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यूपी सीएम की नियुक्ति से जान लीजिए कि हिंदुत्व से कभी दूर नहीं हुए थे मोदी !
प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा धर्म और राजनीति को अलग रखने पर जोर दिया है. लेकिन यूपी जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ को बैठाना प्रधानमंत्री की 'कथनी' और 'करनी' के बीच के फर्क को साफ दिखाती है.
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कौन बनेगा यूपी का सीएम? शनिवार को इस सस्पेंस पर से पर्दा उठा तो ऐसा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के झाड़ू मार जीत से भी ज्यादा चौंका गया. भगवाधारी योगी आदित्यनाथ को नए मुख्यमंत्री के रूप में चुनकर पीएम मोदी ने विपक्ष तो क्या पार्टी के ही लोगों को भी हैरान कर दिया. अब ये साफ हो गया है कि चुनाव के दौरान पीएम का 'सबका साथी, सबका विकास' का नारा सिर्फ एक दिखावा था और भाजपा अब वापस अपने आक्रामक हिंदुत्व के एजेंडे पर वापस आ गई है.
आखिरकार योगी आदित्यनाथ की प्रोफाइल में सिर्फ एक चीज है. सांप्रदायिक और मुस्लिम विरोधी साधु से बने राजनीतिज्ञ का. आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी संगठन से अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया. महंत अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में आदित्यनाथ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण शहर गोरखपुर और उसके आसपास के एक सीमित क्षेत्र में अपना एक मजबूत जनाधार तैयार कर लिया है.
घर-घर योगीउनकी हिंदू युवा वाहिनी ने अपनी उपद्रवता से इलाके में इतना सिक्का जमा लिया था कि गोरखपुर और उसके आस-पास के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में इन्होंने चुनावों कई बार भाजपा के ही खिलाफ अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. हालांकि इन इलाकों में अपने कट्टरपंथी हिंदू की छवि को बनाए रखने और वोट बैंक को बरकरार रखने के बावजूद आदित्यनाथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के इन इलाकों से बाहर कहीं अपनी पहचान और पैठ बनाने में असफल रहे.
2007 और 2012 के बीच मायावती के शासनकाल के दौरान पहली बार आदित्यनाथ अपने मुस्लिम विरोधी भाषणों की वजह से मुसीबत में फंसे. इस दौरान योगी को आईपीसी के कई धाराओं के तहत आरोपी माना गया और बसपा प्रमुख ने उन्हें गिरफ्तार कराकर जेल तक भेज दिया.
लेकिन इतने के बाद भी योदी आदित्यनाथ ने अपने कट्टरपंथी हिन्दुत्व के मार्ग को नहीं बदला और अपनी ही तरह की राजनीति जारी रखी. पिछले कुछ दिनों से देश में फैले लव जिहाद और घर वापसी अभियान उनके ही दिमाग की उपज थे. 2015 के उप-चुनावों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य में भाजपा के अभियान का नेतृत्व आदित्यनाथ के ही हाथ में सौंपा था. इस समय इन्होंने अपने इन अभियानों को और आक्रामक रूप से जोर देने की मांग की थी. लेकिन तब ये मुद्दा भाजपा के लिए उल्टा पड़ गया था और बीजेपी को 11 में से आठ सीटों पर मुंह की खानी पड़ी थी.
रिमोट की सरकार तो नहीं है?इस महीने विधानसभा चुनावों में योगी ने ही कैराना से हिंदुओं के पलायन के मुद्दे को लेकर जमीन-आसमान एक कर दिया था. हालांकि भाजपा के ही स्थानीय विधायक हुकुम सिंह ने आदित्यनाथ के इन आरोपों को खारिज कर दिया था. लेकिन सफलता का कोई सानी नहीं होता. इसलिए भले ही पीएम मोदी ने 2014 में सांप्रदायिक कार्ड को छोड़ने का फैसला किया था लेकिन इस साल अपने चुनावी भाषण में 'कब्रिस्तान' का संदर्भ के साथ आदित्यनाथ ने विभाजनकारी राजनीति को स्पष्ट रूप से चलाया.
मुख्यमंत्री के रूप में उनका ऊपर उठना दर्शाता है कि जिन लोगों ने ये मान लिया था पंद्रह साल तक गुजरात में अपनी हिंदुवादी छवि को रखने के बाद पीएम मोदी का मन बदल गया था तो वो गलत थे. मोदी अभी भी अपने पुराने एजेंडे पर ही हैं और वो केवल मूल एजेंडे में लौटने के लिए एक उपयुक्त समय का इंतजार कर रहे हैं. 403 विधानसभा सीटों में 325 की जीत के साथ मोदी सुनामी और विपक्ष का सुपड़ा साफ करने के साथ भाजपा जीत के रथ पर सवार हैय निश्चित रूप से यूपी में इस शानदार और ऐतिहासिक जीत से सही समय मोदी के लिए हो भी नहीं सकता था.
यूपी के खेवनहारजाहिर है एक ओर जहां भाजपा समर्थकों का एक छोटा सा हिस्सा आदित्यनाथ का अनुयायी रहा है. लेकिन पार्टी कर्मियों का बड़ा हिस्सा योगी की पदोन्नति से हैरान है और इसे पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं मानता है. प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा धर्म और राजनीति को अलग रखने पर जोर दिया है. लेकिन यूपी जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ को बिठाना प्रधानमंत्री की 'कथनी' और 'करनी' के बीच के फर्क को साफ दिखाती है.
अपने दो सहयोगियों राज्य के बीजेपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य और लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा के साथ आदित्यनाथ कैसे पेश आते हैं और वे मोदी के 'अच्छे और भ्रष्टाचार मुक्त' शासन प्रदान करने के वादे को पूरा करने में कितना सक्षम हैं समय ही बताएगा. योगी आदित्यनाथ के पास विकास का कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है. और अगर मोदी और अमित शाह रिमोट कंट्रोल के जरिए यूपी को चलाने की कोशिश कर रहे है तो फिर वे अखिलेश यादव की सरकार से अलग कैसे हो गए? मालूम ही होगा कि मजाक में अखिलेश की सरकार को साढ़े पांच मुख्यमंत्रियों वाली सरकार के रूप में पुकारा जाता था.
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