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Updated: 15 अगस्त, 2016 05:47 PM
सुनील नामदेव
सुनील नामदेव
 
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ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में इंसानो और हाथियों के बीच जंग छिड़ गयी है! हाथी ग्रामीणों को उनके गांव से खदेड़ना चाहते हैं. वही दूसरी ओर इंसान हाथियों को जंगल से. इस जंग में किसका पलड़ा भारी रहेगा ये तो वक्त ही बताएगा. लेकिन जमीन को लेकर छिड़ी जंग में कभी इंसान तो कभी हाथियों को अपनी जान गवानी पड़ रही है.

छत्तीसगढ़ के कोरबा और अंबिकापुर जिले की सरहद पर बसे सैकड़ो गांव में लोगो की जान पर बन आयी है. वन विभाग, पुलिस और प्रशासन की टीम गांव के करीब घुसे हाथियों को खदेड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे है. उधर हाथी भी टस से मस नहीं हो रहे हैं. वो दो कदम पीछे और चार कदम आगे बढ़ कर ग्रामीणों पर ही हमले की तैयारी में हैं.

इन हाथियों को खदेड़ने के लिए देशी पटाखों, आंसू गैस के गोलों, सायरन और शोरगुल का इस्तेमाल होता है. ताकि हाथी लोगों की चीख पुकार सुनकर वापस जंगल की ओर चले जाएं. कुछ देर के लिए हाथी जरुर जंगल का रुख कर लेते हैं. लेकिन मौका पाते है फिर इन गांव वालों पर टूट पड़ते हैं.

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हाथियों से बदहाल छत्तीसगढ़ के लोग!

पूर्व केंद्रीय मंत्री चरण दास महंत हाथी प्रभावित इलाको के दौरे पर हैं. हमसे रूबरू होते वक्त उन्होंने कहा कि आजकल किसानों के लिए हाथी एक संकट बन गया है. यहां कोरबा के आस पास में 32 लोगों की जान जा चुकी है. 24 लोग अब तक घायल है और लगभग 290 घरों को इन हाथियों ने तोड़ दिया है. यही नहीं 15 हजार से ज्यादा किसानो की फसलें नष्ट है. सिर्फ कोरबा में ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन जिलो में इंसानो और हाथियों के बीच जंग छिड़ी हुई है.

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इन जिलों के सैकड़ो गांव में इस तरह का नजारा आम है. कोरबा, रायगढ़, चांपा जांजगीर, कोरिया, अंबिकापुर और जशपुर में कभी इंसानों की तो कभी हाथियों की जान पर बन आती है. सरकारी रिकॉर्ड में बीते पांच वर्षों में 14 हाथियों की मौत इस संघर्ष में हुई है. लेकिन गैर सरकारी आकड़ो के मुताबिक़ कभी करेंट लगा कर तो कभी जहर देकर ग्रामीणों ने भी कई हाथियों को मौत के घाट उतार डाला है. जंगल में कई दिनों तक पड़े रहकर हाथियों का शव सड़ गल जाता है. फिर लोग मौका पाते ही हाथियों के अवशेषों को ठिकाने लगाना शुरू कर देते है.

दाने-पानी की तलाश में जानलेवा बनते हाथी!

ग्रामीणों के मुताबिक कभी दाने पानी की तलाश में तो कभी हरी भरी फसलों को रौंदने के लिए हाथियों का दल गांव पर हमला कर देता है. इस दौरान उनकी राह में रोड़ा बने ग्रामीणों को हाथी अपने पैरों तले कुचल देते हैं. इन हाथियों पर हमला करना आसान नही होता. लिहाजा मौका पाते ही घर बार छोड़ कर ये ग्रामीण अपनी जान बचाते हैं.

हाथियों के हमले से प्रभावित रायगढ़ के कोसमी इलाके के ग्रामीण मनोरंजन साहू अपना दर्द बयां करते हुए कहते है कि उन्हें हाथी ने पटक दिया था. अस्पताल में गया था पर वहां कोई इलाज नहीं हुआ , पूरा शरीर फूल गया है. यही आत्माराम का भी कहना है. उनकी पत्नी और वो हाथियों के हमले से बुरी तरह घायल हो गए थे.

वर्ष 2007 में हुई इस घटना में उनकी पत्नी की मौत हो गयी. उस वक्त उनका परिवार खेत में काम कर रहा था. इसके बाद वन विभाग ने मात्र एक हजार रूपये का मुआवजा दिया. करीब पांच सौ के लगभग गांव में हाथियों ने सैकड़ों एकड़ हरीभरी फसलो को नष्ट कर दिया है. इस इलाके में लोग सब्जी भाजी के अलावा चावल , मक्का और दाल तिलहन , गन्ना उपजाते है. यही वो खाद्य पदार्थ है जिस पर हाथियों की नजरें लगी रहती हैं. फसलों के पकने की खुशबु जंगल में फैलते ही हाथियों का झुण्ड गांव की ओर रुख कर लेता है. फिर छिड़ जाती है हाथियों और इंसानो के बीच खूनी जंग.

सरकार का दावा है कि वो हालात पर नजर रखे हुए है. हाथियों को काबू में करने की कोशिशें की जा रही है. राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह की दलील है कि अभी डाइवर्जन हो रहा है और 88 के बाद 25-30 हाथी आया करते थे अब उसकी संख्या ढाई सौ से ज्यादा हो गयी है.

सरकार के मुताबिक हाथी प्रभावित इलाकों में एक कॉरिडोर बना कर उसमे बेहतर सुविधा का निर्माण और फेंसिंग हो रही है. यह फेंसिंग करीब ६ सौ किलोमीटर में की जा रही है, ताकि हाथियों को एक स्थान विशेष में सीमित किया जा सके.

मुगल शासक यहीं से पकड़ कर ले जाते थे हाथी...

ओडिसा और झारखण्ड से सटा छत्तीसगढ़ का सरहदिय इलाका प्राकृतिक रूप से हाथियों की शरणस्थलीय रहा है. यहां हाथियों के परम्परगत झुण्ड हैं, जो कई वर्षों से यहां बसे हुए हैं. खासबात यह है कि मुग़ल काल में अपनी सेना की ताकत बढ़ाने के लिए मुस्लिम शासक इसी इलाके से हाथियों को पकड़ कर ले जाया करते थे. कभी शिकार के लिए तो कभी सैर सपाटे के लिए. यह इलाका मुग़ल शासकों की पहली पसंद रहा है.

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लेकिन अब इस इलाके में हाथी आतंक का पर्याय बन चुके है. हाथी प्रभावित इलाकों में पीड़ितों को सरकार दोनों सूरत में मुआवजा देती है- जान गवाने पर और फसलो के नष्ट होने पर भी. लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर.

एक एकड़ फसल नष्ट होने और महज पांच सौ रुपये मुआवजा मिलता है. जबकि जान गवाने वाले पीड़ितों के मरीजों को 80 हजार से लेकर 1 लाख रूपये तक. कुछ साल पहले तक हाथी इन इलाकों में सिर्फ अप्रैल और मई माह में ही दस्तक दिया करते थे. क्योकि भीषण गर्मी के चलते इस दौर में जंगलो में आकाल की स्थिति हो जाया करती है.

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 फसलों के बर्बाद होने की वजह बनते हाथी..

जंगलो में हरी भरी घास और वो पेड़ पौधे सुख जाते है जो हाथियों को पसंद हैं. जंगलो के भीतर के नदी, नाले और पानी के श्रोत भी सूख जाते हैं. लिहाजा दाने पानी की तलाश में हाथियों का दल गांव की ओर रुख कर लेता हैं.

लेकिन इन इलाको में साल दर साल हाथियों के हमलो में तेजी आई है. अब गर्मी के दो तीन माह नहीं बल्कि पूरे साल भर हाथियों की आवाजाही होती है. हाथी अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए खेत खलियानों का रुख कर लेते हैं अंबिकापुर के नोशन गांव के सुखीराम अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कहते है कि उनका पूरा गांव हाथियों के हमले से बचने के लिए रतजगा करता है.

कभी मशाल जला कर तो कभी पटाखें फोड़ कर हाथियों को खदेड़ा जाता है. इलाके का रुख करने से पता चलता है कि पहले की तुलना में अब जंगल छोटे होते जा रहे है.

जंगल की जमीन औद्योगिग उपयोग और दूसरी परियोजनाओं के लिए आवंटित होने लगी है. वही जंगलों के भीतर इंसानी आबादी पैर पसारती जा रही है. इन इलाको में जब से इंडस्ट्रलाइजेशन शुरू हुआ है, तब से जंगलों के आने जाने वाले रास्ते कई हिस्सो में बट गए हैं. नतीजतन हाथी भी अपने आवाजाही के रास्ते से भटक कर गांव में आने लगे हैं और भूख प्यास मिटाने के लिए ग्रामीणों के घरो में भी घुसने लगे हैं. किसानो को मुआवजा देकर सरकारी अफसर अपनी औपचारिकताएं पूरी तो कर लेती है. लेकिन इन हाथियों की आवाजाही रोकने के लिए वो कोई ठोस प्रयास नहीं कर रही है.

आखिर क्यों लेटलतीफी बरती जा रही रही प्रोजेक्ट एलिफेंट को लेकर-

यह योजना क्यों ठंडे बस्ते में डाल दी गयी है, हमने इसका भी जायजा लिया. दरअसल, कोल लॉबी या एक ख़ास वर्ग नहीं चाहता की प्रोजेक्ट एलिफेंट योजना परवान चढ़ पाए. राज्य के जिन जिलों के हिस्से में एलिफेंट कॉरिडोर ना केवल प्रस्तावित हुआ बल्कि उस पर काम भी शुरू हो गया था. लेकिन एकाएक इस परियोजना को ठप्प कर दिया गया. क्योकि एलिफेंट कॉरिडोर के जंगलों में कोयले के बड़े भंडार मिल गए थे. इससे होने वाली करोड़ों की आमदनी ने सरकार और कोल लॉबी की आंखे खोल दी हैं.

कोल भंडारों के खुलासे के बाद सरकार की निगाहो में हाथियों के संरक्षण की बजाए कोयले से होने वाली कमाई ज्यादा कारगर नजर आने लगी. छत्तीसगढ़ सरकार हाथियों के संरक्षण को लेकर पहले काफी गंभीर नजर आई थी. लेकिन जैसे ही यह पता चला कि जंगलों के भीतर कोयले के भंडार हैं, तमाम रिपोर्टो की पड़ताल के बाद सरकार का हाथियों के संरक्षण का दावा खोखला साबित हुआ.

यहां तक की राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण को लेकर अपना मुह फेर लिया.

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दरअसल राज्य में तीन अलग अलग इलाकों में प्रोजेक्ट एलिफेंट को मंजूरी दी गयी थी. इसमें कोरबा जिले में लेमरु, अंबिकापुर में तमोलपिंगला और जशपुर में बादलखोल वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को सरगुजा, जशपुर हाथी रिजर्व में तब्दील कर दिया गया था. लेकिन जैसे ही जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (GSI) और सेंट्रल माइनस प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (CMPDI) की रिपोर्ट आई उसने हाथियों को लेकर सरकार की सोच बदल डाली. इन रिपोर्ट में कुल दर्जन भर नए कोल ब्लॉकों और उसमे कोयले के अथाह भंडारों का हवाला दिया गया.

नतीजतन एलिफेंट कॉरिडोर का निर्माण लटक गया. कोरबा स्थित लेमरु एलिफेंट कॉरिडोर में तीन बड़े कोल ब्लॉक शामिल हैं. इसमें नटिया कोल ब्लॉक जिसका रकबा 3427 हेक्टियर, श्यांग 2120 हेक्टियर, फतेहपुर 2110 हेक्टियर और फतेहपुर ईस्ट कोल ब्लॉक का रकबा 1400 हेक्टियर है.

सरगुजा जशपुर हाथी रिजर्व जो कि बादलखोल, तमोलपिंगला और सेमरसुद अभ्यारण को मिलकर बनाया गया है इसके भीतर ही तीन कोल ब्लॉक पाये गए है. इसमें रजकमार दीपसाइड, रजकमार दीपसाइड देवनारा और केसलनाल शामिल है. इन तीनो इलाको में लगभग एक लाख चौदह हजार तीन सौ चौतीस हेक्टियर के जंगल में कोयले के अथाह भंडार है. इसके चलते हाथियों को उनकी मूल शरणस्थलीय से खदेड़ने के लिए राज्य और केंद्र सरकार ने अपनी कमर कस ली है.

सरकार को बस मुनाफे की चिंता!

कोल ब्लॉकों के आवंटन की प्रक्रिया जारी है और वही दूसरी ओर हाथियों का पलायन. वाइल्ड लाइफ ऐक्टिविस्ट आलोक शुक्ला कहते है कि छत्तीसगढ़ का इलाका बहुत ही रिच फारेस्ट का इलाका है. काफी डेन्स फारेस्ट इलाका है और यहां की बायोसिटी रिच है. इकोलॉजिकली यह संपन्न इलाका है और ये माना गया था कि इस इलाके को संरक्षित करना चाहिए. लेकिन सिर्फ माइनिंग लॉबी के प्रेशर के कारण कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचाने के कारण तमाम प्रावधानों को नजरअंदाज करते हुए माइनिंग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है. जो पर्यावरण के लिए भी काफी घातक सिद्ध होने वाला है.

दरअसल 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद से ही प्रदेश में एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण को लेकर आवाजें उठने लगी थीं. जंगलो के भीतर बसने वाली एक बड़ी आबादी की मांग थी कि उनकी जानमाल की रक्षा के लिए लगभग दो लाख वर्ग किलोमीटर के इलाके का एलिफेंट कॉरिडोर के रूप में विकसित किया जाए.

साथ ही इन इलाकों में उन पेड़ पौधों को उपजाया जाए जो हाथियों के खाने पिने के लिए उपयोगी होते हैं. मसलन केला , अमरुद , शहतूत व अन्य जंगली पेड़ पौधे. यही नही एलिफेंट कॉरिडोर के भीतर ऐसे जल श्रोत भी निर्मित किये जाए जहां गर्मी के मौसम में भी हाथियों के लिए पानी की किल्ल्त न हो.

लिहाजा राज्य सरजकार ने 2005 में एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण के लिए विधान सभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा. UPA शासन काल में 2007 में केंद्रीय वन और पर्यावरण मंर्तालय ने इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे दी. केंद्र सरकार ने 2010 तक इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के निर्देश भी दे दिए थे. लेकिन GSI और CMPDI की रिपोर्ट ने एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण की योजना को ठप्प कर दिया. 2010 के बाद से यह परियोजना सिर्फ काजग में सिमट कर रह गयी है. जबकि कोल आवंटन के के मामले दिन दुगनी और रात चौगुनी प्रगति हो रही है.

एलिफेंट कॉरिडोर में कोल आवंटन की प्रक्रिया कहीं पर्यावरण नियमों की अनदेखी के चलते कही रुक ना जाए इसके लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को आधी अधूरी रिपोर्ट भेजी गयी. राज्य सरकार की ओर से कोल आवंटन के दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को सौपी जाने वाली इन्वायरमेंटल इम्पैक्ट असिस्मेंट रिपोर्ट में इस तथ्य को छिपाया गया कि इन तमाम कोल ब्लॉकों का इलाका पहले से ही रिजर्व फारेस्ट की कैटेगरी में है.

दूसरा एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी नजर अंदाज कर दिया गया कि कोल ब्लॉकों के इर्दगिर्द दस किलोमीटर के दायरे में इकोलॉजिकल एरिया मौजूद है. जहां हाथियों के अलावा और भी कई जंगली जानवर पाये जाते है. एलिफेंट कॉरिडोर के हिमायतियों के तमाम दावों को सरकार सिरे से खारिज कर रही है.

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सरकार का मानना है कि कोल आवंटन की प्रक्रियाओं को नियमानुसार पूरा किया जा रहा है. चाहे इन्वायरमेंट क्लियरेंस का मसला हो या फिर ग्रामीणो को होने वाले नुक्सान का. सरकार नियमानुसार काम कर रही है. सरकार की दलील है कि जो हाथी उत्पात मचा रहे है वो बाहरी प्रदेशो के हैं, छत्तीसगढ़ के नहीं. बहरहाल राज्य में हाथियों को उनके प्राकृतिक घरो से खदेड़ने की मुहीम शुरू हो गयी है.

ऐसे में ये हाथी जंगलो में बसे गांव और शहरों कि ओर रुख ना करे तो और कहां जाए. दूसरी ओर, पर्यावरणविदों को यह चिंता सता रही है कि आने वाले दिनों में हाथियों और इंसानो के बीच अस्तित्व की लड़ाई और कितनी घातक सिद्ध होगी.

लेखक

सुनील नामदेव सुनील नामदेव

लेखक आज तक में पत्रकार हैं

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