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Updated: 28 सितम्बर, 2017 07:08 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
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बर्थडे– व्यक्ति चाहे कोई भी हो, कैसा भी हो, मगर ये उसकी जिंदगी में एक ऐसा दिन होता है, जिसका उसे बड़ी ही बेसब्री से इंतजार रहता है.

आज दो लोगों का बर्थ डे है. जो दो हस्तियां आज पैदा हुई हैं वो भी किसी से कम नहीं हैं. दोनों ही हस्तियों को हमारे देश के “जागरूक युवा” अपना आइडल या प्रेरणास्रोत मानते हैं. आज जहां एक तरफ सिने अभिनेता (रणबीर कपूर हां-हां वही जिन्होंने सांवरिया पिक्चर में कमर के नीचे तौलिया बांध कर अंगड़ाई लेते हुए और रॉक स्टार में गिटार बजाते हुए बर्फी बेची थी) का जन्म दिन है. तो वहीं दूसरी तरफ शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जी का भी बर्थ डे है. एक हमको याद है (रणबीर कपूर) एक को हम मानों भूल गए हैं (भगत सिंह). फैंस एक का नाम फेसबुक पर वायरल और ट्विटर पर ट्रेंड कराने में लगे हैं तो दूसरे का (भगत सिंह) का कोई पुर्साने हाल नहीं है. कोई इन्हें पूछने वाला नहीं है.

आज लोग  भगत सिंह को लगभग भूल ही चुके हैं. या ये भी हो सकता है कि, हममें से ऐसे बहुत से हों, जिन्हें भगत सिंह का नाम तो याद हो मगर धुंधला धुंधला सा. बात ये भी है कि अब हमारे पास कहां इतना वक्त की हम उनका जन्मदिन याद रख सकें.

इनका जन्मदिन भूलने की एक अहम वजह ये भी है कि इस दिन देश में कहीं भी कोई छुट्टी नहीं होती, किसी भी दफ्तर में इनको याद करते हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होते.

कहीं भी मिठाई नहीं बंटती. हमें तमाम ऊल-जलूल लोगों के बर्थ डे याद रहते हैं. हम उन्हें विश भी करते हैं, मगर एक देशभक्त और भारत माता के लाल का जन्मदिन किसे याद रहा. युवाओं का देश कहे जाने वाले हिन्दुस्तान में अगर ऐसा है, तो यह दुर्भाग्यवश एक क्रांतिकारी के बलिदान का तिरस्कार और उसका अपमान ही कहा जा सकता है.

आज देश में चंद ही ऐसे लोग हैं जो भगत सिंह के विषय में जानते हैं, खैर चलिए हम आपको बताते हैं की भगत सिंह कौन थे.

भगत सिंह इस देश की वो शख्सियत हैं, जिसने असीम साहस का परिचय देते हुए गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद कराया. वो शख्स, जिसने सेंट्रल असेम्बली में बम फेंककर अंग्रेजों को उनकी असल औकात याद दिलाई.

Bhagat Singhइन वीर शहीदों को भूलकर हम अपनी ही जड़ें काट रहे हैं

भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन का संक्षिप्त परिचय

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 में हुआ था. उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था. यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था. अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था. लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी.

काकोरी काण्ड में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित 4 क्रान्तिकारियों को फांसी व 16 अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक आहत हुए कि चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गयी. इसके बाद उसे एक नया नाम दिया गया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन. इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था.

क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में 8 अप्रैल 1921 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे. बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी.

कब चढ़े भगत सिंह फांसी के तख्ते पर

इस महान देश भक्त को 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु संग फांसी दे दी गई थी. गौरतलब है की जिस समय भगत सिंह को फांसी दी गयी उस समय इनकी आयु 24 साल थी.

इतना जानने के बाद सवाल ये है कि क्या हमारे अंदर छुपा देशभक्ति का जज़्बा दम तोड़ चुका है ? क्या हम सिर्फ सोशल मीडिया पर ही सारी देशभक्ति व्यक्त करना जानते हैं? क्या यही देश भक्ति है हमारी कि इण्डिया-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच में विरोधी पाकिस्तान टीम या किसी और टीम के बल्लेबाज, जब हमारे देश के गेंदबाजों की हर बॉल पर रन ले, छक्के और चौके मारे तो हम पाकिस्तान मुर्दाबाद या उस देश के मुर्दाबाद होने के नारे लगाए उन्हें कोसें?

अगर ये सच है तो मुझे नहीं लगता कि मैं इस चीज को देशभक्ति की लिस्ट में शामिल करूं. मेरे अनुसार ये हरकत 'टुच्चापन' या फिर अपने आपको बेवकूफ बनाने का माध्यम कहलाती है.

आज दौर डिजिटल है, रिश्ते वर्चुअल हैं. ऐसे में हम क्यों हर संभव कोशिश करते हैं फेसबुक और ट्विटर पर अपनेआप को देश भक्त साबित करने की. भारत देश का एक आम नागरिक होने के नाते, मैं केवल ये जानने का इच्छुक हूं की आखिर कहां मर गया है हमारे अन्दर का जज्बा? क्यों हम अपने अतीत को भूल रहे हैं? क्या इस महान क्रांतिकारी की कुर्बानी का कोई महत्व नहीं है? क्या इन्होंने व्यर्थ में ही अपनी जान दे दी?

प्रायः ये देखने को मिलता है कि लोग अपने बच्चों को किसी महान हस्ती से जोड़ते हैं. ईश्वर न करे कहीं वो दिन आ जाए जब हमारे बच्चे हमसे कहें की मां/पिताजी ये भगत सिंह, ये सुखदेव, ये चंद्रशेखर आज़ाद कौन हैं? तो ज़रा सोचिये क्या ये इन क्रांतिकारियों का अपमान नहीं होगा.

हमें हर संभव याद रखना चाहिए कि ये हस्तियां इस देश की असल स्टार हैं. हमारे लिए इन्हें याद रखना और करते रहना बेहद जरूरी है. मत भूलिए, अगर हम अपने इतिहास से दूर हो गए तो हम अपने अस्तित्व से दूर हो जाएंगे. मैं फिर से ये बात कहना चाहता हूं कि हम तभी विकसित हो सकते हैं जब हम अपने इतिहास को जाने और उसे याद रखें.

फैशन के दौर में फर्जी प्रोडक्ट का सहारा लेना अब हमें छोड़ना होगा. अपने इतिहास अपने भूगोल को जानना होगा. अंत में अपनी बात खत्म करते हुए मैं आपको भगत सिंह का वो शेर ज़रूर याद दिखाना चाहूंगा जो उन्होंने अपनी फांसी से कुछ समय पहले कहा था.

ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती है

दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाज़े उठाए जाते हैं …!!!

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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