New

होम -> समाज

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 16 दिसम्बर, 2018 11:10 AM
मनीषा पांडेय
मनीषा पांडेय
  @manisha.pandey.564
  • Total Shares

कुछ साल पहले वह 16 दिसंबर की ही मनहूस रात थी. उस रात ने इस देश की असंख्य लड़कियों की जिंदगी बदलकर रख दी. एक जर्नलिस्ट होने के नाते वह तारीख मेरे लिए महज कुछ सवाल उठाने, कुछ खास मुद्दों पर बात करने का बहाना भर नहीं है. यह सचमुच वह तारीख है, जिसकी मामूली सी याद भर से मन कांप जाता है.

लेकिन ऐसी एक और तारीख है मेरी जिंदगी में, जिसकी स्मृति आज तक मुझे नींद में भी डराती है. उस तारीख और 16 दिसंबर की तारीख में क्या साम्य है भला. शायद कुछ नहीं, या शायद बहुत कुछ. कितनी बार मैं उस दोपहर को याद कर, उसके बारे में सोचकर अपने एकांत में रोई हूं. शायद उस दिन से पहले मुझे इस बात की कोई ठीक-ठीक समझ नहीं थी कि बलात्कार क्या होता है? और उससे भी बढ़कर ये कि मेरी दुनिया, मेरे आसपास के लोग बलात्कार नाम की उस चीज को कैसे देखते, कैसे रिएक्ट करते हैं.  

16 दिसंबर, निर्भया, बेंडिट क्वीनएक फिल्म जिसका दर्द जिंदगी भर याद रहेगा

जून, 1999 की वो दोपहर थी और शहर इलाहाबाद. यूनिवर्सिटी में उस दिन क्लास करने का मन नहीं थी. मैं और मेरी एक दोस्त क्लास बंक करके सिविल लाइंस के राजकरन पैलेस सिनेमा हॉल पहुंचे एक फिल्म देखने. 'बैंडिट क्वीन'. तब मैं सिर्फ साढ़े अठारह साल की थी. गेटकीपर ने हमें रोका. बोला, ‘आपके देखने लायक नहीं है.’ हम दोनों थोड़ा घबराए हुए भी थे. एक बार को लगा कि लौट चलें. लेकिन हम लौटे नहीं. हिम्मत जुटाई और कहा कि ‘नहीं हमें देखनी है फिल्म.’ ‘एक सीन बहुत खराब है मैडम.’‘ कोई बात नहीं.’ वो रहस्यपूर्ण बेशर्मी से मुस्कुराया. हालांकि उस उम्र तक वह रहस्यपूर्ण बेशर्मी हमारे लिए कोई नई चीज नहीं थी. हम इलाहाबाद में बड़े हो रहे थे और इस तरह के अश्लील इशारों से खूब वाकिफ थे.   

फिलहाल हमें भीतर जाने को मिल गया. भीतर का नजारा तो और भी वहशतजदा था. शहर के सारे लफंगे जमा हो गए लगते थे. पान चबाते, गुटका थूकते, जांघें खुजाते, पैंट की जिप पर हाथ मलते, एक आंख दबाते, हम दोनों को देखकर अपने साथ के लोगों को कोहनी मारते, इशारे करते हिंदुस्तान के इंकलाबी नौजवान किसी बेहद मसालेदार मनोरंजन के लालच में वहां इकट्ठे थे. भीतर जाकर हमें थोड़ा डर लगा था, पर तभी हमरी नजर एक प्रौढ़ कपल पर पड़ी. हमने थोड़ी राहत की सांस ली. भला हो उस फटीचर सिनेमा हॉल का कि जहां नंबर से बैठने का कोई नियम नहीं था. सो हमने कोने की एक सीट पकड़ी. हमारे बगल वाली सीट पर वो आंटी बैठीं और हम फिल्मे देखने लगे.

मैंने जिंदगी में बहुत सी तकलीफदेह फिल्में देखी हैं, पर वो मेरी याद में पहली ऐसी फिल्म थी, जिसका हर दृश्य हथौड़े की तरह दिलोदिमाग पर नक्श होता जा रहा था. वो दुख का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला जान पड़ती थी. जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती, लगता मैं सुलगते हुए अंगार निगल रही हूं. पूरी फिल्म में मैं रोती रही. रोते-रोते आंखें सूज आईं. आवाज गले में ही अटकी रही. मैं कांपती, बदहवास और संज्ञाशून्य सी उस फिल्म को देखती रही. फूलन देवी का दर्द अपनी ही धमनियों में दौड़ता सा लगा था.

हमसे आगे वाली रो में बैठे दो लड़के बीच-बीच में मुड़-मुड़कर हम दो लड़कियों को देख रहे थे और बेहयाई से मुस्कुरा रहे थे. बलात्कार और पानी भरने के लिए कुएं पर जाने वाले दृश्य में वो बार-बार पलट-पलटकर हमें देखते रहे. उन्होंने दसियों बार हमें गंदे इशारे किए. हम दोनों ने कसकर एक-दूसरे का हाथ पकड़ रखा था. एक-दूसरे की हथेली के पसीने से हमारे हाथ भीगे थे और हमारे गाल आंसुओं से गीले थे. हम सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई उस स्त्री के हर दुख पर रोए. हम तब भी रोए, जब उसने विरोध किया. तब भी जब उसने उन आतताइयों पर दनादन गोलियां बरसाईं. तब भी जब बचपन में उसके साथ रेप करने वाले पति को उसने बंदूक की बट से मार-मारकर लहूलुहान कर दिया. हम उसकी जीत पर भी रोए, उसके सुख में भी, उसके दुख में भी.

लेकिन सवाल ये नहीं था कि हम किस बात पर रो रहे थे. सवाल ये था कि ठीक उन क्षणों में जब हम मर जाने जैसी तकलीफ महसूस कर रहे थे, हमारे आसपास के लोग, सिनेमा हॉल में मौजूद सैकड़ों दर्शक क्या कर रहे थे? वो क्या महसूस कर रहे थे?

उस दिन हुआ ये था कि फिल्म के सबसे तकलीफदेह हिस्सों पर हॉल में दनादन सीटियां बजीं, गंदे जुमले उछले और मर्दों की बेशर्म सिसकारियों की आवाजें आती रहीं. मर्दों ने फिल्म के सबसे दर्दनाक दृश्यों पर ठहाके लगाए थे. हमारे ठीक सामने बैठे वो दोनों लड़के रो नहीं रहे थे. वो पलट-पलटकर हमें देख रहे थे और इशारे कर रहे थे.

16 दिसंबर से भी पहले वो मेरी तब तक की जिंदगी का सबसे दुखद क्षण था. मैं इतनी दर्द महसूस कर रही थी कि उसी क्षण मर जाना चाहती थी. मुझे लगा कि मैं खड़ी होकर जोर से चीखूं. सबकी हत्या कर दूं. फूलन देवी पर्दे से बाहर निकल आए और उन ठाकुरों के साथ-साथ हॉल में बैठे सब मर्दों को गोली से उड़ा दे. जून, 99 की वो दोपहर मेरे जेहन पर ऐसे टंक गई कि वक्त का कोई तूफान उसे मिटा नहीं सका. आज भी आंख बंद करती हूं तो वो दृश्य फिल्म की रील की तरह घूमने लगता है.

फिल्म खत्म होने के बाद जब हम बाहर निकले तो भी चारों ओर लोग ठहाके लगा रहे थे, आपस में भद्दे मजाक कर रहे थे. हमें देखकर आंख दबा रहे थे. उस दिन मैंने पहली बार ये ठीक-ठीक जाना था कि सामूहिक बलात्कार क्या होता है और जब ये होता है तो समाज को कैसा महसूस होता है.

16 दिसंबर, 2018 तक आते-आते दुनिया जून, 1999 से काफी बदल चुकी है. लेकिन फिर भी सोचती हूं कभी-कभी कि आखिर कितनी बदली है ये दुनिया.

ये भी पढ़ें- 

मैं भी किसी 'निर्भया' का ब्वॉयफ्रैंड हूं !

निर्भय बलात्कारी और निर्भया का बनना बदस्तूर जारी

#निर्भया कांड, #16 दिसंबर, #बेंडिट क्वीन, 16 दिसंबर, निर्भया कांड, बेंडिट क्वीन

लेखक

मनीषा पांडेय मनीषा पांडेय @manisha.pandey.564

ले‍खक इंडिया टुडे मैगजीन की फीचर एडिटर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय