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Updated: 03 मार्च, 2023 01:46 PM
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क्या किसी ने आज तक माना या कहा कि गोस्वामी तुलसीदास कृत "श्रीरामचरितमानस" में रामभक्त हनुमान को अधम, खल (दुष्ट), सठ (मूर्ख) जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है? सुंदरकांड के दोहा 23 की दूसरी चौपाई कहती है - "मृत्यु निकट आई खल तोही ; लागेसि अधम सिखावन मोही!" यह निकला है रावण के मुख से हनुमान के लिए कि, अरे खल (दुष्ट) तेरी मृत्यु निकट आ गई है ; अरे अधम, मुझे सिखाने चला हैं ? इस दोहे की चौथी चौपाई है-"सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना, बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना !" अर्थात हनुमान के वचन सुनकर वह (रावण) खिसिया गया और बोला, अरे, इस मूढ़ (मूर्ख) के प्राण जल्द ही क्यों नहीं ले लेते?

इन चौपाइयों को चिरकाल से हनुमान जी के श्रद्धालु भक्तजन ना केवल पढ़ रहे हैं, बल्कि इनका पाठ करना ही पूजा और धर्म मान रहे हैं. क्या कभी किसी ने भी इन दोहों को देखकर पढ़कर रामचरितमानस या इसके रचयिता तुलसीदास जी को कभी भला-बुरा कहा? क्या कहीं भक्तों ने इसलिए श्रीरामचरित मानस को जलाया कि इसमें उनके आराध्य बजरंगबली हनुमान को अधम, दुष्ट , मूर्ख आदि शब्दों से संबोधित किया गया है ? क्योंकि गुनी भक्तजन जानते हैं कि ऐसा ना तो श्रीराम ने हनुमान जी के लिए कहा है और ना ही गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है. हनुमान जी को इन शब्दों से पथ भ्रष्ट, मति भ्रष्ट रावण संबोधित कर रहा है.

ठीक यही बात "ढोल गंवार शूद्र पसु नारी; सकल ताड़ना के अधिकारी" के लिए है. इस चौपाई को लेकर अभी माहौल खूब बिगाड़ा जा रहा है. वजह विशुद्ध वोट की राजनीति है, जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ जाति विद्वेष फैलाकर लामबंद हो रहे हिंदुओं को भरमाना है. परंतु ऐसा पहले भी कई बार हुआ है जब कोई दलित संगठन, महिला संगठन या कभी किसी स्वयंभू किस्म के मानवाधिकार संगठन ने भी इस ख़ास चौपाई को लेकर आक्रोश जताया है. इसे रामचरितमानस से निकालने की मांग की जाती रही है. लेकिन इस बार तो श्रीरामचरितमानस सही में राजनीति का शिकार हो गयी; पहले बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने मानस को नफ़रत फैलाने वाला ग्रंथ बता दिया और फिर यूपी के मौर्या ने बेशुमार कुतर्क करते हुए रामचरित मानस के आपत्तिजनक अंश हटाने की या इस पूरे ग्रन्थ को ही बैन कर देने की मांग कर दी. उनका डायलॉग है -"जो धर्म हमारा सत्यानाश चाहता है, उसका सत्यानाश हो".

समझ नहीं आता जिस तुलसीदास ने "बंदउँ संत असज्जन चरना" लिखकर मानस की शुरुआत की, "बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न" बोलते हुए सीताराम के चरणों की वंदना की, विनयपत्रिका में श्री सीता स्तुति करते हुए सीताजी को हे माता और हे जगजननी जानकी जी कहा, वे कैसे समस्त 'शूद्र' तथा 'स्त्री' को पिटाई का पात्र मान सकते हैं ?

Ram Charit Manasतुलसीदास रचित रामचरित मानस.

वैदिक वर्ण व्यवस्था में शूद्र का तात्पर्य सेवक से है. अर्थात जो व्यक्ति किसी की किसी कार्य में सहायता करता हो, वह शूद्र की श्रेणी में आता है. जैसे आजकल लोग (लेबर,नौकरी, वर्कर ) अर्थात जॉब करते हैं , वे शूद्र कहलायेंगे. लेकिन बात करें तब के शूद्रों की. तो तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में ऐसा कदापि लिख ही नहीं सकते थे. क्यों ? जवाब स्पष्ट है, राम के क्षत्रिय होते हुए भी निषाद, केवट आदि सबों को गले लगाने के प्रसंग हैं, शबरी (शूद्र) के जूठे बेर तक खाने का प्रसंग हैं। जब ऐसे श्रीराम के प्रति तुलसीदास की आसक्ति है, प्रेम है, तो वे राम के आदर्श के विरुद्ध क्यों कुछ बोलेंगे?

किसने और क्‍यों कहा था- ढोल, गंवार...

सबसे पहले जानना होगा कि यह बात कौन बोल रहा है? यह बात तो समुद्र बोल रहा हैं और उसने भयभीत होते हुए विक्षुब्ध अवस्था में ऐसा कहा था. ना तो श्रीराम ने और ना ही तुलसीदास जी ने ऐसा कहा था. अब जरा देखें प्रसंग क्या बना था? हनुमान सीता की खबर लेकर वापस लौट आये थे. राम सीता की मुक्ति हेतु लंका पर आक्रमण करने के लिए समुद्र से रास्ता देने की विनती कर रहे थे. तीन दिन बीत जाने पर भी समुद्र देव ने रास्ता नहीं दिया और ना ही वे प्रकट हुए. तब राम समुद्र पर क्रोधित हो गए थे और उन्होंने बोला, "भय बिनु होइ न प्रीति" और फिर राम ने लक्ष्मण से कहा,"लछिमन बान सरासन आनू, सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु ; सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति !" भावार्थ है कि 'भय के बिना प्रीति नहीं होती ; हे लक्ष्मण, धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ ; मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति......' मरता क्या न करता सो समुद्र ने कहा. "सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे, छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ; गगन समीर अनल जल धरनी, इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी !" कहने का मतलब समुद्र स्वयं मानता है कि आकाश, वायु ,अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) है.

फिर समुद्र के राम के प्रति शरणागत के भाव को प्रदर्शित करती एक अन्य चौपाई है और तब प्रभु राम के चरण पकड़ क्षमा मांगते हुए उसकी विक्षुब्ध अवस्था का ही भाव है कथित 'विवादास्पद' चौपाई, "प्रभु भल कीन्ह मोहि सीख दीनहिं, मरजादा पुनि तुम्हरी किन्हीं ; ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी !" सवाल है समुद्र ने ऐसा क्यों कहा ? दरअसल भगवान श्री राम के कोप से उत्पन्न उन हालातों में समुद्र से किसी विवेकपूर्ण कथन की अपेक्षा हो ही नहीं सकती थी. सो इस चौपाई का अर्थ समुद्र के मनोभावों को समझते हुए करना होगा, न कि शाब्दिक अर्थ में !

बात करें आज के आलोक में तो क्या आज हिंदू समाज का कोई संत, ब्राह्मण या नामचीन व्यक्तित्व कह रहा है कि हम 'ढोल, गंवार ,......' वाली पंक्ति को शाब्दिक अर्थ में सही मानते हैं या इसका समर्थन करते हैं ? जवाब है नहीं. सबों का स्पष्ट मत है कि आज वर्ण व्यवस्था अप्रासंगिक हो गई है, कालबाह्य हो गई है. आज कोई भी शूद्र नहीं है. आज कथित पंक्ति पर समाज में किसी प्रकार के मतभेद की गुंजाइश नहीं है. पहली बात तो यह कि यह कथन राम का नहीं है, राम के क्रोध से डरे हुए विप्र वेश में समुद्र का कथन है. दूसरा यह भी कि ना तब और ना ही अब कोई भी समझदार व्यक्ति इस पंक्ति का समर्थन करता था/है. आज कोई भी शूद्र नहीं है. सब भाई भाई हैं और नारी के प्रति पूरा सम्मान है और होना चाहिए.

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आज या पहले कभी जिसने भी रामचरितमानस सरीखे धर्मग्रंथ या तुलसीदास जी को लेकर अनर्गल बातें की हैं, वे सरासर अज्ञानी हैं, कुतर्की हैं. यदि इन अज्ञानियों के कुतर्क को सही मान भी लें तो यह बात तो समुद्र देव कह रहा है. लेकिन उन्हें क्या समझाएं जब वे अज्ञानी हैं तो भगवान और देव के फर्क को क्या समझेंगे ? लेकिन उन्हें समझाने के लिए श्री रामचरितमानस की ही सैर करवा दें. अगर मान भी लें कि तुलसीदास जी ऐसे गलत वचन का समर्थन कर रहे हैं तो फिर वही तुलसीदास ऐसा क्यों लिखते, "अनुज बधू भगिनी सूत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी ; इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई !" भावार्थ से कहें तो श्री राम बालि को मूर्ख कहते हुए सीख देते हैं कि छोटे भाई की स्त्री, बहिन , पुत्र की स्त्री और कन्या एक समान है, इनको जो भी कोई बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता. ऐसे अनेकों प्रसंग है अयोध्याकांड में जिनमें स्त्री की महत्ता बताई गयी है. स्पष्ट है गोस्वामी तुलसीदास कतई स्त्री विरोधी नहीं है. जहाँ तक छोटी जाति या शूद्रों के प्रति असम्मान दिखाने की, कोसने की बात है तो निषाद का प्रसंग, शबरी का प्रसंग भी मानस में ही हैं. पशुओं की बात करें तो ऑन ए लाइटर नोट बताते चलें बंगाल में तो वानरों को हनुमान कहा जाता है श्री रामचरितमानस की वजह से ही.

कुल मिलाकर जो भी है राजनीतिक बवाल है, मानस के बहाने जाति के दंश को हवा देनी है. कहा जा सकता है सदियों तक दहकती रही जाति धर्म की आग की चिंगारियां अब जब मंदी पड़ने लगी थी, निहित स्वार्थ के लिए कुत्सित राजनीति के वश कतिपय नेता इसे फिर से सुलगा रहे हैं. विश वे सफल ना हों !

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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