New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 22 दिसम्बर, 2019 05:06 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

अमित शाह के राजनीतिक जीवन में 2019 मील का सबसे बड़ा पत्थर बना है. तीन तलाक, धारा 370 और अब नागरिकता संशोधन कानून के हकीकत बनने में अमित शाह ने जो भूमिका निभायी है उसके बाद वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के एजेंडे के ब्रांड एंबेसडर के तौर पर उभर आये हैं.

संघ और बीजेपी के राजनीतिक आकाश में अमित शाह आज चमकते सितारे बन चुके हैं, लेकिन राजनीति के सबसे बुरे दिन भी अमित शाह ने देखा और झेला भी है. शाह ने सलाखों के पीछे भी वक्त गुजारा है और जेल से छूटने के बाद भी उनको घर जाने की इजाजत नहीं मिली क्योंकि गुजरात में एंट्री पर ही बैन लगा दिया गया था - और जल्द ही वो सारे मामलों से बरी भी हो गये. अमित शाह को जो भी काम मिला शिद्दत से करते गये और हालात के फर्श पर पहुंचा देने के बाद बड़े ही कम वक्त में अर्श पर भी पहुंच गये.

अब तो ये समझने की जरूरत है कि आडवाणी की तुलना में अमित शाह की उपलब्धियों का आकलन कैसे किया जाये?

सिर्फ उत्तराधिकारी या आडवाणी से आगे?

2019 के लोक सभा चुनाव में अमित शाह ने जब लालकृष्ण आडवाणी की गांधीनगर सीट से नामांकन दाखिल किया तभी कयास लगाये जाने लगे कि वो आडवाणी के उत्तराधिकारी बनाये जा रहे हैं - लेकिन साल भर कौन कहे छह महीने के भीतर ही लगता है अमित शाह काफी तेजी से आगे बढ़ चुके हैं. 2014 तो भारतीय जनता पार्टी के सफर में बड़ा मुकाम रहा, लेकिन उसकी नींव करीब डेढ़ साल पहले रखी गयी थी और उसी दौरान अमित शाह को बीजेपी का राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया. तब राजनाथ सिंह बीजेपी के अध्यक्ष थे और अमित शाह उन्हीं के गृह प्रदेश का प्रभारी बनाया गया.

जब अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया गया तो हर कोई बड़े हल्के में ले रहा था? अगर किसी को शक शुबहा नहीं था तो वो सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ही थे. देर जरा भी नहीं लगी, अमित शाह ने जाते ही तेवर दिखा दिये.

यूपी बीजेपी के घुटे हुए नेताओं ने अमित शाह की मुलाकात हुई तो सभी ने अपनी तरफ से सलाह दी - कइयों ने ये बता डाला कि कौन कौन सी लोक सभा सीटें जीती जा सकती हैं?

फिर क्या था अमित शाह अपने रंग में आ गये. अमित शाह ने एक ही झटके में सबकी आंखें खोल दी. अमित शाह ने बताया कि उनकी दिलचस्पी बूथ जीतने में है, न कि कोई लोक सभा सीट. अमित शाह ने ये भी साफ कर दिया कि उनके साथ वही काम कर सकता है जो बूथ जीतने में सक्षम हो, लोक सभा सीट जिताने वाले नहीं.

दरअसल, अमित शाह शुरू से ही बूथ मैनेजमेंट से चुनाव जीतने के माहिर रहे हैं - और यूपी में भी उन्होंने वही कारगर नुस्खा आजमाया. नतीजे सबके सामने थे - फिर तो अमित शाह को पीछे मुड़ कर देखने की कोई जरूरत नहीं रही. खुद ही अपना टारगेट तय करते. टारगेट को आगे बढ़ाते और उसे पूरा करते - ये सिलसिला जारी है.

advani, shah, modiशाह ने आडवाणी का उत्तराधिकार संभाला ही नहीं, उसे काफी आगे बढ़ा दिया है!

केंद्र में बीजेपी की पांच साल सरकार चलाने के बाद संघ और सारे हिंदूवादी संगठनों ने मिल कर तय किया कि 2019 का चुनाव मंदिर के मुद्दे पर नहीं लड़ा जाएगा. ये वही मंदिर मुद्दा रहा जिसकी वजह से लालकृष्ण आडवाणी हिंदू हितों के सबसे बड़े रखवाले बने और जब अटल बिहार वाजपेयी की सरकार बनी तो आडवाणी लौह पुरुष कहलाने लगे. तब तक जब तक कि वो जिन्ना की समाधि तक नहीं पहुंचे और सेक्युलर पॉलिटिक्स का स्वाद नहीं चखा था. लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा भले ही अयोध्या नहीं पहुंच सकी, लेकिन राष्ट्रीय फलक पर उनका कद काफी ऊंचा हो गया. अमित शाह संसद तो आडवाणी की सीट से ही पहुंचे, लेकिन पुलवामा हमला और उसके बदले में बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद अमित शाह ने ब्रांड मोदी के साथ उतरने का फैसला किया और फिर से कामयाबी उनके कदम चूमने लगी.

झारखंड विधानसभा चुनाव में पाकुड़ की रैली में अमित शाह ने तो राम मंदिर निर्माण का ठीक वक्त भी बता दिया - सिर्फ चार महीने बाकी हैं. अमित शाह ने कहा - 'अभी कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के लिए फैसला दिया... 100 वर्षों से दुनिया भर के भारतीयों की मांग थी कि वहां राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर बनना चाहिए.'

क्या ऐसा नहीं लगता कि आडवाणी ने राम मंदिर के लिए सिर्फ रथयात्रा की थी - और हिंदुत्व के उसी एजेंडे पर अमित शाह ने ऐसी सरपट दौड़ लगायी है कि बीजेपी समर्थक भव्य मंदिर की झलक देखने लगा है.

रैली में शाह ने कहा, 'सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है, चार माह के अंदर आसमान को छूता हुआ प्रभु राम का मंदिर अयोध्या में बनने जा रहा है.'

क्या अमित शाह अब लालकृष्ण आडवाणी के असली उत्तराधिकारी बन चुके हैं - या फिर आडवाणी से आगे बढ़ते हुए उन्हें काफी पीछे छोड़ दिया है?

आडवाणी की उपलब्धियों की फेहरिस्त में मंदिर आंदोलन के अलावा ले देकर दो सांसदों वाली बीजेपी को केंद्र सत्ता तक पहुंचाने का श्रेय है - लेकिन अमित शाह ने तो 23 मई के चुनाव नतीजे आने के बाद से उपलब्धियों की झड़ी लगा दी है.

एक एक करके चुनावी वादे ऐसे पूरे कर रहे हैं जैसे आने वाले चुनावों में नये सिरे से मैनिफेस्टो ही गढ़ना पड़ेगा. अब तो हालत ये हो चली है कि संसद में मोदी की गैर-मौजूदगी में अमित शाह बड़े ही आक्रामक अंदाज में मोर्चा संभाले देखे जाने लगे हैं.

शाह के लिए कैसा रहा साल 2019

सुनने में तो ये भी आया है कि धारा 370 खत्म करने की तैयारी 2019 के चुनाव से पहले ही कर ली गयी थी. तब मोदी और शाह की जोड़ी ने अरुण जेटली के साथ मिल कर खास रणनीति तैयार की थी - और उसी हिसाब से जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती वाली गठबंधन सरकार से सपोर्ट भी वापस लिया जा चुका था, लेकिन पुलवामा हमले ने सब कुछ बदल दिया. तब ये सब मुमकिन हो पाता या नहीं, लेकिन मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी ने सारी तैयारी रोक दी. पुलवामा और बालाकोट के बाद अमित शाह का ब्रांड मोदी में भरोसा इस कदर बढ़ चुका था कि अयोध्या के एजेंडे की भी जरूरत नहीं रही. पूरा देश राष्ट्रवाद के माहौल में रंग चुका था. चुनावों में बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और तीन तलाक जैसे वादे किये - सरकार बनी तो पूरा करने की जिम्मेदारी भी शाह पर आ पड़ी.

जम्मू-कश्मीर में जमीनी हालात में भले ही अब भी कोई खास बदलाव न आ सका हो, लेकिन धारा 370 की वजह से जो समस्यायें बनी हुई थीं वे तो एक झटके में ही खत्म हो गयीं. पाकिस्तान जो बार बार हर बातचीत में कश्मीर का मसला बीच में ला देता रहा, उसके साथ बातचीत की बातें ही दरकिनार कर दी गयीं - और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी भारत को जिस कश्मीर को लेकर बचाव की मुद्रा में आना पड़ता था, हमेशा के लिए खत्म हो गया.

ये सब मुमकिन भी इसीलिए हो पाया कि 'मोदी है तो मुमकिन है' के नारे के साथ अमित शाह ने बीजेपी को 2014 से भी बड़ा बहुमत दिलाया. जब नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बने तो अमित शाह को कैबिनेट में ले गये, हालांकि, राजनाथ सिंह की वरिष्ठता को कायम रखा गया और सरकार में उनका नंबर दो का कद बरकरार रखा गया, लेकिन दबदबा तो अमित शाह का ही रहने लगा.

तीन तलाक तो चुटकियों में पास हो गया, लेकिन धारा 370 पर बीजेपी नेतृत्व को बड़ी व्यूह रचना करनी पड़ी - और ये सब इतना पुख्ता रहा कि विपक्ष चारों खाने चित्त हो गया. कांग्रेस की तो कदम कदम पर फजीहत हुई. पहले विरोध करने के बावजूद जेडीयू नेता तो कहने लगे कि अब जब कानून बन ही गया तो विरोध करने से क्या फायदा.

देश भर में NRC लागू करने की घोषणा कर चुके अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून भी बनवा दिया - और विपक्ष की एक न चली. वो भी तब जब राज्य सभा में आज भी बीजेपी अपने साथियों के साथ भी बहुमत में नहीं है - फिर भी अमित शाह ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी तक का समर्थन हासिल कर लिया.

चुनावी तैयारियों की ही तरह अमित शाह की हर चीज फूलप्रूफ होती है और यही वजह है कि संसद में भी वो विपक्ष पर बड़े ही आक्रामक होकर हमला बोल देते हैं. नागरिकता संशोधन कानून में आर्टिकल 14 के उल्लंघन के आरोपों सटीक जवाब भी अमित शाह ने पहले से तैयार कर रखा था, 'जो लोग कह रहे हैं कि ये आर्टिकल 14 की मूल भावना के खिलाफ है वे अपनी ही पार्टी के पुराने कामों का ठीक से अध्ययन नहीं किया है... 1947 के बाद जो भी भारत आये उन्हें नागरिकता मिली... इसमें मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल हैं.'

बीजेपी के लौह पुरुष रहे लालकृष्ण आडवाणी को कौन कहे लगने तो ये लगा है जैसे अमित शाह ने नरेंद्र मोदी के साये से भी आगे बढ़ते हुए अपनी अलग ही छवि गढ़ ली है. जिस तरह अमित शाह बीजेपी और संघ के हिंदुत्व का नया चेहरा बन कर उभरे हैं लगता है वो आडवाणी को भी बहुत पीछे छोड़ चुके हैं.

इन्हें भी पढ़ें :

क्या भाजपा अमित शाह के रंग में रंग गई है?

मान लीजिए कि अमित शाह के रूप में देश का नया नेतृत्‍व तैयार हो रहा है!

मोदी-शाह को हैंडल करना RSS के लिए अटल-आडवाणी से मुश्किल होगा

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय