New

होम -> समाज

 |  3-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 27 नवम्बर, 2015 11:56 AM
विनीत कुमार
विनीत कुमार
  @vineet.dubey.98
  • Total Shares

क्या भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को लेकर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है? एक मामले की सुनवाई करते हुए गुजरात हाई कोर्ट ने जो वक्तव्य दिया उसके बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ को लेकर एक बार फिर बहस हो रही है. सु्प्रीम कोर्ट भी मुस्लिम समाज में बहुविवाह और तीन तलाक जैसी प्रथाओं को लेकर लेकर कुछ दिनों पहले ही अपनी आपत्ति जता चुका है. बहरहाल, गुजरात हाई कोर्ट ने बेहद कड़े शब्दों में कहा कि आधुनिक और सुधारवादी विचारों को देखते हुए समय आ गया है कि भारत में बहुविवाह की व्यवस्था खत्म हो और यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात की जाए.

यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कराने की बात पहले भी होती रही है. कई जानकार मुस्लिम पर्सनल लॉ को हटाने की भी बात कर चुके हैं. लेकिन पूरे विषय को धर्म और कुरान से जोड़कर हर बार इसे टालने की कोशिश होती रही है.

इस्लाम में क्यों शुरू हुई बहुविवाह की प्रथा

जब भी इस बहस पर बात होती है, सबसे पहले कुरान का हवाला दे दिया जाता है. लेकिन यह तो कोर्ट ने भी कहा कि एक से ज्यादा बीवी रखने के लिए दरअसल कुरान की गलत व्याख्या की गई. चार शादियां करना मुस्लिमों का मौलिक अधिकार कतई नहीं है. कई जानकार भी कह चुके हैं कि कुरान में इस बात का साफ तौर पर उल्लेख है कि इस्लाम एक पुरुष को अपनी जिंदगी में चार शादी की अनुमति देता है लेकिन वह भी उसी स्थिति में अगर वह चारों के साथ न्याय कर सके. वैसे भी जब यह बात कही गई थी तो परिस्थितियां दूसरी थीं. तब अनाथ बच्चों और उनकी मांओं को समाज के दूसरे लोगों से शोषण से बचाने के लिए इस व्यवस्था की शुरुआत हुई.

लेकिन धीरे-धीरे यह संपन्नता और पैसों से जुड़ गया. जो लोग ज्यादा संपन्न थे, उन्होंने धर्म का हवाला देकर इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया और फिर यह पुरुषों की मर्जी बन गई. महिलाओं का सिर्फ शोषण हुआ. महिलाओं के सम्मान और बराबरी के हक के साथ समझौता हुआ.

दूसरे धर्मों में वक्त के साथ आया बदलाव

केवल इस्लाम ही नहीं है, जहां बहुविवाह का प्रचलन रहा. पौराणिक कथाओं और इतिहास का रूख कीजिए तो हिंदुओं, ईसाइयों, जैन धर्मावलंबियों में भी यह खूब रहा है. लेकिन समय के साथ इनमें बदलाव हुए. हिंदू समाज में तो सती प्रथा से लेकर बाल विवाह पर खुल के बहस हुई. उससे आगे बढ़ने की बात हुई. सफलता भी मिली. आंकड़े देखें तो आजाद भारत में भी विभिन्न धर्मों में बहुविवाह की बात सामने आती रही. 1961 की जनगणना के अनुसार तो हिंदुओं में बहुविवाह का प्रचलन मुस्लिमों से ज्यादा था. इसके बाद 1974 में भी सरकार द्वारा एक सर्वे कराया गया और तब भी मुस्लिमों में बहुविवाह का प्रतिशत 5.6 रहा जबकि हिंदुओं में यह प्रतिशत 5.8 रहा. लेकिन 2006 आते-आते इसमें बड़ी गिरावट हुई.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2006 की रिपोर्ट के अनुसार हिंदुओं में घटकर यह 1.7 फीसदी रह गई. मुस्लिमों में भी यह प्रचलन कम हुआ लेकिन यह अब भी 2.5 फीसदी के आसपास है. ज्यादातर मामलों में बच्चे न होने या पहली बीवी से लड़का न होने का कारण सामने आया. भारतीय कानून में दफा-494 के तहत दो शादी करना अपराध की श्रेणी में आता है. लेकिन यह कानून मुस्लिमों पर लागू नहीं होता. जाहिर है, मुस्लिम महिलाओं के मामले में कोर्ट सिवाय सुझाव देने के ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. फिर यह सीधे तौर पर देश के सभी नागरिको के लिए समान कानून के संविधान के मूल उद्दयेश्य पर भी तो सवाल खड़ा करता है.

#मुस्लिम, #बहुविवाह, #मुस्लिम पर्सनल लॉ, मुस्लिम, बहुविवाह, मुस्लिम पर्सनल लॉ

लेखक

विनीत कुमार विनीत कुमार @vineet.dubey.98

लेखक आईचौक.इन में सीनियर सब एडिटर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय