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Updated: 07 जनवरी, 2016 12:19 PM
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अगर कोई कहे कि इस्लाम और फैशन एकदूसरे के अनूकूल हैं तो शायद यकीन करना मुश्किल होगा, खासतौर पर अगर यह बात मुस्लिम महिलाओं के फैशन के लिए संदर्भ में कही गई हो. बुर्के और हिजाब में लिपटी रहने वाली मुस्लिम महिलाओं ने भी अलग अंदाज में ही सही और बिना अपनी परंपरा से समझौता किए फैशन को भी अपनाने का रास्ता खोज निकाला है.

अब तक महिलाओं के पहनावे को लेकर इस्लामिक परंपरा को निभाता आए मुस्लिम देश तुर्की में बदलाव की बयार बह चली है. 1923 में अपनी स्थापना के बाद से ही तुर्की में महिलाओं को स्कूल, कॉलेजों से लेकर नौकरियों तक में हिजाब पहनना अनिवार्य था. यह व्यवस्था 20वीं सदी तक जस की जस बरकरार रही और तुर्की की महिलाएं परंपरा के निर्वाहन के लिए हिजाब में लिपटी रहीं.

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लेकिन हाल के वर्षों में तुर्की में उत्साह और आत्मविश्वास से लबरेज मध्यमवर्गीय तुर्की महिलाओं ने वर्षों से चली आ रही पारंपरिक पहनावे की शैली में बदलाव लाना शुरू कर दिया है. तु्र्की का यह फैशन पश्चिमी देशों जैसा नहीं है लेकिन इसने परंपरा और फैशन के अद्भुत मेल से तुर्की की महिलाओं के लिए एक अलग तरह का विकल्प उपलब्ध कराया है. इसकी शुरुआत हिजाबी फैशन से हुई. हिजाबी फैशन उन महिलाओं के लिए पसंदीदा बनकर उभरा जो हिजाब तो पहनना चाहती हैं लेकिन उसे स्टाइल और फैशनेबल तरीके से.

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अला नाम की एक फैशन मैगजीन हिजाब फैशन से जुड़े आर्टिकल और तस्वीरें प्रकाशित करने के लिए चर्चा में है. साथ ही तुर्की में हिजाब फैशन शो के कई रीटेल स्टोर भी खुले हैं. 90 के दशक तक काले हिजाब में ही लिपटी रहने वाली इन महिलाओं के लिए अला जैसी मैगजीन के डिजाइनरों ने रंग-बिरंगे और आकर्षक तरीके से डिजाइन किए गए हिजाब उपलब्ध करवाए हैं. इससे मुस्लिम महिलाओं को भी फैशन से जुड़ी अपनी हसरत को पूरा करने का अवसर मिला है.

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ऑनलाइन हिजाबी फैशन आउटलेट ई-टेसेटर की को-फाउंडर ताहा यसीन टोरामन कहती हैं, '90 के दशक में शरीर को ढंकने का मतलब काले बुर्के थे. वे बहुत ही बदसूरत थे. ज्यादातर महिलाएं इस तरह से खुद को बुर्के में ढंकना नहीं चाहती थीं क्योंकि वे फैशनेबल दिखना चाहती थीं.'

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हालांकि ऐसा नहीं है कि इस बदलाव का विरोध नहीं हो रहा है बल्कि वहां हिजाब फैशन शो को लेकर लोग दो धड़े में बंटे नजर आते हैं. कंजरवेटिव टर्किश न्यूज मैगजीन हकसोज के लिए लिखने वाली एक पत्रकार और छात्रा बुशरा बुलुट हिजाब फैशन की जबर्दस्त विरोधी हैं. बुलुट का मानना है कि उनकी आस्था और अला मैगजीन और फैशन इंडस्ट्री द्वारा प्रदर्शित उपभोक्तावाद के बीच तनाव है.

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वह कहती हैं, वे ढंकी हुईं महिलाओं के लिए विकल्प पैदा करने का दावा करते हैं. फिर चाहे वे मैगजीन हों या अन्य प्लेटफॉर्म. ऐसे सैकड़ों ब्रैंड्स होने का मतलब यह नहीं है कि मैं उन्हें पहन सकती हूं या वे इस्लामिक हैं. यह महत्वपूर्ण सवाल है. महिला को पहनावे के जरिए अपनी पहचान बनाने की क्या आवश्यकता है? यह प्राथमिकता क्यों है?

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हिजाबी फैशन के पक्ष और इसके विरोध में बोलने वालों के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर अधिकारों से वंचित मुस्लिम महिलाओं के लिए यह बदलाव सिर्फ पहनावे नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव की उम्मीद जगाने वाला है. सऊदी अरब में हाल ही में मुस्लिम महिलाओं को पहली बार मिला चुनाव लड़ने और वोटिंग का अधिकार हो या हिजाबी फैशन से आधुनिकता की तरफ कदम बढ़ाने की यह कोशिश. इन चीजों से धीरे-धीरे ही सही लेकिन मुस्लिम महिलाओं का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है. इन बदलावों की प्रशंसा की जानी चाहिए.

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