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Updated: 17 जनवरी, 2019 06:27 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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भारत इतना बड़ा देश है कि उत्‍तर से दक्षिण जाते-जाते, या पूरब से पश्चिम आते-आते किसी एक चीज के बारे में बातें, धारणाएं और रिवाज पूरी तरह बदल जाते हैं. गाय उनमें से एक है. गाय को पूज्य मानकर उसकी रक्षा करने वालों की हिंसा हमारे सामने है. तो इसी देश में जलीकट्टू को लेकर तमिलनाडु वाली जिद भी है. देश में जहां बीफ का लेकर संवेदनाएं अपने उफान पर हैं, तो पूर्वोत्‍तर में बीफ रोज के खाने में शुमार है. अब ताजा विवाद कर्नाटक की वर्षों पुरानी रीति को लेकर सामने आया है. कर्नाटक में पिछले कई सालों से मकर संक्रांति पर एक त्योहार मनाया जाता है- किच्चु हाईसुवुदु (Kicchu Hayisuvudu या Kichh aayesodu). ये खास त्योहार गायों की अग्निपरीक्षा जैसा लगेगा. इस त्योहार में गायों को और उनके मालिकों को आग पर से गुजरना होता है. कहने को ये आग 1 फिट ऊंची ही होती है और मुश्किल से 2-5 सेकंड में गुजर जाना होता है, लेकिन अगर देखा जाए तो इसमें जलने का अहसास तो बेजुबान जानवरों को होता ही है.

गाय, गौरक्षक, कर्नाटक, आग, मकर संक्रांतिकर्नाटक में गायों को इस तरह आग पर से गुजरना होता है.

क्यों मनाया जाता है ये त्योहार?

इस त्योहार को हार्वेस्ट यानी फसल काटने के सीजन में मनाया जाता है. मकर संक्रांति के दौरान दो दिन का ये त्योहार होता है. पहले दिन गाय-बैलों को खूब खिलाया पिलाया जाता है. उन्हें खुले में छोड़ दिया जाता है, दूसरे दिन यानी संक्रांति के दिन उन्हें खूब सजाया जाता है. अलग-अलग रंगों से, घंटियों से, मोरपंख से, उनपर रंग बिरंगे कपड़े भी डाले जाते हैं और फिर उन्हें शाम होते-होते आग पर से कुदवाने की तैयारी की जाती है.

इस त्योहार के पीछे का तर्क बेहद रोचक है. कुछ कहते हैं कि ये सदियों से मनाया जाता रहा है और ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है और कुछ कहते हैं कि ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि गाय बैलों के पैरों में कोई इन्फेक्शन न हो सके.

इस त्योहार के बारे में थोड़ी सी रिसर्च से ही पता चल गया कि ये बहुत पुरानी प्रथा है और इसका तर्क सीधे तौर पर यही दिया जाता है कि इससे गाय को बीमारी नहीं होती. ये कर्नाटक के मैसूर के ग्रामीण इलाकों और मांड्या जिले में होता है. सुदूर गांवों में होने वाला ये त्योहार किस तरह से गायों के लिए अच्छा है ये समझा नहीं जा सकता.

पहली बात तो ये कि इस त्योहार को सदियों से मनाया जा रहा है. कितना पुराना ये किसी को नहीं पता, लेकिन चलिए मान लिया कि 100 सालों से भी मना रहे हैं तो भी उस समय गाय को बचाने के लिए इतने साधन नहीं थे. उन्हें जल्दी इन्फेक्शन हो जाता था. उस समय ये प्रथा एक इलाज के तौर पर ही देखी जाती थी. पर उस समय तो इंसानों के इलाज के लिए भी बड़ी मुश्किल होती थी. पर जब इंसानों के इलाज का तरीका बदल गया तो गायों के इलाज का तरीका क्यों नहीं?

दुनिया भर के इंजेक्शन, दवाइयां उपलब्ध है तो फिर उनका इस्तेमाल क्यों नहीं? जानवर को दर्द देना कहां तक सही है?

एक फेसबुक पेज Indigenous Games of Karnataka इसके बारे में कई पोस्ट डाल चुका है. इस पेज पर कई वीडियो, फोटो इस त्योहार से जुड़ी मिल जाएंगी. उस पोस्ट में लिखा है कि पहले गायों का बहुत ख्याल रखा जाता है और फिर रात में उन्हें सूखे चारे पर लगाई आग में चलना होता है. गायों को एक ही दिशा में दौड़ने को मजबूर किया जाता है. बाकी दिशाओं से उन्हें भगाया जाता है. ये पूरी प्रथा सिर्फ कुछ ही मिनटों में खत्म हो जाती है. लेकिन कुछ मिनट भी काफी हैं किसी को परेशानी में डालने के लिए.

ये सिर्फ एक विश्वास के तहत किया जाता है कि मवेशियों को इससे कोई बीमारी नहीं होगी और भगवान प्रसन्न होंगे और सुख-समृद्धि लाएंगे, लेकिन अगर देखा जाए तो ऐसे रिवाज की जरूरत ही अब खत्म हो चुकी है. जलीकट्टू, मुर्गों की लड़ाई, और किच्चु हाईसुवुदु जैसे रिवाज सिर्फ जानवरों पर अत्याचार जैसा ही काम करते हैं. आखिर कब तक हम पुराने रिवाजों का बोझ ये समझकर ढोते रहेंगे कि जो सदियों से चला आ रहा है उसे अभी भी चलते रहना चाहिए. सच पूछिए, तो ऐसी रूढ़‍ियों को दूर करने के लिए ही गोरक्षकों को आगे आना चाहिए. न कि, किसी अनजाने शक के चलते कुछ ट्रकों पर चढ़ी गाय देखकर उस ट्रक के ड्राइवर को पीट-पीटकर मार डालने के लिए.

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श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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