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Updated: 27 अप्रिल, 2018 04:13 PM
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दिन बुधवार, देश भर के तमाम राष्ट्रीय चैनल आसाराम केस के फैसले को लेकर आतुर थे. ट्वीटर के टॉप पांच ट्रेंड में आसाराम अलग-अलग हैशटैग के साथ ट्रेंड कर रहे थे. दोपहर तक़रीबन दो बजे बाद ख़बर फ़्लैश होती है कि नाबालिग संग रेप के मामले में आसाराम पर फैसला आया है, उन्हें उम्रकैद की सजा हुई और बाकि तीन दोषियों को बीस-बीस साल की सजा हुई है. इसके बाद शुरू होती है सोशल मीडिया पर अलग-अलग विचारों की अलग-अलग ढंग से अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं. कांग्रेस के आधिकारिक ट्वीटर हैंडल से एक व्यंगात्मक वीडियो आसाराम और प्रधानमंत्री का डाला जाता है. आसाराम के साथ प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेताओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट होने लगती हैं.

फरहान अख्तर, नरेंद्र मोदी, ट्विटर, आसाराम   आसाराम पर फरहान अख्तर के ट्वीट के बाद सोशल मीडिया पर एक नई बहस का संचार हुआ है

फ़रहान अख़्तर का ट्वीट और आलोचनात्मक समझदारी का सवाल :

अभी मामला चल ही रहा होता है कि अभिनेता फ़रहान अख़्तर एक ट्वीट करते हैं. ट्वीट के अनुसार, 'आसाराम एक नाबालिग का बलात्कार करने वाला अपराधी है. और इस मामले में उसे दोषी करार पाया गया. अच्छा हुआ. लेकिन लोगों को अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आसाराम की तस्वीरों को शेयर करना बंद कर देना चाहिए. अपराधी साबित होने से पहले उसके साथ एक मंच शेयर करना कोई अपराध नहीं कहलाएगा. कृपया निष्पक्ष रहें और यह समझने की कोशिश करें कि हमारी तरह उन्हें भी पहले इस बारे में पता नहीं था.'

जाहिर है आम जनमानस के बीच फ़रहान अख़्तर के बारे में जो वैचारिक धारणा है वह इस ट्वीट से एकदम विपरीत है. ऐसे में इस ट्वीट को समर्थक और आलोचक अपने अपने तरीक़े से परिभाषित करेंगे लेकिन समर्थन और आलोचना से इतर यदि इस ट्वीट के अर्थ तलाशे तो यह ट्वीट लोकतांत्रिक व्यवस्था में आलोचनात्मक समझदारी को लेकर गंभीर सवालिया निशान खड़े करता है.

क्या लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात कहने की आज़ादी ज़िम्मेदारी विहीन होती है? क्या आलोचनात्मक रवैया मानवीय आचरण से परे होता है? क्या राजनैतिक हितों की लड़ाई में हर विषय का लाभानुकूल होना ही अनिवार्य है? क्या राजनैतिक स्वीकार्यता के लिए कोई स्थान नहीं बचा है? और क्या राजनैतिक प्रतिद्वंदिता व्यक्तिगत हो चली है? जाहिर है ये वो तमाम सवाल हैं जिसके जवाब हम सभी को हमारी ही व्यवस्था के भीतर तलाशने होंगे. लेकिन इसके साथ हम सभी को यह भी जानना होगा आखिर ये सब जाने-अनजाने कब और कैसे शुरू हुआ.

मोदी-आसाराम.वर्तमान परिदृश्य में पीएम मोदी के प्रति आलोचक कुछ ज्यादा ही व्यक्तिगत हो चुके हैं

2014 लोकसभा चुनावों के बाद भारतीय राजनीती में दक्षिणपंथ निर्णायक भूमिका में आने लगा. नरेंद्र मोदी की राजनीतिक हैसियत के चलते दक्षिणपंथ और राष्ट्रवादियों को भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा. साथ ही नरेंद्र मोदी की वैचारिक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी छवि और कई अन्य घटनाओं के चलते भारतीय राजनीती में प्रतिद्वंदिता केवल राजनैतिक न होकर वैचारिक भी हो गयी.

भारतीय बौद्धिक वर्ग स्पष्ट रूप से विभाजित हो गया. ऐसे में कई ऐसे विषय आए जिन पर सभी को सामूहिक एकमत होना चाहिए था लेकिन राष्ट्रीय हित से जुड़े कई विषयों पर वैचारिक असहमति का प्रभाव उदारवादी और वामपंथी धड़े की तरफ से देखने को मिला. ऐसे में राजनैतिक प्रतिद्वंदिता दिन-प्रतिदिन तीखी होने लगी और यही से आलोचना विषयों और मुद्दों से हटकर व्यक्तिगत हो गयी और जिसका जिक्र गाहे -बगाहे फ़रहान अख्तर के ट्वीट में दिखा.

किसी भी मजबूत लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बुनियाद ही आपसी स्वीकार्यता पर खड़ी है. आप भले ही किसी से इत्तेफाक मत रखिये लेकिन धारणा के आधार पर अगर किसी का मूल्यांकन होता रहेगा, उसके अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया जायेगा तो वह प्रतिक्रियावादी बनेगा जिसकी परिणिति केवल राजनैतिक न होकर व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता में होगी जिसका प्रभाव हर पक्ष पर पड़ेगा और यही से आलोचनात्मक समझदारी का कमतर होना शुरू होगा.

कंटेंट- गर्वित बंसल (इंटर्न, इंडिया टुडे)

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