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Updated: 12 अगस्त, 2022 04:28 PM
डॉ. फैयाज अहमद फैजी
डॉ. फैयाज अहमद फैजी
  @faizianu
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क्यों जरूरी है पसमांदा मुसलमानो को अलग पहचान मिलना? यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाहर से आए हुए शासक वर्गीय मुसलमान, जो स्वयं को विदेशी अशराफ कहते हैं, के द्वारा भारतीय मूल के मुसलमान, जो कालान्तर में किन्हीं कारणों से मुस्लिम बन गयें थे और जिन्हें अब देशज पसमांदा(मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी,दलित और पिछड़े) कहा जाने लगा है, के साथ मुख्यतः नस्लीय और सांस्कृतिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है. भारतीय मुसलमानो के साथ यह भेदभाव शिक्षा से लेकर राजनीति तक हर स्तर पर था. विशेष रूप से अशराफ मुस्लिम शासन काल में यह अपने चरम पर था. जहां उन्हे शासन प्रशासन में पहुंचने नहीं दिया जाता था और अगर कोई भूले भटके पहुंच भी गया तो उसे निकाबत विभाग द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. ज्ञात रहें कि निकाबत विभाग का काम शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करना था. मुगलों के दौर में भी उन्हें बस्ती के बाहर रखने, शिक्षा से दूर रखने का शासनादेश था. सजा और जुर्माने में भी नस्लीय और जातीय विभेद और भेदभाव कानून सम्मत था. पूरे अशराफ मुस्लिम शासन काल में सैय्यद जाति को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था.

Muslim, Pasmanda Muslim, Education, Development, Mughals, Casteism, Exploitation, Poverty, Employmentदेश में पसमांदा मुसलमानों को हमेशा ही तमाम तरह के शोषण का सामना करना पड़ा है

ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल इसका अपवाद था. यूरोपियनों के आने के बाद भारत में एक नए युग का आरम्भ होता है. सत्ता धीरे-धीरे अशराफ वर्ग के हाथों के निकल कर अंग्रेज़ो के हाथ में आने लगती है. उन्नीसवी शताब्दी के मध्य का काल आते आते अंग्रेज़ पूरी तरह अपनी सत्ता सुदृण कर लेते हैं. इन बदली हुई परिस्थितियों में मुस्लिम शासक वर्ग यानी अशराफ वर्ग ने अपने सत्ता और वर्चस्व को बचाने के लिए अपनी पूर्ववर्ती नीतियों को बदलते हुए मुस्लिम राष्ट्रवाद की परिकल्पना रखा जिसका प्रमुख साधन पृथक निर्वाचन, द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम साम्प्रदायिकता था.

मुस्लिम राष्ट्रवाद को परवान चढ़ाने के लिए उन्हें भीड़ की आवश्यकता थी जो उन्हें देशज पसमांदा के रूप में मिला जो कालांतर में किन्हीं करणो से अपना मतांतरण करके मुस्लिम धर्म में आ गए थे और जो अपनी पूर्ववर्ती सभ्यता, संस्कृति भाषा एवम् सामाजिक मान्यताओं से जुड़े हुए थे जिस कारण उनकी एक अलग एवं स्पष्ट पहचान थी. देशज पसमांदा को अपने पाले में करने के लिए उनकी सांस्कृतिक पहचान और विविधताओं को समाप्त कर उनका अशराफीकरण (अरबी ईरानी कारण) करने के लिए अशराफ ने इस्लाम, मुस्लिम सभ्यता और मुसलमानों को बचाने के नाम पर, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुधार जैसे मोर्चे पर विकल्प देना शुरू किया.

मदरसा शिक्षा, यूनानी चिकित्सा पद्धति, और विभिन्न इस्लामी संगठन आदि को पूरे देश विशेष रूप से देशज पसमांदा के बीच फैलाने का कार्य प्रारम्भ किया गया. मदरसा में देशज पसमांदा को केवल नमाज़ रोज़ा वज़ू जैसे शुद्ध धार्मिक क्रियाकलापों एवं क़ुरआन का लिपि पाठ तक ही सीमित किया गया, पूर्ण इस्लामी ज्ञान से वंचित रखा गया ताकि वो इस मामले में अशराफ के एकाधिकार को चुनौती ना दे सके और केवल सेवक की भूमिका में ही रहें.

इस शिक्षा को दीनी तालीम(धार्मिक शिक्षा) का नाम दिया गया, और इसे आधुनिक शिक्षा के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और आधुनिक शिक्षा,साहित्य और विज्ञान को इस्लाम विरोधी बता कर इसे शिक्षा ना कह कर केवल हुनर बता कर प्रबल विरोध किया गया (वो अलग बात है कि अशराफ ने अपने नई पीढ़ी को विदेश भेज कर आधुनिक शिक्षा से परिचित कराया). यहां यह बात गैरतलब है कि जब मदरसा में पढ़ कर शासन प्रशासन में जगह मिलती थी उस समय तो मदरसा में घुसने तक नहीं दिया.

यही नीति स्वास्थ्य के क्षेत्र में यूनानी चिकित्सा का महिमा मंडन और मॉडर्न चिकित्सा पद्धति की बुराई कर के किया गया उसे गैर इस्लामी तक कहा गया. सामाजिक सुधार के मोर्चे पर भी विभिन्न इस्लामी जमातों जैसे जमाते इस्लामी, तबलीगी जमात आदि द्वारा इसे क्रियान्वित किया गया. इसका प्रभाव भी पड़ा और देशज पसमांदा अपनी मूल सभ्यता संस्कृति से दूर होता चला गया यहीं नहीं उसके अंदर मजहबी कट्टरता जो ऐन उनके स्वभाव के विपरीत था, घर करने लगा.

देशज पसमांदा के नाम क्षेत्र विशेष के देशी नामों से हटकर फारसी(पर्सियन) और फिर अरबी भाषा के नाम होने लगे. परिधान में धोती कुर्ता आदि अन्य क्षेत्रीय भेष भूषा, शेरवानी में बदलने लगे, क्षेत्रीय भाषाओं की जगह उर्दू ने लेना शुरू कर दिया. हालांकि देशज पसमांदा की ओर से इसके प्रतिरोध में बाबा कबीर, हाजी शरीयतुल्लाह और असीम बिहारी के रूप में आवाजे भी उठी और आज भी किसी न किसी रूप में पसमांदा आंदोलन सक्रिय है लेकिन साधन संपन्न और शासक होने के कारण अशराफ इस मामले में बढ़त ले गया.

स्टीव बिको ने कहा था कि उत्पीड़क के हाथ में सबसे शक्तिशाली हथियार उत्पीड़ितों का दिमाग होता है. यह बात भारतीय मुसलमानो(देशज पसमांदा) के संदर्भ में बिल्कुल सही उतरता है जहां विदेशी अशराफ मुसलमान, इस्लाम को बचाने के छद्म मुहीम में भारतीय मुसलमानो को भ्रमित कर उनके सोचने समझने की क्षमता पर हावी है जिस कारण देशज पसमांदा की भूमिका एक ऐसे सेवक मात्र ही है जो सेवा तो बड़ी लगन से करता है लेकिन अपने हितों के लिए अपने मालिक से सवाल तक नहीं कर सकता है.

इसीलिए भारत के आज़ाद होने के बाद भी मुसलमान और अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली लगभग सभी संस्थाओं में देशज पसमांदा की भागेदारी ना के बराबर हैं. इसी कारण समाज के अन्दर से समय समय पर अलग पहचान की आवाजे उठाती रही है. विदेशी अशराफ के सापेक्ष भारतीय मुसलमानो के मोमिन से पसमांदा तक के नामकरण के पीछे यही सोच रही हैं. ऐसा माना जाता है कि जब तक एक स्पष्ट पहचान न होगी हक अधिकार की मांग सुचारू रूप से आगे नहीं बढ़ सकती है.

मौजूदा समय में देश भर में फैले देशी मुसलमानो के विभिन्न संगठन, इस जातीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न के विरुद्ध सक्रिय होकर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना की मांग कर रहें हैं ताकि उनका जातीय/नस्लीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न खत्म हो और वो देश की मुख्य धारा में शामिल हों. पसमांदा समाज को यह बात समझना होगा कि वो तब तक ढंग से नहीं उठ खड़ा हो सकता है जब तक उसको उसके मजहबी पहचान से इतर उसकी सामाजिक पहचान स्पष्ट ना हो, जैसे इस देश के अन्य वंचित समाजों की है.

क्यों कि किसी भी समाज का जीवन स्तर उसके सामाजिक विकास से संभव होता है ना कि धार्मिक पहचान से. यदि केवल मजहबी पहचान से ही किसी का जीवन स्तर सुधर सकता तो आज देशज पसमांदा के हालात दूसरे धर्मो के अपने समकक्ष से बदतर ना होती और अशराफ मुसलमानो की तरह वो भी मुख्यधारा की शोभा बढ़ता.

लेखक

डॉ. फैयाज अहमद फैजी डॉ. फैयाज अहमद फैजी @faizianu

लेखक, अनुवादक, शोधकर्ता, स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक

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