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Updated: 01 नवम्बर, 2017 09:33 PM
कपिल शर्मा
कपिल शर्मा
  @kapil.sharma.18041
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आज के दौर में सोशल मीडिया एक क्रांतिकारी माध्यम के रुप में उभरा है. तकनीक ने इसको इतना ताकतवर बना दिया है कि ये सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित और प्रभावित करने के साथ रोजमर्रा के जीवन की घटनाओं पर भी गहरा नियंत्रण रख रहा है. आपकी विचारधारा को नियंत्रित करने के साथ आपके निर्णयों को प्रभावित करने में सोशल मीडिया की गहरी भूमिका है.

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी देशों जैसे यमन, सीरिया, ईराक, मिस्त्र, ट्यूनीशिया, लीबिया में राजनैतिक सत्ता पलट में सोशल मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों से लेकर भारत में लोकसभा, विधानसभा, नगर निकाय, पंचायत चुनावों तक में सोशल मीडिया से जमकर प्रचार किया जाता है. यही नहीं भारत में चीनी माल की खरीदारी का विरोध हो, किसी बिजनेस का प्रमोशन हो, किसी संगठन का जनसंपर्क कार्यक्रम हो, सोशल मीडिया ने हर कंटेट को अपना चैनल दिया है.

social mediaसोशल मीडिया ने निजी बातों को सड़क पर ला खड़ा किया

देखा जाए तो सोशल मीडिया एक अनियंत्रित बाढ़ सा चला आ रहा है. हालत ये है कि अगर कोई असामाजिक मैसेज या वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो जाये तो उसे रोक पाना प्रशासनिक तौर पर संभव नहीं है. ऐसे में आंतरिक सुरक्षा एंव कानून-व्यवस्था के लिए सोशल मीडिया एक गंभीर प्रशासनिक चुनौती के रुप में सामने आया है. पिछले कुछ सालों में राष्ट्र विरोधी तत्वों द्वारा देश की सामाजिक एकता को तोड़ने के लिए दूसरी जाति, धर्मों, वर्गों के खिलाफ फेसबुक, वॉटसएप एंव ट्विटर का प्रयोग कुप्रचार करने, हिंसा फैलाने में बेहिचक किया गया है. समय-समय पर विभिन्न जांच एंजेसियां भी इसकी पुष्टि करती हैं और विभिन्न राज्यों की पुलिस के सामने भी ऐसे मामले लगातार दर्ज हो रहे हैं.

हाल ही में सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा में भीम आर्मी एवं अन्य समूह द्वारा अपने प्रचार और जनसमर्थन हेतु सोशल मीडिया के प्रयोग की बात उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकार की है. यही नहीं पिछले दो सालों में देश के विभिन्न शहरों में हुए दंगों में उपद्रवियों द्वारा सोशल मीडिया का प्रयोग शांति भंग करने और लोगों को भड़काने में व्यापक रुप से किया गया है.

इस कुप्रचार से सबसे प्रभावित युवा पीढ़ी है जिसके तार्किक आधार को ऐतिहासिक, धार्मिक एंव सामाजिक रुप से परिपक्व एंव गंभीर होने से पहले ही उसे नृजातिय एंव जातिय हिंसा के लिए मांइडवॉश करके तैयार किया जा रहा है. अगर इस प्रक्रिया पर कोई कानूनी रोकथाम नहीं लगी तो सोशल मीडिया देश के बाल्कनीकरण, सरल शब्दों में कहे तो विभाजन के लिए अत्यंत घातक प्रचार मंच साबित होगा. गुप्तचर एंजेसियां भी इस बारे में खुलासा कर चुकी हैं कि आंतकवादी, नक्सलवादी एंव अलगाववादी संगठन बड़े स्तर पर युवाओं को खुद के साथ जोड़ने के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं.

सबसे बड़ी विडंबना ये है कि इस नृजातिय एवं जातिय हिंसा आधारित कुप्रचार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दिया जा रहा है. जबकि अगर इसका विश्लेषण किया जाये तो यह संविधान के अनुच्छेद 19(2) का सीधा अतिक्रमण है. अनुच्छेद 19(2) राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था एंव अपराधिक कृत्यों को प्रोत्साहन देने वाली अभिव्यक्ति पर रोक लगाने का प्रावधान करता है.

social mediaलोगों ने सोशल मीडिया को सच मान लिया

फेसबुक में वैचारिक घृणा फैलाने वाले लोगों ने हजारों ऐसे प्रोफाइल खोल रखे हैं जहां से वे नियमित तौर पर अन्य वर्गो के प्रति जहर फैलाते हैं. कुप्रचार करते हैं. धार्मिक, सामाजिक एंव नृजातिय हिंसा के लिए लोगों को तैयार करते हैं. विदित हो कि साल 2015 में सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाली आईटी एक्ट की धारा 66क को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था. लेकिन इसके बावजूद इस तरह के कृत्य सीधे तौर पर आईपीसी की धारा 153क, 153ख, 295क का विधिक उल्लघंन है.

बदलते हालातों में सोशल मीडिया वो मंच है जहां कुप्रचार के लिए भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है. कुप्रचार करने वाली प्रोफाइलों से हजारों लोग फॉलोवर के रुप में जुड़े रहते हैं और कुप्रचारित स्टेटस में कंमेट और लाइक के जरिये जातिवादी घृणा एवं हिंसा फैलाने वाली बहसों में हिस्सेदार बनते हैं. और एक वर्चुअल भीड़ का रुप ले लेते है. ये वर्चुअली सक्रिय सदस्य भौतिक रुप से भी इस घृणा को बढ़ाते हैं और सांप्रदायिक हमलों का आधार तैयार करते हैं. हाल ही में भीड़ द्वारा दूसरे धर्म के लोगों की हत्याएं इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं.

सोशल मीडिया एक नेशनल-इंटरनेशनल नेटवर्क पर काम करता है. ऐसे में एक समाधान ये सकता हो सकता है कि जब तक सरकार सोशल मीडिया के नियमन को लेकर कोई दीर्घकालीन नीति तय न करे, तब तक तात्कालिक रुप से सोशल मीडिया से संबंधित जन-शिकायतों के निष्पादन हेतु एक केन्द्रीय सोशल मीडिया सेल बनाया जाए. जो सोशल मीडिया में नृजातिय एंव जातिय हिंसा को बढ़ावा देने वाले पोस्टों पर राज्य सरकारों के पुलिस तंत्र के जरिये पर्यवेक्षण, अनुवीक्षण के साथ आवश्यकता पड़ने पर कानूनी कार्रवाई भी करे.

सोशल मीडिया में इस तरह के कुप्रचार को रोकने के लिए सोशल मीडिया वेबसाइट द्वारा कोई ठोस जन-शिकायत तंत्र नहीं बनाया गया है. यही कारण है कि हजारों-हजार की जनसंख्या में ऐसी प्रोफाइल रोज जन्म ले रही है.

social mediaमिस्र की ये क्रांति भी सोशल मीडिया की वजह से ही हुई थी

सोशल मीडिया में इस तरह के कुप्रचार को रोकने के लिए सोशल मीडिया वेबसाइटों को भी एक नियामक तंत्र के भीतर लाया जाये और ऐसे मामलों में उनकी कानूनी जिम्मेदारी को आवश्यक सीमा तक तय किया जाये. इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रभावी जन-शिकायत तंत्र बनाने के साथ उन्हें अपने कंटेट में ऐसे फिल्टर संधारित करने की व्यवस्था अपनाने को कहा जाये जो नृजातिय हिंसा, जातिय घृणा से संबंधित कंटेट को अपरिहार्य रुप से रोके.

सबसे बढ़िया रहेगा कि अगर किसी कंटेट पर बहुराष्ट्रीय सोशल मीडिया कंपनी को बारबार नृजातिय एंव जातिय घृणा को भड़काने वाली जन-शिकायत प्राप्त होती है तो इसकी सूचना कंटेट लिखने वाले को चेतावनी तंत्र के माध्यम से दी जाये और अंतिम तौर पर इसकी सूचना सरकारी सुरक्षा एजेंसी अथवा पुलिस को देना अनिवार्य किया जाये. हो सकता है कि डाटा शेयरिंग को लेकर सोशल मीडिया सर्विस प्रोवाइडर आपत्ति दर्ज करायें. ऐसे में विधिक प्रावधानों के तहत डाटा शेयरिंग के लिए आवश्यक प्रविधि का विकास सरकार द्वारा किया जाये.

ऐसे में घृणा फैलाने वालों के प्रोफाइलों के खिलाफ मिलने वाली बारबार जनशिकायतों से या तो उनके प्रोफाइल सर्विस प्रोवाइडर कपंनी द्वारा बंद कर दिये जायेंगे अथवा सरकारी एंजेसी की कार्रवाई में ऐसे लोग आ जायेंगे. अच्छा रहेगा की सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों को एकाउंट बनाने के और अधिक विश्वसनीय मानकों को अपनाने के लिए भी बाध्य किया जाये..

हाल ही में जर्मनी जैसे देश में सोशल मीडिया के नियमन हेतु एक कानून पारित किया गया है. ऐसे कानूनों में उल्लेखित प्रक्रियाओं का भी अध्ययन कर भारतीय आवश्यकताओं के हिसाब से सोशल मीडिया नियमन में प्रक्रियाओं का विकास किया जा सकता है.

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लेखक

कपिल शर्मा कपिल शर्मा @kapil.sharma.18041

लेखक बिहार राज्य निर्वाचन सेवा के सदस्य हैं

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