New

होम -> समाज

 |  3-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 05 जून, 2016 01:38 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क में शुमार भारतीय रेलवे के देश भर में 7112 स्टेशन है. तो आप सोचेंगे कि इसमें हैरानी की बात क्या है? जी हां इतने बड़े रेल नेटवर्क के इतनी संख्या में स्टेशन हैरानी की बात नहीं है लेकिन अगर आपको पता चले कि इन स्टेशनों में से एक स्टेशन ऐसा भी है जिसका कोई नाम ही नहीं है तो आप हैरान जरूर होंगे. जी हां पश्चिम बंगाल के बर्धवान जिले में दो गांवों के बीच स्थित एकस्टेशन का कोई नाम नहीं है. आइए जानें भारतीय रेलवे के इस हैरान करने वाले स्टेशन की कहानी.

रेलवे के इस स्टेशन का नहीं है कोई नामः

2008 में भारतीय रेलवे ने पश्चिम बंगाल के बर्धवान जिले में बर्धवान टाउन से करीब 35 किलोमीटर दूर एक नया स्टेशन बनाया. लेकिन अस्तित्व में आने के बाद से ही इस स्टेशन को बिना नाम वाले स्टेशन के तौर पर जाना जाता है. यह रेलवे के 7612 स्टेशनों में से एकमात्र ऐसा स्टेशन है जिसका कोई नाम ही नहीं है. 

आखिर क्या है विवाद की वजहः

इस स्टेशन के बिना नाम का रह जाने की वजह दो गांवो 'रैना' और 'रैनागढ़' के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर जारी कानूनी लड़ाई है. इस स्टेशन के दोनों तरफ पीले रंग के खाली साइनबोर्ड इन दोनों गांवों के बीच जारी जंग का प्रमाण हैं. आठ साल पहले इसे रैनागढ़ स्टेशन के नाम से जाना जाता था. उस समय यह नैरो गेज रूट था, जिसे बांकुड़ा-दामोदर रेलवे रूट के नाम से जाना जाता था. लेकिन यह वर्तमान स्टेशन से 200 मीटर दूरी पर स्थित था.  

बाद में इस लाइन को ब्रॉड गेज में बदला गया और एक नए स्टेशन का निर्माण किया जोकि रैना गांव के अंतर्गत आता है. इस रूट को मासाग्राम स्थित हावड़ा-बर्धवान कॉर्ड से जोड़ दिया गया. लेकिन नए स्टेशन के नामकरण को लेकर तब विवाद खड़ा हो गया जब रैना गांव के लोगों ने इसका नाम रैनागढ़ रखने से इंकार कर दिया और कहा कि क्योंकि ये स्टेशन रैना गांव के अंतर्गत आता है इसलिए इसका नाम रैना गांव के नाम पर होना चाहिए.

इसके स्टेशन मास्टर नबाकुमार नंदी का कहना है कि स्टेशन के नामकरण का मामला कोर्ट में विचाराधीन है क्योंकि स्थानीय लोगों ने रेलवे के निर्णय को कोर्ट में चुनौती दी है.

station-650_060516013331.jpg
दो गांवों की लड़ाई के कारण पिछले आठ वर्षों से बिना नाम के ही है बर्धमान जिले का एक स्टेशन

यात्रियों को होती है परेशानीः

दो गांवों की इस लड़ाई से सबसे ज्यादा परेशानी आम यात्रियों और खासकर बाहर से आने वाले यात्रियों को उठानी पड़ती है. इस स्टेशन पर नियमित रुकने वाली एकमात्र ट्रेन बांकुड़ा-मासाग्राम है, जो दिन में छह बार यहां से गुजरती है. यहां आने वाले नए यात्री अक्सर इस स्टेशन के बारे में दुविधा में रहते हैं और उन्हें स्थानीय लोगों से पूछकर ही ये पता चल पाता है कि वे किस स्टेशन पर उतरे हैं.

गुजरात से आने वाले एक यात्री रवि ने कहा, 'यह बहुत अजीब है कि स्टेशन के दोनों तरफ कोई नाम नहीं लिखा है. जब हम यहां उतर गए तो स्थानीय लोगों ने बताया कि इस क्षेत्र का नाम रैना है.' 

स्टेशन मास्टर नबाकुमार नंदी अपने बेटे के साथ स्टेशन कॉम्पलेक्स के पास रहते हैं और उनके पास टिकट काउंटर का चार्ज है. रविवार के दिन जब यहां से कोई ट्रेन नहीं गुजरती है तो नंदी यहां बेचने के लिए बर्धवान टाउन जाकर नई टिकटें लाते हैं. नंदी का कहना है कि टिकट पर अभी भी इस स्टेशन के पुराने नाम रैनागढ़ का ही जिक्र होता है.

रैना गांव के लोगों का कहना है कि उनकी रेल मंत्री सुरेश प्रभु से एक ही विनती है कि वे जल्द से जल्द इस विवाद का कोई स्थायी समाधान ढूंढ़ें ताकि लोगों को यात्रियों को इस स्टेशन का नाम जानने में परेशानी न हो और गलत स्टेशन पर उतरने से बच जाएं.

कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है लेकिन इसी नाम की वजह से आठ साल से 200 मीटर का ये रेलवे स्टेशन यात्रियों को एक कदम आगे ले जाने की बजाय पीछे ही ले जा रहा है. 

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय