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Updated: 26 नवम्बर, 2016 06:54 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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मुंबई के एक क्रेच में 10 महीने की बच्ची के साथ जो बर्बरता दिखाई गई, वो बयान करने लायक नहीं है. बस यही कहा जा सकता है कि इस वीडियो को देखकर आपका खून खौल जाएगा. ये वीडियो इस समय वायरल है जिसमें एक आया क्रेच में बच्ची को निर्ममता से पीटती दिखाई दे रही है.

क्रेच में आया या केयरटेकर बच्चों का ख्याल रखते हैं. बच्चों के साथ खेलना, उन्हें खाना खिलाने से लेकर उन्हें सुलाने तक के काम इन्हीं की जिम्मेदारी होते हैं. पर अक्सर क्रेच में बच्चों के साथ इस तरह के मामले सामने आते हैं जिन्हें देखकर मन खराब होता है. गुस्सा और डर दोनों जेहन में घर कर जाते हैं. मन इसलिए खराब होता है कि मामला बच्चों से जुड़ा होता है जिनके प्रति हम सभी का दिल पसीजा रहता है, फिर किसी मासूम के साथ कोई इंसान इस तरह का अमानवीय व्यवहार करे तो गुस्सा आना भी वाजिब है और डर इसलिए कि हम भी कहीं न कहीं इन घटनाओं से अपने आप को और अपने बच्चों को जोड़ लेते हैं.

जब भी कभी इस तरह का वीडियो लोगों के सामने आता है तो इस तरह के सारे इमोशन्स हमेशा ही दिखाई देते हैं लेकिन इस मामले में कुछ खास हुआ जिसका जिक्र करना जरूरी है. सोशल मीडिया पर जब ये वीडियो देखा गया तो बहुत से लोगों ने इसपर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं. इनमें ज्यादातर महिलाएं थीं. दया, गुस्सा तो अपनी जगह था लेकिन एक महिला ने बहुत ही तीखे शब्दों में कहा कि 'क्या जिंदगी में पैसा इतना जरूरी है..अगर बच्चों को खयाल नहीं रख सकते तो उन्हें पैदा ही क्यों करते हो... शर्म आनी चाहिए ऐसे पेरेंट्स को जो दूसरों पर निर्भर रहते हैं.' एक महिला और एक मां होते हुए मुझे ये बात कहीं चुभ गई. और फिर मैंने ये जानना चाहा कि इन मोहतरमा की बात से कितने लोग सहमत हैं. इस कमेंट पर लाइक देखकर हैरानी हुई, करीब एक हजार लोगों ने इस महिला का समर्थन किया.

फिर एक महिला ने कहा कि 'शायद पुरानी परम्परा ही ठीक थी कि औरत घर और बच्चा सम्भाले आप अपना बच्चा किसी अंजान के पास छोडोगे तो खतरा तो है ही, उसे क्या मामता आपके बच्चे से'

फिर एक जनाब ने भी यही कहा कि 'पैसा कमाने के चक्कर में लोग अपने बच्चों को भूल जाते हैं. उन माओं को शर्म आनी चाहिए जो इस तरह की गलती करती हैं.'

एक नहीं कई महिलाएं अपना गुस्सा सिर्फ बच्ची के मां-बाप पर निकाल रहे थे, कि 'उन्हें शर्म आनी चाहिए', 'बच्चा पैदा क्यों किया', 'पैसों की परवाह है,बच्चे की नहीं', 'सारी गलती तो मां-बाप की है'. वगैरह..वगैरह. मतलब अगर ये कमेंट्स बच्ची के मां-बाप सुन लें तो शायद अपराध बोध की वजह से आत्महत्या कर लें.

इन सबका गुस्सा जायज़ है, और ये बात भी सत्य है कि बच्चो को एक मां से ज्यादा प्यार और ममता दूसरा कोई नहीं दे पाता. लेकिन इसके लिए एक मां को क्यों कोसा जा रहा है, ये बहुत हैरानी की बात है. कुछ लोगों ने मां को कसूरवार ठहराए जाने का विरोध भी किया.

 

कामकाजी महिलाएं जो अपने बच्चों को क्रेच और डे केयर में छोड़कर जाती हैं, उनकी मनोस्थिति ये समाज तो क्या खुद उनके घरवाले भी नहीं समझते. क्योंकि हमारे समाज ने महिलाओं के लिए उनके काम पहले से ही निर्धारित कर रखे हैं, इनमें से जो सबसे ऊपर हैं, वो हैं घर संभालना, बच्चे पैदा करना और पति के लिए हमेशा तैयार रहना. इतिहास गवाह है कि इन कामों के अलावा महिलाओं ने जब भी अपने दिल की की तो समाज ने उसके पर कुतरने की पूरी तैयारी भी की. पर समय बदला, महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं, घर संभालने के साथ-साथ घर चला भी रही हैं. लेकिन इन सबके बीच एक महिला ने अपने उन गुणों को जीवित रखा जो उसकी पहचान होते हैं- जैसे वात्सल्य, ममता, आदि. वो कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाए, लेकिन उसके बच्चे ही उसकी जिंदगी होते हैं और उसे ये किसी को साबित करने की जरूरत नहीं. 

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यहां आरोप लग रहे हैं कि लोग पैसे के लिए भागते हैं. पर ऐसे बहुत से कारण हो सकते हैं जिनकी वजह से एक महिला अपने बच्चे को छोड़कर नौकरी करने जाती है, या उसे जाना पड़ता है. मैंने ऐसी बहुत सी महिलाओं को देखा है जिनका नौकरी करना बहुत जरूरी है, बहुत सी सिंगल मदर्स हैं, (इनमें वो भी शामिल हैं जिनका पति से तलाक हो गया है और वो भी जिनके पति इस दुनिया में नहीं हैं) कोई आर्थिक रूप से कमजोर है, तो किसी को अपने बच्चे के ही इलाज और पढ़ाई के लिए पैसे जुटाने हैं. अगर ये पढ़ी लिखी हैं और नौकरी कर के अपना घर चला सकती हैं तो इन्हें क्या जरूरत है किसी पर बोझ बनने की. मां ही अपने बच्चे के बारे में सबसे अच्छा निर्णय ले सकती है और किसी भी ऐसी परिस्थिति में अगर मां और बच्चा किसी दूसरे पर निर्भर हो जाएं तो खुद अंदाजा लगाइए कि दूसरे आपके बच्चे के लिए कितना कर पाएंगे.

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तो ऐसा नहीं है कि लोगों को सिर्फ पैसों का लालच है. पैसा कमाना मजबूरी भी होता है. बल्कि बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को घर चलाने के लिए नौकरी करना ही पड़ता है. हां ये बात उन लोगों पर लागू नहीं होती जो संपन्न परिवारों से हैं. या फिर बच्चों के लिए खुशी खुशी नौकरी छोड़ देते हैं.

यहां बात डे केयर की है, इसलिए लोग मां को कसूरवार ठहरा रहे हैं, पर जब किसी बच्चे के साथ स्कूल में कोई हादसा होता है, तब क्या कहेंगे, क्या तब भी समाज मां को ही कोसता रहेगा. उस हिसाब से तो मां-बाप बच्चों को स्कूल भी न भेजें, घर में ही स्कूल खुलवा लें.

यहां आश्चर्य तब होता है जब एक महिला ही एक महिला को इस तरह की बातें सुनाती है. समय कितना भी आगे निकल जाए, समाज वहीं का वहीं हैं. समस्याओं का हल सुझाने के लिए कोई हाथ नहीं उठाता, और किसी को कसूरवार ठहराने के लिए हजारों उंगलियां उठती हैं. और शर्म आती है देखकर कि इनमें से ज्यादातर उंगलियां महिलाओं की ही हैं. महिलाओं की स्थिति के लिए पुरुष नहीं खुद महिलाएं ही जिम्मेदार हैं.

विदेशों से सीख लेने की जरूरत

नौकरी करने के साथ-साथ एक बच्चे को बड़ा करना चुनौती भरा काम है. भारत की बात करें तो ज्यादातर लोग ऐसी महिलाओं का सम्मान नहीं करते जो अपने बच्चों को क्रेच या डे केयर में छोड़कर नौकरी करने जाती हैं. नजारा आप ऊपर देख ही चुके हैं. लेकिन दूसरे विकसित देशों में खासकर उत्तरी यूरोप और पश्चिमी यूरोप में ये कोई समस्या नहीं है. 2014 में कामकाजी महिलाओं की दर 73.1% थी जो पुरुषों की दर 76.5% के काफी करीब थी. इनमें से 79.2% महिलाओं के बच्चों की उम्र 6 साल से कम थी. मतलब वहां हर कोई काम करता है ऐसे में महिलाएं काम के साथ साथ अपने बच्चों का भी ध्यान रख सकें इसके लिए सरकार ने इस मामले को सबसे ऊपर रखा और समझदारी के साथ इसका हल निकाला.

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बच्चे के जन्म के बाद पेरेंट्स को 8-8 महीने की पेड लीव दी जाती है. जिससे माता और पिता दोनों अपने बच्चों को समय दे सकें. कुल मिलाकर 16 महीने तक माता-पिता अपने बच्चों का ख्याल रख सकते हैं. बच्चे के पालन पोषण के लिए टैक्स में भी छूट दी जाती है. सब्सिडाइज्ड रेट्स पर बच्चों की अच्छी देखभाल की पूरी गारंटी दी जाती है. वहां चाइल्ड केयर सेंटर्स होते हैं जिसका समय सुबह 6.30 से शाम के 6.30 बजे तक होता है. 3 सा 6 साल के बच्चों के लिए प्री-स्कूल भी फ्री हैं. ये सुविधाएं हर किसी के लिए हैं. वहां के 3 साल के 55% बच्चे और 3 से 6 साल के 96% बच्चे चाइल्ड केयर में जाते हैं. सरकार की तरफ से बच्चे के लिए मेंटेनेंस भत्ता भी दिया जाता है. इसका नतीजा ये है कि आज बच्चों की देखभाल के मामले में दुनिया भर में यूरोप सबसे ऊपर है.

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पर इन सबका मतलब ये जरा भी नहीं कि यूरोप के माता-पिता अपने बच्चों से प्यार नहीं करते और वो पैसों के पीछे भागते हैं. हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि 'चाइल्ड केयर को सिर्फ साइड इश्यू या महिलाओं का मुद्दा न मानकर इसे राष्ट्रीय आर्थिक प्राथमिकता समझा जाए. विश्व युद्ध के दौरान जब घर के पुरुष सदस्य युद्ध में भेजे गए थे, तब अमेरिका में महिलाओं को बाहर जाकर काम करना पड़ा. तब देश ने बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी उठाई थी. आज की अर्थव्यवस्था में जब परिवारों की आर्थिक जरूरत के लिए माता-पिता दोनों का कामकाजी होना एक जरूरत है तो हमें वहन करने योग्य, उच्च गुणवत्ता वाले चाइल्ड केयर सेंटर्स की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है.' इसके बाद ओबामा ने अपने देश के लोगों के लिए बच्चों की देखभाल के लिए टैक्स में छूट दी.

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भारत भी अब विकास की ओर अग्रसर है, हम अब तक बाकी देशों से पिछड़े हुए थे, आज भारत बड़े देशों में गिना जाता है तो उसका श्रेय उन सभी लोगों को जाता है जो देश की अर्थव्यवस्था के साथ कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं. इस विकास में महिलाएं भी योगदान दे रही हैं. और जब महिलाएं और पुरुष बराबरी से काम कर रहे हैं तो ऐसे में सरकार को भी बच्चों की देखरेख के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है. आज बच्चों के माता-पिता मजबूरी और डर के साथ बच्चों को क्रेच में छोड़ते हैं, सरकार चाहे तो इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है. जिससे माता-पिता बिना अपराध बोध के खुशी-खुशी अपने काम पर जा सकें.

पर जब हमारा समाज ही उस महिला को अपराधी ठहराने पर तुला हुआ है और इसी में संतुष्ट है कि महिलाओं का तो काम ही घर संभालना और बच्चों की देखभाल करना है तो फिर ऐसे समाज के लिए सरकार भी कष्ट क्यों करे. जरा सोचिए...

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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