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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 12 मार्च, 2023 08:26 PM
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आजकल ओटीटी प्लेटफॉर्म्स धूम मचा रहे हैं। कभी सोचा है वे कैसे रेकमेंडेड मूवीज की केटेगरी में हमारी पसंदीदा फ़िल्में दिखा पाते हैं ? प्लेटफार्म इतने इक्विप्ड हैं कि उनके पास रिकॉर्ड है हमारी प्राइवेसी का चूंकि ज्योंही प्लेटफार्म पर गए हमारी तमाम एक्टिविटीज, सूक्ष्म से सूक्ष्म भी, रिकॉर्ड होने लगती है मानो हमने खुद को उनके हवाले कर दिया हो. बात सिर्फ ओटीटी की नहीं है, सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म्स मसलन फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर , इंस्टाग्राम, यूट्यूब की है. आज हम सोशल मीडिया एडिक्शन की बात करते हैं चूंकि कहीं ना कहीं 'वे ऑफ़ लिविंग' डेंजर ज़ोन में हैं क्योंकि क्या बड़े क्या बच्चे और क्या ही बुजुर्ग और क्या ही मेल या फीमेल जीने की कला ही भूलते चले जा रहे हैं. लोगों की जिंदगी में सोशल मीडिया का दखल इस कदर बढ़ गया है कि हरेक की हर एक्टिविटी पर ढेरों लोगों की नजर है और 'वे' हमें अपनी उंगली पर नचा रहे हैं और हमारा दिमाग भी अपने फायदे के लिए भटका रहे हैं.

Facebook, Twitter, Instagram, Drugs, Intoxication, Habit, User, India, Educationजैसी लत लग गयी है अब सोशल मीडिया पूर्णतः हम पर हावी हो गया है

तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म क्यों ईज़ाद हुए थे ? महान उद्देश्य था लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का, लोग सूचना ग्रहण करें, अपना मनोरंजन भी कर सकें. लेकिन हो क्या रहा है? तकनीक की लत, सोशल इंजीनियरिंग और सर्विलांस कैपिटलिज्म ने तक़रीबन पूरी दुनिया को इंटरनेट और सोशल मीडिया का गुलाम बना दिया है. यहां हर इंसान बस एक यूजर है और दुनिया में सिर्फ दो ही धंधे हैं जिनके प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने वाले 'यूजर' कहलाते हैं - एक सोशल मीडिया और दूसरा ड्रग्स का धंधा. ड्रग्स की लत लगती है और सोशल मीडिया की भी लत लगती है.

दरअसल सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपने आप में दोषी नहीं है. समस्या इसके टूल्स का शातिराना इस्तेमाल है. गाठ एक अमेरिकी चुनाव को प्रभावित करने के लिए कहा गया था कि रूस ने फेसबुक हैक कर लिया था. परंतु वह गलत था, रशियन शातिरों ने फेसबुक के टूल्स को एक्सप्लॉइट किया था. सोशल मीडिया को नियंत्रित करने वाली मशीनें चाहें तो किसी भी देश के नागरिकों को अपना मानसिक गुलाम बना सकती हैं. ऐसा सोचा नहीं गया था, लेकिन ऐसा हो गया है.

और यही तो हर क्षेत्र में हैं मसलन विशियस साइकिल ऑफ़ पावर्टी या फिर विशियस साइकिल ऑफ़ इकोनॉमी तो वैसे ही विशियस साइकिल ऑफ़ फेसबुक या ऑफ़ ट्विटर या ऑफ़ और कोई प्लेटफार्म ! मतलब हम अपने बारे में खुद ही बताते हैं, जिससे हमारे विचार, स्वभाव और भी कई चीज़ें सामने आती हैं. लेकिन ये कैसे हुआ या होता है ? ऐसा अल्गोरिथम से होता है, जो निर्देशों या कहें एक्शंस (actions) का एक क्रम होता है, जिन्हें प्रॉब्लम-सॉल्विंग टास्क में फॉलो करना होता है और हम अल्गोरिथम के दौर में जी रहे हैं.

कंप्यूटर प्रोग्राम और सोशल मीडिया ऐसे ही एल्गोरिथम पर चलते हैं. तो हमारी रोजाना की जिंदगी को प्रभावित करने वाले फैसले इंसान नहीं, बल्कि मैथमेटिकल मॉडल तय करते हैं. यदि वे निष्पक्ष हों और पक्षपाती ना हों तो अच्छी बात होती लेकिन जो मॉडल आज इस्तेमाल हो रहे हैं वो पारदर्शी नहीं है, रेग्युलेट नहीं किए जा रहे हैं, तब भी, जब वे गलत हैं. सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है कि इससे भेदभाव हो रहा है.

सिम्पली समझिये अगर कोई गरीब बच्चा लोन नहीं ले सकता, क्योंकि लेंडिंग मॉडल को लगता है कि वो खतरा है, तो वह उस शिक्षा से दूर हो जाता है जो उसे गरीबी से निकाल सकती थी. यही उस दावे को भ्रमित कर देता है जो कहता है कि डाटा ऑब्जेक्टिव है और नस्ल और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता. गजब खेल होता है जब फेसबुक या कोई और प्लेटफार्म अपने यूजर्स के डाटा डंप पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अप्लाई करता है जिससे कि वह पता लगा सके कि एडवरटाइजर के प्रोडक्ट को कौन से लोग खरीदना चाहेंगे.

और फिर खेल आगे बढ़ता है खुद को इस तरह तैयार करते रहने का ताकि ज्यादा से ज्यादा यूज़र्स ऑनलाइन ला सकें और ज्यादा से ज्यादा एंगेज कर सकें. फेसबुक २००६ में शुरू हुआ था तब पैसा कमाने के सोफिस्टिकेटेड टूल्स नहीं थे और अल्टेरियर मोटिव्स ( गलत उद्देश्य) भी नहीं थे. आज दुनिया का नंबर वन सोशल मीडिया प्लेटफार्म है और शायद सबसे कीमती भी. और आलम ये है कि अपने विज्ञापन थर्ड पार्टी एडवरटाइजर को बेचकर सैकड़ों करोड़ कमाती है.

पहले विज्ञापन चाहिए थे इसे और अब खुद ही एजेंसी बन बैठी है, विज्ञापन क्रिएट कर रही हैं चूँकि फ्री में देकर क्लाइंट बेस तैयार जो कर लिया है. जब ऑनलाइन कुछ फ्री होता है, तो आप कस्टमर नहीं हैं, एक प्रोडक्ट हैं. कुल मिलाकर एडवर्टाइजर्स फेसबुक के क्लाइंट हैं जो मार्क जकरबर्ग को फेसबुक और इंस्टाग्राम पर मौजूद करोड़ों लोगों के डेटा के लिए करोड़ों का भुगतान करे रहे हैं.

एक समय सही उद्देश्य के लिए क्रिएट किया गया सोशल मीडिया समय के साथ यूजर्स के लिए ही हर तरह से नुकसानदेह साबित हो रहा है, जहां पैसे कमाने की खातिर लोगों की सोच और पसंद का सौदा किया जाता है. सोशल मीडिया के जमाने में सामाजिक एकता और सौहार्द का सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है, जहां लोगों का एक-दूसरे पर से विश्वास खत्म हो गया है और हर कोई एक-दूसरे को संदेह की नजरों से देख रहा है.

टेक एरा में हम सोशल मीडिया कंपनियों के लिए कठपुतली से बढ़कर कुछ नहीं है, जहां लोग हमें अपनी उंगली पर नचा रहे हैं और हमसे वही करवा रहे हैं, जो वे चाहते हैं. नोटिफिकेशन के जाल में हमारी दुनिया इतनी उलझ गई है कि सोते-जागते हमेशा हम तरह-तरह के जाल से निकलने की असफल कोशिश करते रह जाते हैं.

दो वर्ष पहले नेटफ्लिक्स पर एक डॉक्यूमेंट्री आई थी 'द सोशल डिलेमा' जिसमें एक वाकया दिखाया गया था. एक फैमिली डिनर के लिए डायनिंग टेबल पर बैठी है और उस घर की हेड मिस्ट्रेस सबका फोन एक बॉक्स में रखकर उसे एक घंटे के लिए लॉक कर देती है. कुछ ही मिनट बीतते हैं कि फोन पर नोटिफिकेशन आने लगते हैं. फैमिली की सबसे छोटी सदस्य मां से फोन देने को कहती है और जब उसे नहीं मिलता है तो वह एक हथौड़े से बॉक्स तोड़ देती है और खाना छोड़कर अपने बेडरूम में चली जाती है.

उसका एक भाई भी सोशल मीडिया की लत में चूर है और वह भी अपना फोन लेकर अपने रूप में चला जाता है. यही तो आम है आज कहें तो घर घर यही कहानी है. क्या सोशल मीडिया के चक्कर में हम अपनी फैमिली से दूर नहीं हो गए हैं? एक डायनिंग टेबल पर बैठे हुए भी हम सब फोन में बिजी हैं और कोई एक-दूसरे से बात नहीं कर पा रहा है. इसी संदर्भ में फेमस गायिका आशा भोंसले का एक्सपीरियंस शेयर करने का मन होता है जब इस महान सिंगर ने कहा था कि अच्छी कंपनी लेकिन गुफ्तगू करने के लिए कोई नहीं।

और ऐसा ही नीतू सिंह जी ने मजाक में ही सही अपने स्वर्गीय पति ऋषि कपूर के लिए ट्वीट किया था कि ऋषि लंच डेट पर तो है लेकिन कहीं सोशल मीडिया पर बिजी है शादी के 38 साल बाद ऐसा ही होता हैं. क्या सोचा था किसी ने फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम या अन्य सोशल मीडिया साइट्स की वजह से आगे चलकर इनके इतने सारे साइड इफेक्ट्स दिख जाएंगे ? मानें या न मानें सोशल मीडिया के असर के चलते आत्महत्या के मामलों के ग्राफ में बढ़ोत्तरी हुई है.

फेसबुक का ‘लाइक’ बटन बनाने वाले की स्वीकारोक्ति है कि इसे तो ये सोचकर बनाया था कि लोगों के बीच में इससे सकारात्मकता फैलेगी, लेकिन किसे पता था कि अपनी किसी फोटो पर कम लाइक मिलने से लोग अवसाद में भी चले जाएंगे. और इसे यूट्यूब के डिसलाइक्स फीचर के संदर्भ में भी देखा जा सकता है. मान ही लीजिये दुनिया में कुछ भी विशाल या भव्य बिना अपने साथ कोई श्राप लिए जीवन में नहीं आता.

और, क्या खतरनाक खुलासा किया गया है डॉक्यूमेंट्री 'द सोशल डाइलेमा' में कि ये मशीनें अब अपने बनाने वालों के नियंत्रण में भी नहीं हैं. ये अपने आप एक नया संसार बना रही हैं और इस संसार का भविष्य बहुत डरावना है. अगर ये सब ऐसे ही चलता रहा तो क्या होगा? एक्सपर्ट्स बताते हैं कि ट्विटर पर फेक न्यूज असली न्यूज से छह गुना ज्यादा तेजी से फैलती है. वे ये भी बताते हैं कि अगर किसी देश की जनता को मानसिक तौर पर अपना गुलाम बनाना हो तो फेसबुक, व्हाट्सप्प , इंस्टा सबसे बेहतरीन टूल है.

याद कीजिए मोबाइल बेचने वालों ने लोगों को फोन बेचते समय उनका फेसबुक अकाउंट बनाकर देना शुरू किया था, बस वहीँ से हालात खराब होते चले गए. कोई अब किसी की सुनने को तैयार नहीं है, कोई किसी दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं है. यही सबसे बड़ा सामाजिक धर्मसंकट है, यही ‘द सोशल डिलेमा’ है। पता नहीं उस डॉक्यूमेंट्री को कितने लोगों ने देखा था ? परंतु मानव जाति का खूब कल्याण होगा यदि इसे जन जन तक उनकी अपनी भाषा में इसे पहुंचाया जाए, बताया जाए.

क्या हमें फेसबुक डिलीट कर देना चाहिए ? तो जवाब होगा नहीं और हमें सोशल मीडिया से पूछना चाहिए कि सच क्या है ? टेक जायंट कंपनियों को पता है या यूँ कहें समस्या को इस रूप में उन्होंने ही तैयार किया है और वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके सुलझा भी सकते हैं. लेकिन फिर वही बात बड़ी टेक्निकल कंपनियां प्रॉफिट पर निर्भर करती हैं और इसलिए यहां जिस तरह से चीजें चल रही हैं उन्हें बदलने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है.

कुल मिलाकर अंधी दौड़ है आगे निकलने की और यूजर्स ही रामनाम है - लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट, पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ! एक और बात, सीधी सी बात समझने की हैं क्या आज हम दुनिया में बर्थ पर, जन्म पर रोक लगा सकते हैं ? वैसे ही इंटरनेट की दुनिया में कब कौन प्लेटफार्म पैदा हो जाएगा कौन रोक सकता है ! हां , जैसे बर्थ कंट्रोल हो सकता है वैसे ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भी कंट्रोल किये जा सकते हैं.

कोई कह दे कि इंटरनेट बंद कर दो तो वो हत्या कहलाएगी लाइफ लाइन जो है! आज वर्ल्ड डिजिटल है. किसी वजह से इंटरनेट दो चार घंटे ही डाउन होता है तो एस्टिमेट्स हो जाते हैं कितने करोड़ों का नुकसान हो गया ? एक बार फिर, नाराज ना हो, इस बार अंतिम पैराग्राफ ही हैं , हमें स्वयं को ही रेग्युलेट करने की जरूरत है और कहा भी है किसी विद्वान जैनाचार्य ने निज पर शासन फिर अनुशासन!

अभी हम जब जागो तब सवेरा वाली स्टेज में हैं, कहीं बहुत देर ना हो जाय क्योंकि हर बात का वक़्त मुक़र्रर है हर काम की सात होती है, वक़्त गया तो बात गयी बस वक़्त की कीमत होती है. बेहतरी 'keeping calm in the digital world' में ही है. और सिर्फ देश की ही नहीं दुनिया के सभी देशों की सरकारों से अपील है आईटी के बजाय आईटी प्लानिंग एंड कंट्रोल विंग या मिनिस्ट्री या डिपार्टमेंट बनाएं. 

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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