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Updated: 26 जनवरी, 2018 05:04 PM
रणविजय सिंह
रणविजय सिंह
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'जो बच्चों पर छिपकर वार करे-वो राजपूत'

'जो मुंह ढक कर आग लगाए-वो राजपूत'

'जो औरतों से जौहर कराए-वो राजपूत'

ये वो जुमले हैं जिसने बीते दिनों मुझ जैसे कई राजपूतों को जगहंसाई का पात्र बना दिया. मैं बच्चों की बस पर हमला करने नहीं गया. मैंने सड़कों पर होलिका भी नहीं जलाई, लेकिन इन सब के बावजूद देश में हो रहे बवाल में मैं शामिल रहा. मैं वो राजपूत हूं जो बवाल नहीं चाहता, लेकिन कुछ लोग जो मेरे समुदाय के लीडर बन बैठे हैं उनको बस बवाल ही चाहिए. आप इनकी खिलाफत नहीं कर सकते, अगर आपने ऐसा सोचा भी तो ये आपकी खिलाफत में उतर आएंगे. फिर क्या राजपूत और क्या समुदाय.

राजपूत, हिंसा, पद्मावत, फिल्म  जिस तरह आज मुट्ठी भर लोग अपनी हरकतों से राजपूतों को शर्मिंदा कर रहे हैं वो एक चिंता का विषय है

आप को नंगे करके मारने की धमकी से लेकर, मां-बहन की गालियों से नवाजने का दौर चल पड़ेगा. ये मैं हवा में नहीं कर रहा. मैं खुद इसका भोगी हूं. मेरे फोन के इनबॉक्स गालियों से भर गए हैं. नए-नए तरीकों से मारने की धमकियां, देख लेने की बातें और राजपूतों पर कलंक की उपाधि से नवाजा जा चुका हूं. इसलिए कह रहा हूं इनकी खिलाफत मत करना. ये राजपूतों के लिए नहीं, खुद के लिए लड़ रहे हैं. इनका मोटिव साफ है, लोगों में दहशत पैदा करना और अपनी धौंस जमाना. ये हाईजैक राजपूत हैं. अब इन इाईजैक राजपूतों की वजह से देश के हर राजपूत की जगहंसाई हो रही है. लोग हंस रहे हैं इनकी बेवकूफी पर और हमारी कमजोरी पर.

सोचने वाली बात है कि मुट्ठी भर लोग कब पूरे समुदाय के लीडर बन बैठे पता ही न चला. इन गिनती के लोगों ने पूरे देश को हाईजैक कर लिया और फिर सड़़क पर अपनी झूठी शान का डंका पीटने लगे. इस डंके की आवाज ने अब परेशान कर दिया है. इतना कि अब लोग इनसे नफरत कर बैठे हैं और साथ ही जिस समुदाय की नुमाइंदगी का दावा ये कर रहे हैं उसके खिलाफ भी नफरत पनप गई है.

हो सकता है ये नफरत अभी उस हिसाब से न फैली हो. लेकिन, बिला शक उन बच्चों के लिए, जिनकी बस पर इन ठेकेदारों ने हमला किया, उनके लिए 'राजपूत' किसी दानव से कम नहीं हैं. अब जिंदगी भर के लिए इन बच्चों के ज़हन में राजपूत शब्द के मायने गढ़ दिए गए हैं. वो मायने डर और घृणा के कॉकटेल से हैं, जहां प्रेम का कोई नामोनिशान नहीं. ये बच्चे अब अपनी आखिरी सांस तक इस दिन को याद रखेंगे. जब कभी ये 'राजपूत' सुनेंगे तो उस दायरे या उस व्यक्ति से खुद-ब-खुद दूरी बना लेंगे. ये वो कमाई है जो मुट्ठी भर लोगों ने पूरे समुदाय को दी है.

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मैं सोचता हूं, ये कथित राजपूत किस शान के लिए सड़कों पर हैं. इनकी शान तब कहां गई थी जब रजवाड़े अंग्रेजों के सामने सिर झुकाए खड़े रहते थे. या आपके माथे पर तब बल क्यों नहीं पड़ा जब एक गरीब राजपूत दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा था. क्या राजपूतों का इतिहास सिर्फ राजे-राजवाड़ों तक ही सीमित है? या कोई गरीब कभी राजपूत नहीं हो सकता? गांवों को रुख कीजिए और देखिए राजपूतों के परिवार किस मरी हुई हालत में जी रहे हैं. आपने कैमरा देखा नहीं और शुरू हो गए नंगी तलवार का प्रदर्शन करने. एक राजपूत ने घास की रोटी खाकर जिंगदी बचाई थी. वो राजपूत बेशक अमीर था, इसीलिए उसका घास की रोटी खाना आम न था. लेकिन जो राजपूत गरीब है, वो क्या खाता है इसका कोई पूछने वाला नहीं. क्या उस राजपूत का आपसे कोई नाता नहीं है?

आप कहते हैं जौहर विरांगनाएं करती हैं. मैं पूछता हूं- आप वीर हैं या नहीं? अगर वीर थे तो युद्ध में हारने का डर क्यों था? क्योंकि, अगर डर न होता तो जौहर जैसी कुप्रथा क्यों बनाई. मुझे यकीन है कोई भी कितना ही दिलेर क्यों न हो, अपनी जान सबको प्यारी होती है. मौत का डर सबको होता है. लेकिन आपने झूठी शान की अग्नि में अपनी औरतों को ही झोंक दिया. आप कहते हैं कि जौहर स्वैच्छिक होता था. होता होगा! लेकिन इस प्रथा को बनाते वक्त क्या किसी औरत से उसकी इच्छा पूछी गई होगी? जवाब आपको पता होगा.

अगर मरना इतना ही आसान होता तो शायद आज सड़कों पर आप कथित राजपूतों की लाशें होतीं. क्योंकि अगर मौत दर्दनाक न होती तो जौहर जरूर कर लेते. लेकिन आप जानते हैं कि जलकर मरने में बहुत पीड़ा होती है. आग चमड़ी से लेकर हड्डियों तक को गला देती है और इंसान दर्द की हद तक उससे झेलता है. जलना आसान नहीं है, लेकिन जलाना आसान है. और वही आप सब कर रहे हैं. झूठी शान के लिए आसान रास्ता अपना रहे हैं.

खैर, पद्मावत के रिलीज से पहले कई औरतों और कथित राजपूतों ने भी जौहर करने की बात कही थी. मुझे एक भी केस नहीं दिखाई दिया. क्योंकि अब मौत मजबूरी नहीं है. कोई प्रथा आप पर थोपी नहीं जा रही. और सब कुछ स्वैच्छिक है. तो औरतों की इच्छा है कि वो जिंदा रहें. अपने मर्दों की झूठी शान के लिए जौहर न करें.

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रही बात आप सब के उत्पात की तो आप राजे हैं. आपके हाथ में कभी खंडित भारत की कमान हुआ करती थी. आपकी ये हरकतें एक बार फिर भारत को खंडित करने में लगी हैं. तो मान जाओ और जगहंसाई मत कराओ. एक फिल्म से तुम्हारे समुदाय का कुछ नुकसान नहीं होगा. हां, अगर ऐसी छोटी हरकतें करते रहे तो राजपूतों का नाम जरूर खराब हो जाएगा. सुधर जाओ-मान जाओ. सिर्फ तुम्हारे लिए सफिया शमीम की ये चार लाइनें...

शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे,

दिल में खुद आग लगा बैठे थे.

होश आया तो कहीं कुछ भी न था,

हम भी किस बज्म में जा बैठे थे.

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लेखक

रणविजय सिंह रणविजय सिंह @ranvijaysinghlive

लेखक आजतक में पत्रकार हैं.

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