990 के दशक में अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम से आरक्षण की एक और श्रेणी शुरू कर दी गई.

reservationआरक्षण अब राजनीतिक दलों के गले की हड्डी बन गया है

आज की तारीख़ में आरक्षण की भूख ने विकराल रूप ले लिया है. आजादी के बाद बराबरी के लिए शुरू की गई एक ईमानदार पहल आज दूषित हो गई है. मामला इतने तक ही नहीं थमा है. बड़ी हैरानी की बात है कि वह समुदाय जो आर्थिक तौर पर संपन्न और राजनीतिक रूप से ताक़तवर है, वह भी अपने अपने राज्यों में आरक्षण लेने के लिए प्रयासरत है.

हरियाणा में जाट हो, आंध्र प्रदेश के कापू, महाराष्ट्र में मराठा या फिर गुजरात के पाटीदार- ये लोग खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में डलवाने के लिए दबाव बनाते जा रहे हैं. इन समुदायों के अधिकतर लोग आत्मनिर्भर हैं और यह वर्ग राजनीतिक तौर पर काफ़ी रसूखदार है. राज्य की नौकरशाही हो या वहां के राजनीतिक दल, इन वर्गों की पकड़ भी अद्वितीय है. ऐसा होने के बाद भी यह समुदाय अपनी अपनी राज्य सरकारों को आरक्षण की मांग पूरा करने के लिए समय समय पर धमकाने से भी पीछे नहीं हटते हैं.

भारत के अधिकतर राज्यों में वर्तमान समय में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलने वाला आरक्षण 50% की संख्या को छू रहा है. उपरोक्त वर्ग में हज़ारों ऐसे परिवार हैं, जो पिछली 2-3 पीढ़ियों से आरक्षण व्ययवस्था का लाभ उठा रहे हैं. वर्षों से इन परिवारों को यह लाभ मिल रहा है, जिसके कारण उनके जीवन में आर्थिक संपन्नता आई है और सामाजिक पहचान भी मिली है. वर्तमान समय में यह परिवार सामाजिक रूप में सक्षम होने के बावज़ूद भी आरक्षण का फ़ायदा उठाए जा रहे हैं.

अब जबकी पहले से मिल रहे आरक्षण को समाप्त या कम करने की मुहिम चलनी चाहिए, दुर्भाग्यवश देश में इसका विपरीत हो रहा है. अब तो ऐसा लगता है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस. जिस जाति के पास शक्ति बल है, वह आरक्षण मांगने के लिए तैयार बैठा है.

कोई भी राजनीतिक दल मौजूदा आरक्षण, या नई आरक्षण की मांग का विरोध खुलकर नहीं कर रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि आरक्षण-विरोधी का तमगा किसी भी राजनीतिक दल के लिए घातक साबित होगा. आदर्शवादी न होकर, राजनीतिक दल व्यावहारिक हैं. हर पांच साल में उन्हें चुनाव लड़ना है और वह किसी वर्ग को नाराज़ करने का ख़तरा मोल नहीं ले सकते.

reservation#GiveItUp का नारा अब आरक्षण के लिए भी लगना चाहिए

इसका क्या मतलब है? क्या कभी आरक्षण की यह वर्तमान व्यवस्था नहीं सुधरेगी? भविष्य में क्या आरक्षण का पैमाना जाति/धर्म से हटकर आर्थिक आधार पर हो पाएगा? क्या हम भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं?

सरकार या राजनीतिक दल कुछ नहीं कर सकते तो क्या हुआ, आम जनता तो आरक्षण छोड़ने की मुहिम चला ही सकती है. जैसे लोगों ने गैस की सब्सिडी को #GiveItUp कहा था उसी तरह अगर सामान्य भारतीय नागरिक को जागरूक बनाया जाए, तो सकारात्मक परिणाम अवश्य मिलेंगे. आज देश में सोशल मीडिया इतना सशक्त बन गया है कि इसके द्वारा आम नागरिक आरक्षण के मुद्दे पर खुली बहस कर सकते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मुस्लिम महिलाओं के सतत् प्रयास ने भारत सरकार को तीन तलाक़ के मुद्दे पर, उन महिलाओं के पक्ष में अपना मत रखने पर मजबूर कर दिया. उसी प्रकार यदि भारत की जनता आरक्षण सुधार की मुहिम चलाएगी तो हमारी सरकारों को भी उसका सम्मान करना पड़ेगा.

हो सकता है आज यह विचार विफल हो जाए. लेकिन जैसे जैसे देश में युवा जागरूक हो रहे हैं, वैसे वैसे आरक्षण से आज़ादी #GiveItUp की सोच को बल मिल रहा है. हमारा लक्ष्य तो केवल प्रयास करने का होने चाहिए, बाकी तो जनता जनार्दन की इच्छा है.

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लेखक

अमित अरोड़ा अमित अरोड़ा @amit.arora.986

लेखक पत्रकार हैं और राजनीति की खबरों पर पैनी नजर रखते हैं.

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