New

होम -> समाज

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 16 दिसम्बर, 2015 11:01 AM
श्रीमई पियू कुंडू
श्रीमई पियू कुंडू
  @sreemoyee.kundu
  • Total Shares

याकूब मेमन को फांसी दिए चार महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है लेकिन उसे दिए गए मौत की सजा का विश्लेषण अब भी चल रहा है. याकूब 1993 बम धमाकों में अहम भूमिका निभाने का दोषी पाया गया था.

एक ऐसा देश जो सेकुलर होने पर गर्व महसूस करता है, वहां सोशल मीडिया पर इस बात की चर्चा हो रही है कि इस देश में क्या याकूब को मुस्लिम होने की सजा भुगतनी पड़ी. हमारे सेकुलर देश में हर सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी और आपराधिक मामला आगे चलकर सांप्रदायिक चर्चा में बदल जाता है. आतंकवाद टीआरपी की लड़ाई जीत जाता है. यहां कई लोगों में अब भी गुस्सा बाकी है. पीड़ितों के क्षत विक्षत शरीर, गिरी हुई इमारतें, धूल और राख से ढकी हुई कारों के दृश्य बार-बार दिखाए जाते हैं. यह सब दिखा कर आपको एक पक्ष चुनने के लिए दबाव डाला जाता है.  

अपनी सोच साफ करने की जरूरत

इन सब के बीच, निर्भया रेप केस का क्या, जिसने पूरे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया था? जिसने राजधानी के पुरुष और महिलाओं को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर किया? उन कैंडल लाइट मार्चों, विरोध के उन पोस्टरों का क्या जिसके तहत सरकार पर आरोप लगाए गए थे कि वह महिलाओं को सुरक्षा देने में नाकाम रही है. इसी साल की शुरुआत में बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में मौत की सजा पाए मुकेश सिंह की टिप्पणियों पर मचे शोर शराबे पर आप क्या कहेंगे?

मुकेश सिंह ने क्या कहा था- 'एक अच्छी लड़की रात के नौ बजे सड़कों पर नही घूमती. किसी भी दुष्कर्म के लिए लड़कों से ज्यादा लड़की जिम्मेदार होती है. लड़का और लड़की बराबर नहीं हैं. लड़कियों को घर के काम करने चाहिए न कि देर रात वह डिस्को और बार में घूमे. गलत काम करे, गलत कपड़े पहने. केवल 20 फीसदी लड़कियां अच्छी होती हैं.'

मुकेश के इन तीखे शब्दों ने देश की सभी महिलाओं में गुस्सा भर दिया. साथ ही चिंतित और रूढ़िवादी भारतीय माता-पिताओं ने अपनी घर की लड़कियों को एक बार फिर शिक्षा देना शुरू किया कि वे अपने वक्षों को ढक कर रखें, शॉर्ट स्कर्ट नहीं पहने. लड़कों से बात नहीं करे, किस नही करें, देर रात फिल्म देखने नहीं जाएं. अगर कहीं भी पहुंचे तो फोन करें...बस, रिक्शे पर न चढ़ें.

बीबीसी के उसी इंटरव्यू में मुकेश सिंह ने उस गैंग रेप को महज एक दुर्घटना बताते हुए बेशर्मी से कहा, 'रेप के समय उसे विरोध नहीं करना चाहिए था. उसे बस शांत होकर इसे होने देना चाहिए था. ऐसा होता तो वे रेप के बाद उसे बस से उतार देते और केवल लड़के को चोट पहुंचाते.'

यहां तक कि रेप के उन आरोपियों का कोर्ट में बचाव करने वाले एपी सिंह जैसे वकील ने टीवी कैमरे पर कहा, 'अगर मेरी बेटी या बहन शादी से पहले किसी तरह का संबंध बनाती है या ऐसे रिश्ते में जाती है तो मैं भी उसे अपने फार्महाउस पर ले जाता और पूरे परिवार के सामने उस पर पेट्रोल डाल कर आग लगा देता.'

पिछले एक साल में सुप्रीम कोर्ट में निर्भया केस को आगे नहीं बढ़ाकर क्या हम अपने मानवीय विश्वास के 'रेप' की सहमति नहीं दे रहे हैं?

क्या सरकार हमें सच में अच्छे दिनों की ओर ले जाएगी? जब महिलाओं को रूढ़िवादी नजर से नहीं देखा जाएगा. हर दिन उसे डराया नहीं जाएगा. भीड़ वाली बसों में, मॉल में, मेट्रो में, स्कूल में, गांव में और बेडरूम के अंधेरे में उसका शोषण नहीं होगा. जब दुष्कर्म की पीड़िताओं को समाज में अलग-थलग नहीं रखा जाएगा और महिलाओं को संपत्ति की तरह देखने की सोच बदलेगी.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार साल-2011 में 24,206 रेप के मामले सामने आए. मतलब हर 20 मिनट में एक रेप हुआ. लेकिन पुलिस के आंकड़े के अनुसार शर्म और समाज के डर के कारण दस में से केवल चार दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए.

अदालतों की संख्या, जज, वकील भी पर्याप्त नहीं हैं. ऐसे मामलों में कई सालों तक सुनवाई चलती रहती है और पीड़ित पक्ष को लगातार परेशान होना पड़ता है. इसलिए आखिरी फैसला आने से पहले ही कई मामलों को पीड़ित पक्ष द्वारा वापस ले लिया जाता है. NCRB के अनुसार 2011 में रेप के केवल 26 फीसदी मामलों की सुनवाई हुई और फैसला आया. ऐसे ही अगस्त-2012 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार उस महीने दिल्ली के जिला अदालतों में 40 रेप के मामलों में आरोपी को दोष मुक्त किया गया. इसमें आधे से ज्यादा ऐसे मामले हैं जहां पुलिस ने अपनी जांच में तत्परता नहीं दिखाई या मामले की सही जांच नहीं हो सकी.

साल 2010 में 'ह्यूमन राइट वाच' की रिपोर्ट के अनुसार कई ऐसे मामले भी रहे हैं जहां पीड़िता को मेडिकल जांच के लिए एक सरकारी अस्पताल से दूसरे सरकारी अस्पताल तक का चक्कर काटना पड़ा और अप्रिय जांचों से गुजरना पड़ा. कई मामलों में तो पीड़िता को खून से सने उन्हीं कपड़ों में घंटों बैठना पड़ा. यहां तक कि जांच के कई घंटों बाद तक उन्हें कपड़े बदलने या नहाने की इजाजत नहीं दी गई. अस्पताल के गलियारों में कई की पहचान रेप पीड़िता के तौर पर ही की जाती है. उन्हें आधारभूत सुविधाएं आसानी से मयस्सर नहीं होती हैं. उनके लिए काउंसलिंग मुहैया कराने की भी बात नहीं की जाती है.

रेप की पुष्टि के लिए होने वाली फॉरेंसिक जांच भी एक समस्या हैं. खासकर, 'टू फिंगर टेस्ट' जिसके तहत डॉक्टर अपनी अंगुली पीड़िता के योनि में डाल कर देखता है कि उसके साथ दुष्कर्म हुआ है या नहीं. कई देशों में इस जांच पर बैन लगा दिया गया है. लेकिन भारत में 2011 में स्वास्थ्य सेवाओं के मुख्य निदेशक के आदेश के बावजूद यह जांच जारी है. WHO ने यौन उत्पीड़न का दंश झेलने वाली पीड़िताओं के इलाज और देखरेख के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किया है. लेकिन भारत में रेप के बाद पीड़िता का कई बार 'रेप' किया जाता है.

आखिर में...क्या न्याय में देरी न्याय नहीं देने के बराबर है?

क्या हम एक बार फिर निर्भया को इंसाफ दिलाने में नाकाम रहे हैं? निर्भया के निराश पिता के अनुसार, 'हमें न्यायिक व्यवस्था ने निराश किया है. हमारा केस अदालत में दो साल से भी ज्यादा समय से लंबित है. यह तीसरा साल है. पिछले एक साल में तो सुप्रीम कोर्ट में इस पर कोई सुनवाई ही नहीं हुई. हमें नहीं मालूम कि यह कब होगा. अगर इस केस को अदालत इतने हल्के में ले रही है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि अन्य मामलों में क्या होता होगा?'

क्या रेप के मामलों में पब्लिक का हो-हल्ला और उस पर गुस्सा जताना दुर्बलता है? या फिर टूजी स्कैम, कोयला घोटाला और नेताओं की जमानत याचिका के सामने ऐसे मामले महत्वपूर्ण नहीं हैं? क्या नरेंद्र मोदी के लिए महिलाओं का अपमान बड़ा विषय नहीं है? जिनका #SelfieWithDaughters कैंपेन सोशल मीडिया पर खूब प्रचारित हुआ.

या, क्या हम खुश हैं कि निर्भया अब नहीं रही?

#फांसी, #याकूब मेमन, #निर्भया केस, याकूब मेमन, फांसी, निर्भया केस

लेखक

श्रीमई पियू कुंडू श्रीमई पियू कुंडू @sreemoyee.kundu

लेखिका पूर्व लाइफ स्टाइल एडिटर और उपन्यासकार हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय