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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 28 दिसम्बर, 2019 05:53 PM
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मोदी-शाह (Narendra Modi and Amit Shah) की जोड़ी ने बीजेपी को जिन ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है, अटल-आडवाणी वाली पार्टी काफी पीछे छूटी हुई लगती है. सदस्यता के मामले में तो अमित शाह ने बीजेपी को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी पहले ही बना दिया था, पांच साल की सरकार के बाद 2019 (Year 2019) में बीजेपी की सत्ता में दोबारा वापसी के साथ ही धारा 370 और नागरिकता कानून को संसद से पास कराना जग जीतने जैसा ही रहा - सरकार बनाने के तत्काल बाद चुनावी वादे पूरे करना बड़ी बात होती है.

आर्थिक मोर्चे पर भी देखें तो बीजेपी की केंद्र की सत्ता में शानदार वापसी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के लिए पहली तिमाही तो अच्छी रही - लेकिन साल की आखिरी तिमाही में राजनीतिक मोर्चे (CAA-NRC Protests) पर भी मोदी-शाह दोनों बड़े परेशान से लग रहे हैं.

एजेंडा पॉलिटिक्स राह भटकने क्यों लगी?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मार्गदर्शन में चलते हुए बीजेपी अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के रास्ते ही केंद्र की सत्ता तक पहुंची थी, लेकिन फिर से वो मुकाम हासिल करने के लिए 10 साल तक इंतजार करना पड़ा था. बहरहाल, 2014 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता पर काबिज होने का मौका मिल ही गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुर्सी संभाल ली. पांच साल सरकार चलाने के बाद कुछ वाकये ऐसे हुए कि संघ और बीजेपी नेतृत्व को लगा कि मंदिर मुद्दा से आगे बढ़ने की जरूरत है - और नये रास्ते पर चल कर भी कामयाबी हासिल हुई.

2019 की पहली तिमाही में हुए पुलवामा हमले के बदले बालाकोट एयर स्ट्राइक से PM मोदी की लोकप्रियता और राजनीतिक कद इतना ऊपर उठ चुका था कि बीजेपी को मंदिर मुद्दे की जरूरत रही नहीं. 1 जनवरी, 2019 को ही एक इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने बोल दिया था कि वो अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे - ये बात उन सारी मांगों पर बड़ा बयान था जिसमें मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग हो रही थी.

बिखरे विपक्ष के आगे खुले पड़े मैदान में बीजेपी नेतृत्व ने आम चुनाव में राष्ट्रवाद के पक्ष में माहौल बनाया और तीन तलाक, धारा 370 और नागरिकता संशोधन बिल लाने की बात कही - लोगों को ये बातें खूब भायीं और 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटों के साथ बीजेपी को फिर से सत्ता की चाबी सौंप दी.

फिर क्या था. दोबारा सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद अमित शाह को कैबिनेट साथी भी बना लिया और शुरू हो गयी चुनावी वादे पूरे करने की तैयारी.

narendra modi, amit shahजाते जाते सालने क्यों लगा 2019?

लोक सभा तो हाथ में ही थी, राज्य सभा के समीकरण मोदी-शाह के लिए सत्ता में दोबारा आने के बाद भी मुसीबत बने हुए थे. लिहाजा पहले हाथ तीन तलाक पर साफ किया, कामयाबी ने हौसलाअफजाई की और 5 अगस्त की तारीख को देश के राजनीतिक इतिहास में मोटे अक्षरों में दर्ज कराने का भी श्रेय ले बैठे. धारा 370 को खत्म कर जम्मू कश्मीर को दो हिस्सों में बांटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का आत्मविश्वास करीब करीब सातवें आसमान पर ही पहुंच चुका था. देश के भीतर मोर्चा शाह ने संभाला और बाहर मोदी ने. मोदी ने मोर्चा ही नहीं संभाला, बल्कि ह्यूस्टन के 'हाउडी मोदी' में ऐसा भाषण दिया कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप भी देर तक ताली पीटते रहे - और अपनी बारी आई तो लगा जैसे मोदी-मोदी अलावा कहने को कोई शब्द उनके पास बचे नहीं थे.

भाग्य भी वीरों का ही साथ देता है, वो फील्ड राजनीति ही क्यों न हो. सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या केस में राम मंदिर निर्माण के ही पक्ष में फैसला दे दिया. अयोध्या पर फैसला आने के तत्काल बाद जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह झारखंड पहुंचे तो मंदिर निर्माण का क्रेडिट लेने की जोरदार कोशिश भी की, लेकिन लगता है दांव उलटा पड़ गया.

चुनावी हार ने तो जैसे कहीं का नहीं छोड़ा

आम चुनाव में तो मोदी-शाह ने बड़ी ही बेहतरीन बाजी मार ली, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनावों की जीत नहीं दोहरा पाये. पहला झटका हरियाणा में लगा. हरियाणा में तो जैसे तैसे गठबंधन का जुगाड़ करके मनोहरलाल खट्टर की कुर्सी पर बिठा दिया, लेकिन महाराष्ट्र में 'कर्नाटक' दोहराने के बावजूद न गठबंधन बच पाया ने बीजेपी की सरकार बन पायी. देवेंद्र फणडवीस ने भी बीएस येदियुरप्पा की तरह ही ऊपर से नीचे तक फजीहत करा डाली. बवाल तो थमा अब भी नहीं है, फडणवीस से नाराज विधायक बीजेपी के खिलाफ ही ऑपरेशन कमल खिलाने में जुटे हुए हैं.

एक तरफ झारखंड चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी और दूसरी तरफ असम और नॉर्थ ईस्ट में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और NRC को लेकर विरोध हिंसक शक्ल लेने लगा था, फिर भी झारखंड की चुनावी रैली में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की. CAA-NRC पर विरोध के पीछे हाथ होने का भी और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में बार बार रुकावट डालने को लेकर भी. लगता है लोगों को ये बातें अब हजम नहीं हो पा रही थीं. तब तक बीजेपी नेतृत्व को स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों की अहमियत समझ नहीं आ रही थी, ऐसा लगता है.

हालत कुछ ऐसे बिगड़ने लगी कि झारखंड की चुनावी रैली में भी प्रधानमंत्री मोदी को असम के लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करनी पड़ी. ये तब की बात जब विरोध की आंच दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में नहीं पहुंची थी. CAA-NRC पर बेकाबू होता विरोध और झारखंड चुनाव साथ साथ चलते रहे. बीजेपी नेतृत्व ने झारखंड के लोगों को अलग अलग तरीके से समझाने की पूरी कोशिश की झारखंड में विकास सिर्फ डबल इंजिन वाली सरकार ही कर सकती है - डबल इंजिन मतलब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और राज्य में रघुवर दास सरकार.

लोगों के मन में क्या चल रहा था, बीजेपी का पूरा अमला पढ़ने में पूरी तरह चूक गया. नतीजे आने पर मालूम हुआ की सरकार तो हाथ से गयी ही, परंपरा का निर्वाह करते हुए बीजेपी का मुख्यमंत्री भी चुनाव हार गया - ध्यान देने वाली बात ये रही कि रघुवर दास किसी और से नहीं बल्कि अपने ही कैबिनेट सहयोगी रहे सरयू राय से हार गये. जब रघुवर दास के कहने पर बीजेपी आलाकमान ने सरयू राय का टिकट काट दिया तो वो निर्दल चुनाव लड़े और मोदी-शाह के सारी ताकत झोंक देने के बावजूद चुनाव हार गये.

गुजरते वक्त के साथ विरोध प्रदर्शन देश भर में जानलेवा हिंसा और उपद्रव का रूप लेता गया - और झारखंड के बाद दिल्ली चुनाव भी नजदीक आ गया. 22 दिसंबर को नरेंद्र मोदी फिर से मोर्चे पर लौटे. लौटे इसलिए कहना पड़ रहा है कि धारा 370 खत्म किये जाने के बाद से फ्रंट पर लगातार अमित शाह ही नजर आ रहे थे. चाहे वो संसद में विपक्ष से सरकार की तरफ से दो-दो हाथ करने की बात हो, चाहे सड़क पर सबको जवाब देने की. अमित शाह तो डंके की चोट पर कहते फिर रहे थे कि विपक्ष विरोध को जितनी भी हवा दे - CAA और NRC पूरे देश में लागू होकर ही रहेंगे.

मगर, प्रधानमंत्री मोदी की रामलीला मैदान की रैली के दौरान उनकी बातें सुन कर हर किसी को हैरानी हुई - वो तो बार बार यही पूछ रहे थे कि कौन कह रहा है कि ऐसा हो रहा है - कौन कह रहा है कि वैसा हो रहा है?

देश भर में बहस और विरोध के सबसे ज्वलंत और ज्वलनशील मसले पर प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के टोन में न तो पहले जैसी कशिश रही और न ही वो पुराना तेवर. ऐसा लगा जैसे सरकार ये मुद्दे होल्ड करने का मन बना चुकी हो. मुमकिन है ऐसा झारखंड के नतीजे और सामने से आ रहे दिल्ली चुनाव 2020 के चलते हुआ हो?

5 ट्रिलियन का सपना और GDP

मोदी सरकार 2.0 में जब फुल बजट आया तो अर्थव्यवस्था को लेकर एक बड़ा सपना दिखाया गया - 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था को लेकर! निर्मला सीतारमण के बजट भाषण से जो बात समझ नहीं आयी उसे समझाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस पहुंचे - और छोटी छोटी बारीकियों का जिक्र करते हुए समझाया कि इतना बड़ा लक्ष्य हासिल करना मुमकिन कैसे होगा - आशा, आकांक्षा और विश्वास से.

जैसे ही जीडीपी का आंकड़ों में लगातार दो बार गिरावट दर्ज हुई, विश्वास डगमगाने लगा. वित्त वर्ष की भले ही वो दूसरी तिमाही थी लेकिन नयी सरकार के लिए तो पहली ही रही और लगातार दो बार की गिरावट के बाद जीडीपी का 4.5 फीसदी पहुंच जाना चिंता वाली बात लगने लगी. मोदी सरकार ऐसी बातों से घबरायी नहीं, बल्कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद के जोश की आगोश में सरकार के साथ खड़े समर्थकों के बीच गृह मंत्री अमित शाह ने पूरे देश में NRC लागू करने की घोषणा की और नागरिकता संशोधन बिल पास कराकर कानून भी बनाने में सफल रहे.

नागरिकता कानून बन तो गया लेकिन तीन तलाक और धारा 370 की तरह उसे सपोर्ट नहीं मिला. पहले शिक्षा परिसरों में छात्र और उसके बाद सड़क पर नागरिकता कानून और NRC के विरोध करने वाले आ डटे.

नफे-नुकसान को थोड़ी देर के लिए ताक पर रख कर देखें तो CAA-NRC की बातें भी लगता है मोदी-शाह को नोटबंदी जैसी फील देने लगी हैं - लेकिन ये फील गुड जैसा तो कतई नहीं लगता. टीवी पर भाषण देते वक्त भी गूगल पर तैरती तस्वीरों को देख कर तो उस गजल के शब्द कानों में स्वतःस्फूर्त गूंजने लगे हैं जिसके बोल हैं - 'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या गम है जिसको छुपा रहे हो?'

आर्थिक विकास दर के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले बताते हैं कि 5 ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य अभी नौ साल दूर है, लेकिन अगर जीडीपी 4.5 फीसदी से भी नीचे लुढ़क गया तो मान कर चलिये कि 14 साल लग जाएंगे - और जिस एजेंडे के सहारे बीजेपी राजनीति करती आयी है, 14 साल को राम के वनवास से ही जोड़ कर देखा जाता है.

बाकी 5 ट्रिलियन में कितने जीरो लगते हैं, कांग्रेस प्रवक्ता प्रोफेसर गौरव वल्लभ के सवाल पर बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा का वायरल वीडियो तो आपने देखा ही होगा. किसी मुश्किल बात को समझाना कितना आसान - और किसी आसान बात को समझाना कितना मुश्किल होता है, बताने की जरूरत नहीं है. ये बात अलग है कि झारखंड चुनाव में जमशेदपुर से रघुवर दास के साथ साथ गौरव वल्लभ भी हार गये क्योंकि लोगों को बीजेपी के बागी सरयू राय पसंद आ गये.

कैसा होगा न्यू इंडिया 2020

ध्यान से देखें तो ऐसा लगता है जैसे मोदी-शाह के हर फैसले में लोग साथ हुआ करते थे, अचानक इरादा बदलने लगे हैं. साल की शुरुआत से ही जरा गौर कीजिये. बालाकोट एयर स्ट्राइक पर विरोध में जो भी दो-शब्द बोले गये, वे आम लोगों की जबान से नहीं निकले थे, बल्कि बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों की तरफ से रहे. तब बड़ी आसानी ने मोदी-शाह ने समझा दिया कि ये विपक्षी लोग पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं - लेकिन साल जाते जाते लोगों ने सारी बातें आंख मूंद कर मानना भी छोड़ दिया. आखिर ऐसा क्यों?

वजह जो भी रही हो CAA-NRC के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये. ये कौन लोग रहे ये बहस का अलग मुद्दा हो सकता है, लेकिन ये वही लोग हैं जो अब तक किसी भी मुद्दे पर खामोश भले रह जायें लेकिन मोदी-शाह के विरोध में सड़क पर तो नहीं ही देखने को मिले थे.

अयोध्या पर आये फैसले से पहले तक, सुप्रीम कोर्ट तक को पक्के तौर पर यकीन नहीं रहा कि कहीं कोई विरोध नहीं होगा. तभी तो तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने यूपी के चीफ सेक्रेट्री को तलब कर हालात का जायजा लिया. उसके बाद ही फैसला सुनाया गया. बाद में तो सभी हैरान रह गये होंगे कि विरोध जैसी कोई बात हुई ही नहीं - लेकिन अभी देखिये. कैंपस में क्या हो रहा है? शहरों में क्या हो रहा है? दिसंबर से पहले सरकार को सिर्फ जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट बंद करने की जरूरत पड़ी थी. दिसंबर में दिल्ली सहित देश के कई शहरों में ऐसा करना पड़ा है.

अगर सब कुछ ठीक ठीक चल रहा था तो चूक कहां हुई - ये भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है. किसी और को नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को ही.

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम 'इंडिया-2020' के तहत जिस भारत का सपना देखे थे उससे आगे की बात भले न हो लेकिन उनका सपना न टूट सके ऐसी कोशिश तो करनी ही होगी. बात जब सपनों की आती है तो पाश याद आ ही जाते हैं - 'सबसे खतरनाक होता सपनों का मर जाना'. दुआ कीजिए 2020 का नया इंडिया कलाम के सपनों का भारत ही हो!

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