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Updated: 05 मार्च, 2019 09:04 PM
प्रभुनाथ शुक्ल
प्रभुनाथ शुक्ल
 
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भाजपा मिशन-2019 की तैयारी में पूरी तरह जुट गयी है. उसने अपनी रणनीति के केंद्र में यूपी और कांग्रेस के सियासी गढ़ अमेठी को रखा है. जबकि महागठबंधन की चुनावी तस्वीर अभी जमीन पर उतरती नहीं दिखती. भाजपा किसी भी तरह से यूपी को अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहती. अबकि बार उसके निशाने पर गांधी परिवार की राजनीतिक जमीन अमेठी है. स्मृति ईरानी और भाजपा पूरी तरह अमेठी पर कब्जा करना चाहते हैं.

भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के साथ अमेठी मुक्त कांग्रेस की तरफ बढ़ती दिखती है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेठी की जनता को पांच हजार करोड़ की योजनाओं का तोहफा दिया है. जिसमें रसिया और भारत के सहयोग से एक आर्डिनेंस फैक्ट्री का उद्घाटन भी किया है. जहां से एके-203 राइफल का उत्पादन होगा. यूपीए सरकार में 2007 में इसकी नींव रखी गयी थी. इस पर राजनीति भी शुरू हो गयी है. राहुल गांधी ने एक ट्वीट के जरिए पीएम मोदी पर झूठ बोलने का भी आरोप लगाया है. राहुल गांधी की तरफ से कहा गया है कि गन फैक्ट्री में उत्पादन पहले से हो रहा है. जिस पर ईरानी ने पलटवार किया है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने 2014 में अमेठी से स्मृति ईरानी चुनाव लड़ी थीं. जिसमें उनकी पराजय हुई थी. लेकिन अमेठी की जनता को वह एतबार दिलाने में कामयाब रही हैं कि राहुल गांधी से कहीं अधिक उन्हें आपकी चिंता है. मोदी सरकार में खासी अहमियत रखने वाली ईरानी अमेठी में व्यापक पैमाने पर लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी दिलाया है. जिसमें उज्ज्वला योजना, कुम्भकारों को इलेक्ट्रानिक चाक, मधुमक्खी पालन शामिल हैं. दीवाली पर लोगों को उपहार भी उनकी तरफ से बांटे जाते रहे हैं. राहुल गांधी के हर सियासी हमले का जबाब उनकी तरफ से दिया जाता रहा है. ईरानी अमेठी को अपनी राजनैतिक जमीन के रूप में तैयार करना चाहती हैं. क्योंकि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है इसलिए सरकारी योजनाओं के जरिए विकास का खाका तैयार कर अपनी अहमियत जताना चाहती हैं.

नरेंद्र मोदी, 2019, लोकसभा चुनाव, अमेठी, राहुल गांधी, कांग्रेस, स्मृति ईरानीभाजपा को कांग्रेस ने 2014 में अमेठी में 1 लाख से ज्यादा मतों से हराया था, लेकिन अमेठी की रणनीति अब बदल चुकी है.

वह अमेठी से चुनाव भी लड़ना चाहती हैं. अब भाजपा उन्हें हरी झंडी देती है या नहीं यह वक्त बताएगा. भाजपा इस सीट को अपने कब्जे में लेकर यह संदेश देना चाहती है कि उसने गांधी परिवार का अंतिम किला भी सियासी एयर स्टाइक से ध्वस्त कर दिया. क्योंकि राफेल के मसले उठा कर राहुल गांधी ने पीएम मोदी और भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी की है. भाजपा का मिशन अमेठी क्या कांग्रेस और राहुल गांधी को मुश्किल में डाल सकता है? कांग्रेस का राजनैतिक गढ़ अमेठी क्या उससे छिन जाएगा? यह वक्त बताएगा, लेकिन रायबरेली और अमेठी में भाजपा की अधिक हलचल देखने को मिल रही है. यह चुनावी रणनीति, जमीन पर कितनी सफल दिखती है इसका आकलन भी करना आवश्यक है.

अमेठी से भाजपा की वरिष्ठ नेता स्मृति ईरानी ने 2014 में चुनाव लड़ा था. उन्हें 3,00,748 वोट मिले थे जबकि राहुल गांधी को 4,08,651 मत हासिल हुए थे. राहुल गांधी ने एक लाख से अधिक वोटों से ईरानी को हराया था. बसपा के धर्मेंद्र प्रताप सिंह को 57,716 वोट हासिल हुए थे. जबकि आप के कुमार विश्वास को 25,527 मत मिले थे. समाजवादी पार्टी ने यहां से अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था. अमेठी में कुल 16,69,843 मतदाता पंजीकृत थे जिसमें 8,74,625 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया था. 52 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था. राहुल गांधी 2009 में यहां से 2014 के मुकाबले सबसे अधिक 4,64,195 लाख वोट हासिल किए थे.

दूसरे पायदान पर बसपा के आशीष शुक्ला थे जिन्हे 93,997 वोट मिले थे जबकि भाजपा के प्रदीप सिंह तीसरे नम्बर पर थे उन्हें 37,570 वोट मिले थे. उस दौरान 45 फीसदी से अधिक पोलिंग हुई थी. कुल वोटर यहां 14,31,787 थे जबकि 6,64,650 ने अपने मत का प्रयोग किया था. इस लिहाज से देखा जाए तो यहां गांधी परिवार को पराजित करना बेहद मुश्किल काम लगता है, क्योंकि 2014 में मोदी लहर थी. मोदी का जादू वोटरों के सिर चढ़ कर बोल रहा था. देश में कांग्रेस के प्रति एक नकारात्मक सोच बनी थी. लेकिन यूपी में इस बार सपा-बसपा के सियासी तालमेल से रणनीति बदल गयी है.

यूपी की राजनीतिक जमीन 2014 के मुकाबले 2019 में काफी बदल चुकी है. 2014 में भाजपा 73 सीटों पर जीत दर्ज किया था जिसमें सहयोगी अपना दल भी शामिल हैं. चुनावी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि इस बार भाजपा के लिए यूपी की राह आसान नहीं होगी. क्योंकि जातिय गठजोड़ की वजह से उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. जिसकी वजह से अमेठी में भी काफी बदलाव देखने को मिलेगा जो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी. 2014 और 2009 में सपा ने यहां से अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे जबकि बसपा ने दोनों बार अपने उम्मीदवारे उतारे थे. अगर 2014 और 2009 में केवल बीएसपी मतों का स्थानांतरण कांग्रेस की झोली में जाता है तो उस लिहाज से भाजपा उस खाई को पाटती नहीं दिखती. क्योंकि स्मृति ईरानी 2014 में राहुल गांधी से 1,00793 हजार वोटों से पराजित हुई थीं.

सपा ने अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे जिसकी वजह से वह मत कांग्रेस को मिले होंगे. लेकिन इस बार सपा-बसपा की दोस्ती की वजह से राहुल गांधी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं होगा. फिर मतों के उस भारी अंतराल को भाजपा कैसे पाटेगी? क्योंकि अगर हम 2014 को मान कर चलें तो यहां बीएसपी को 57 हजार वोट मिले थे. सिर्फ यही वोट कांग्रेस की तरफ जाते हैं तो जीत का फासला काफी बढ़ जाता है. 2009 की बात करें तो उस दौरान बसपा ने यहां से 93 हजार से अधिक वोट हासिल किया था, बसपा की तरफ से आशीष शुक्ला को उम्मीदवार बनाया गया था जिसकी वजह से कांग्रेस और भाजपा के अगड़ी जातियों के कुछ मत भी बसपा की झोली में गए थे. कांग्रेस अभी तक यहां से केवल दो चुनाव पराजित हुई है.

1977 में लोकदल ने संजय गांधी को हराया था. फिर 1998 में संयज सिंह ने कांग्रेस के सतीश शर्मा को पराजित किया था. कांग्रेस यहां से 13 बार से अधिक चुनाव जीत चुकी है. गांधी परिवार के लिए अमेठी और रायबरेली की जमीन राजनीतिक लिहाज से बेहद उर्वर रही है. रायबरेली से इंदिरा गांधी का बेहद पुराना लगाव था बाद में सोनिया गांधी ने उसे अपना चुनावी क्षेत्र बनाया. अमेठी से राजीव गांधी लगातार चुने जाते थे. अब उनके बेटे राहुल गांधी ने इसे अपना गढ़ बनाया है.

राजीव गांधी के दौर में अमेठी को विशेष तरजीह दी जाती थी. यहां की समस्याओं को सुनने के लिए स्पेशल अधिकारियों की नियुक्ति की गयी थी. कहां तो यहां तक जाता है राहुल गांधी एक-एक गांव को अच्छी तरह जानते थे. कार्यकर्ताओं का नाम उन्हें जुबानी याद था. अमेठी आने पर कार्यकर्ताओं को नाम से बुलाते थे. इस तरह देखा जाए तो अमेठी से गांधी परिवार का रिश्ता बेहद पुराना रहा है. उस हाल में स्मृति ईरानी और भाजपा की रणनीति यहां कैसे सफल होगी यह वक्त बताएगा. लेकिन वह पूरी कोशिश में लगी है.

हालांकि, पुलवामा हमले, एयर स्ट्राइक और अभिनंदन की वापसी के बाद भाजपा के पक्ष में सियासी हवा बदली है. हाल के सर्वेक्षणों में बताया गया है कि वह 41 सीटें हासिल कर सकती है पिछले सर्वे से उसे 10 से अधिक सीटों का लाभ होता दिखता है. भाजपा इस बदलाव को वोट में कितना परिवर्तित कर पाएगी यह समय बताएगा. लेकिन गांधी परिवार के सियासी किले अमेठी को भेदना आसान नहीं लगता है. फिलहाल राजनीति में कुछ कहा नहीं जा सकता है.

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