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Updated: 23 सितम्बर, 2015 08:08 PM
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सोशल मीडिया के इस दौर में हवा बनते देर नहीं लगती. फेसबुक पर शेयर और ट्विटर पर ट्रेंडिंग ऐसी हवाओं को रुख देते हैं. अभी फिलहाल बैन-बैन की हवा है, जिसमें मीट बैन लेटेस्ट है. इसकी हवा इतनी तेज है कि एक सीनियर पत्रकार के ओपन लेटर पर एक मुख्यमंत्री को जवाबी लेटर लिखना पड़ गया उसके बाद फिर से पत्रकार का पटलवार. इन सब के बीच एक सवाल मेरे मन में घूमता रहा - इस देश में भोजन ज्यादा जरूरी है या भोजन का स्वाद? बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुझे इसका जवाब अयोध्या से मिला.  

अयोध्या! वही अयोध्या जिसे लोग धर्म और राजनीति के चश्मे से ज्यादा देखते हैं. लेकिन सही मायने में इस अयोध्या की अपनी एक संस्कृति भी है - एकदम गंगा-जमुनी तहजीब वाली संस्कृति. मीट बैन पर हो रही राजनीति, उठते सवाल और बवाल के बीच यहां की उसी संस्कृति ने मुझे भोजन और भोजन के स्वाद के बीच का फर्क समझाया. मीट कब बैन हो और कब इसे बेझिझक बांटा जाए, अयोध्या में यह 'परंपरा' वर्षों से चली आ रही है - इसे लेकर न तो यहां के मुसलमानों को कोई दिक्कत है, न ही हिंदुओं को.

अयोध्या म्युनिसिपल बोर्ड के फैसले के अनुसार ईद के तीन दिनों को छोड़कर साल के 362 दिन यहां मीट के बेचने से लेकर सार्वजनिक तौर पर खाने तक की मनाही है. पूरे अयोध्या में एक भी मांसाहार रेस्ट्रॉन्ट नहीं है. और ऐसा नहीं है कि यह कानून है, इसलिए इसे जबरन माना जाता है. मुस्लिम शादियों तक में शाकाहारी भोजन ही परोसा जाता है. दूसरी ओर ईद के समय मीट बांटने को लेकर आज तक किसी भी साधु-संत या अखाड़ों ने बवाल नहीं किया है.

अयोध्या की गंगा-जमुनी तहजीब का इससे बेहतरीन उदाहरण और कुछ नहीं हो सकता कि 90 के दशक में राम मंदिर मूवमेंट और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी यहां कभी दंगे नहीं हुए. धार्मिक उन्माद के उस माहौल में भी कुर्बानी के समय न तो हिंदुओं की ओर से कोई विरोध हुआ न ही यहां के मुस्लिम समाज को इसके बाबत कभी कोई खौफ सताया.

जो लोग मीट बैन की राजनीति को हवा दे रहे हैं, उनका शायद अपना स्वार्थ हो सकता है. लेकिन जो उनकी बातों के झांसे में आकर मूर्ख बन रहे हैं, उनके लिए दो लोगों की बातें सामने रख रहा हूं, पढ़ें और दिमाग पर जोर दें :

हाफिज सैयद अखलाक (बाबरी मस्जिद के नजदीक मदरसा चलाने वाले) : हम यहां सदियों से रहते आए हैं. हमें कुर्बानी को लेकर किसी भी हिंदू संगठन से कभी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. बल्कि वो तो हमारा स्वागत करते हैं.

महंत गिरिश पति त्रिपाठी (तिवारी मंदिर के प्रधान पुजारी) : यह गंगा-जमुनी तहजीब की धरा है. बचपन से ही हमें दूसरे धर्मों को सम्मान देना सिखाया गया है. अगर हमारे मुस्लिम भाई अपने घरों में कुर्बानी देते हैं तो हमें इसमें कोई दिक्कत क्यों होनी चाहिए?

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लेखक

चंदन कुमार चंदन कुमार @chandank.journalist

लेखक iChowk.in में पत्रकार हैं.

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