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Updated: 16 जून, 2018 04:08 PM
सुरेश आर गौरव
सुरेश आर गौरव
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अब तक यूपीएससी द्वारा ली जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त अंक और प्रीफरेंस के आधार पर कैडर और सेवाओं का आवंटन किया जाता है. सफल उम्मीदवारों को लबासना, मसूरी(लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी) में 15 सप्ताह का फाउंडेशन कोर्स कराया जाता है, जो उनके प्रशिक्षण का हिस्सा होता है. इस प्रशिक्षण का सेवाओं के आवंटन में कोई योगदान नहीं होता है.

लेकिन, केंद्र सरकार द्वारा लाये गए एक प्रस्ताव में कहा गया है कि अब उम्मीदवारों को सेवाओं और कैडर का बंटवारा केवल प्राप्त अंक और पसंद के आधार पर नहीं बल्कि सिविल सेवा परीक्षा और फाउंडेशन कोर्स में प्राप्त संयुक्त अंक के आधार पर होगा. नए प्रस्ताव पर विश्लेषकों और जानकारों के मत भिन्न हैं. आलोचकों का कहना है कि सर्वोच्च अंक प्राप्त उम्मीदवार को भी फाउंडेशन कोर्स की समाप्ति का इंतजार करना होगा कि वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए योग्य है या नहीं.

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा को तीन चरणों में लेता है, जो प्राथमिक, मुख्य और साक्षात्कार में वर्गीकृत है. यूपीएससी राजनीतिक दबावों से परे जाकर सबसे बेहतरीन उम्मीदवारों को भारतीय प्राशानिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय विदेश सेवा और कई अन्य सेवाओं के लिए चुनता है. इसी कारण 2010 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लांट प्रिचेट ने कहा था कि भारत की सिविल सेवा परीक्षा दुनिया के सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक है.

upsc civil servicesसेवाओं और कैडर का बंटवारा केवल प्राप्त अंक और पसंद के आधार पर नहीं बल्कि सिविल सेवा परीक्षा और फाउंडेशन कोर्स में प्राप्त संयुक्त अंक के आधार पर होगा

नया प्रस्ताव कानूनी और प्रशासनिक रूप से गलत है

वास्तव में उपर्युक्त प्रस्ताव सरकार का केवल एक प्रस्ताव मात्र है. अभी अंतिम फैसला लिया जाना बाकी है. लेकिन, इस प्रस्ताव ने कई तर्क-वितर्कों को जन्म दे दिया है.

पहला, भारतीय संविधान के भाग-14 में अनुच्छेद 315-323 के बीच लोक सेवा आयोग से संबंधित उपबंध है. अनुच्छेद 320(1) कहता है- "संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों का यह कर्तव्य होगा कि वे क्रमशः संघ की सेवाओं और राज्य की सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाओं का संचालन करे."

संवैधानिक प्रावधान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा लेने की शक्ति केवल यूपीएससी में निहित है. अगर फाउंडेशन कोर्स में प्राप्त अंक के आधार पर सेवाओं का आवंटन होगा तो ट्रेनिंग एकेडमी को यूपीएससी का नया अंग होना होगा जो कि नहीं है. इस तरह यह नया प्रस्ताव अनुच्छेद 320(1) में दिए गए उपबंध का उल्लंघन करेगा.

दूसरा, इसी तरह अनुच्छेद 316 के अनुसार, यूपीएससी के सदस्यों को कार्यकाल और हटाने को लेकर संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है. जो इन्हें राजनीतिक दबाव से मुक्त रखता है. जबकि ट्रेनिंग एकेडमी का डायरेक्टर एक नौकरशाह होता है जिसका किसी भी समय तबादला हो सकता है. इसपर 'द हिन्दू' में अशोक रेड्डी, जो पूर्व आईएएस अधिकारी हैं, लिखते हैं- "फाउंडेशन कोर्स लेने वाले डायरेक्टर राजनीति से प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि उन्हें संवैधानिक सुरक्षा हासिल नहीं होती है.

नए प्रस्ताव को लाने में तीसरी मुख्य समस्या ट्रेनिंग एकेडमी की आधारभूत सरंचना को लेकर है. अभी लबासना, मसूरी में केवल 400 अभ्यार्थियों के लिए ही फाउंडेशन कोर्स की व्यवस्था है. अगर अभ्यार्थियों की संख्या 400 से ज्यादा हो जाती है तो फाउंडेशन परीक्षा को दूसरे शहर में लेना होगा. जाहिर है अलग-अलग जगहों पर भिन्न-भिन्न मानसिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक माहौल हो सकता है.

एक तथ्य यह भी है कि अभी एकेडमी में मात्र 12 प्रशिक्षक हैं. एकेडमी में प्रशिक्षक-प्रशिक्षित अनुपात ज्यादा है. उपर्युक्त स्थिति देखकर कहने की कोई आवश्यता नहीं है कि आधारभूत संरचना का अभाव एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त फाउंडेशन परीक्षा कराने में असमर्थ होगा.

नए प्रस्ताव को अमल में लाने से पहले सरकार को निम्नलिखित उपबंध करनी चाहिए-

अगर सरकार उपर्युक्त कमियों को दूर कर कुछ संशोधन और प्रावधान स्थापित करती है तो नए प्रस्ताव को अमली जामा पहनाया जा सकता है. जैसे-

1. अनुच्छेद 320(1) में संशोधन कर ट्रेनिंग एकेडमी को भी सेवाओं की आवंटन की जिम्मेदारी सौंपकर.

2. ट्रेनिंग एकेडमी में फाउंडेशन कोर्स लेने के लिए एक स्वायत्त कमिटी का गठन करकर, जिसके सदस्यों की नियुक्ति लोकपाल जैसा नियुक्त कमिटी करे, जिसकी संरचना ऐसी हो कि वह राजनीति से परे हो.

3. ट्रेनिंग एकेडमी के डायरेक्टर को राजनीति से परे रखने के लिए इन्हें भी यूपीएससी की सदस्यों की भांति कार्यकाल और हटाने से संबंधित संवैधानिक सुरक्षा देकर. और,

4. उपयुक्त आधारभूत संरचना तैयार करकर.

नया प्रस्ताव सिविल सेवा सुधार की दिशा में एक कदम

उपर्युक्त आलोचनाओं को नजरअंदाज कर दें तो सरकार द्वारा लाया गया नया प्रस्ताव सिविल सेवा सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा. सिविल सेवा परीक्षा में प्राप्त अंकों के विश्लेषण से पता चलता है कि सर्वोच्च रैंक प्राप्त अभ्यार्थी और 500वीं रैंक प्राप्त अभ्यार्थी के बीच अंकों का अंतर बमुश्किल 50-100 से ज्यादा नहीं होता है. ऐसा किसी खास प्रश्न का संतुष्टिदायक उत्तर न दे पाने, मानसिक तनाव, कई अन्य कारणों से मुख्य परीक्षा में उत्तर लेखन में भटकाव तथा अलग-अलग साक्षात्कार बोर्डों में अंक देने का भिन्न-भिन्न पैमाना होने से संभव है. अंकों का इन मामूली अंतर के आधार पर अभ्यार्थी की प्रशासनिक कौशल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

सर्वविदित है कि यह जरूरी नहीं है कि सर्वोच्च रैंक प्राप्त अभ्यार्थी भारतीय प्रशासनिक सेवा के योग्य ही हो. प्रशासनिक इतिहास गवाह रहा है कि सर्वोच्च रैंक प्राप्त अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं तथा उनमें प्रशासनिक हीनता के गुण भी देखे गए हैं जबकि अपेक्षाकृत निम्न रैंक प्राप्त अभ्यार्थी प्रशासनिक काबिलियत का नमूना पेश किए हैं.

नया प्रस्ताव केवल मामूली प्रयास है

सिविल सेवा की ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत जो अपने स्टील ढांचे के लिए चर्चित रही है, कई आलोचक और जानकार कहते हैं कि इस ढांचे में जंग लग चुका है जिसमें सुधार की जरूरत है. हो सकता है कि नया प्रस्ताव इस सुधार की दिशा में सरकार का एक प्रयास हो. फिर भी सरकार का यह प्रयास मामूली है. 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि तबादला, पोस्टिंग, जांच, प्रोमोशन, रिवार्ड, दंड तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई के प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार 'सिविल सेवा बोर्ड' का गठन करे, लेकिन अभी तक कोई प्रयास नहीं किया गया है और न ही प्रयास के संकेत दिख रहे हैं.

सर्वविदित है कि भारतीय-औपनिवेशिक सिविल सेवा की वास्तविक समस्या नियुक्ति में नहीं बल्कि व्यवस्था(system) से जुड़ने के बाद क्या होता है, उसमें है. सरकार को इस दिशा में प्रयास करने की सख्त जरूरत है. तंत्र में आने के बाद परीक्षार्थियों की समाज सेवा के उद्देश्य किस प्रकार धूमिल और नष्ट होते नजर आते हैं बताने की जरूरत नहीं है.

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लेखक

सुरेश आर गौरव सुरेश आर गौरव @suresh.rgaurav.7

लेखक IIMC के छात्र हैं

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