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Updated: 09 दिसम्बर, 2022 05:49 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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समाज बदल गया. राजनीति बदल गई. चुनाव भी पूरी तरह से बदल गए. तौर, तरीके और तकनीकी तो खैर बदल ही चुके हैं. लेकिन जो बदलने को तैयार नहीं वह है- चुनावों का स्टीरियोटाइप विश्लेषण. यह एक दशक पहले तक अखबार और टीवी के जमाने में ठीक था. तब फैक्ट चेक नहीं थे. उसे क्रॉस चेक नहीं किया जा सकता था. मगर अब हर जेब में इंटरनेट होने की वजह से चुनावों से जुड़ा जितना डेटा किसी पत्रकार, विश्लेषक और पार्टी प्रवक्ताओं के पास हैं- लगभग उतना ही डेटा आम मतदाता के पास भी है. अब अंग्रेजी का भी भौकाल नहीं रहा. अंग्रेजी ज्ञान से हिंदी में निकले मनमाने विश्लेषणों से अब पब्लिक ओपिनियन तैयार नहीं किए जा सकते. भाषाई आधार पर भी समाज में कमोबेश हर जाति और परिवार के अपने ओपिनियन मेकर हैं आज की तारिख में.

इसलिए बहुत जरूरी हो जाता है कि ओपिनियन एनालिसिस के नाम पर मीडिया को, पार्टी प्रवक्ताओं को और वित्तपोषित बुद्धिजीवियों को स्टीरियोटाइप से बाहर निकल जाना चाहिए. यह दौर सूचनाओं का समुद्र है. जबरदस्ती करना हमारी अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक नहीं. वर्ना तमाम संस्थाओं, व्यक्तियों की बची-खुची प्रासंगिकता खोने का खतरा है. क्योंकि ऐसे विश्लेषण, मौजूद तथ्यों और समाज की सोच से बिल्कुल मेल नहीं खाते. भ्रमित करते हैं और निराश करते हैं. लोकतंत्र में विकासोन्मुखी और सबकी भागीदारी वाले विचार को भी प्रभावित करते हैं. बावजूद कुछ लोग मनमानी से बाज नहीं आते. क्यों भला?

उदाहरण के लिए धार्मिक आधार पर हालिया चुनावी नतीजों के विश्लेषण को लिया जा सकता है. गुजरात और दिल्ली निगम में मुस्लिम मतों की अच्छी खासी संख्या होने के बावजूद चुनाव में मुसलमान मतदाताओं के पसंद के मुद्दे नहीं खड़े हो पाए. हिमाचल में तो नाममात्र के मुस्लिम मतदाता हैं. वहां यह कोई मुद्दा ही नहीं था. यह पहला मौका नहीं है. एक दशक से कई चुनाव ऐसे हुए जहां मुसलमान मतों की रचनात्मक भूमिका नहीं दिखी. लेकिन विश्लेषणों के लिए उनका महत्व सबसे ज्यादा था. या तो तमाम लोगों में अब क्षमता नहीं रही कि ईमानदारी से चीजों को देखें और समाज को बताएं. या वे अपने ओहदे का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं- निजी फायदों के लिए.

gujrat electionओवैसी

स्टीरियोटाइप विश्लेषण में होता क्या है?

स्टीरियोटाइप विश्लेषण देखके ऐसा लग रहा कि हारे या जीतें, मुसलमान मतदाता ही देश की राजनीति तय करते रहे हैं. यह उन्हीं का अधिकार है, दूसरे किसी समूह का नहीं. कई फिरकों, टुकड़ो में बंटे होने, आरक्षण लेने और आरक्षण की चाह रखने के बावजूद मुसलमानों को एक यूनिट ही देखा जाता है. दूसरे- विध्वंसक खांचों में बंटे हैं. गुजरात के विश्लेषण देखिए. गुजरात में एक पार्टी लगातार सत्ता के शीर्ष पर कायम है, दशकों से. मुस्लिम एंगल की वजह से यह पता ही नहीं चल रहा कि आखिर भाजपा की लगातार जीत के पीछे क्या है? लोगों को एक दो चुनाव तक मूर्ख बनाया जा सकता है. गुजरात को देखकर ऐसा लग रहा कि लोग जवानी से बुढापे की दहलीज पार कर चुके, मगर किन्हीं वजहों से पार्टी नहीं बदली? क्यों, हमें पता नहीं. मोदी चाहे जो वजह बताएं, चूंकि वे नेता हैं तो हमें नहीं मान सकते हैं. पर जिनकी जवाबदारी है वे तो ईमानदारी से बता सकते हैं. या अभी भी यही कहेंगे कि आप, कांग्रेस, ओवैसी और सभी निर्दलीय एक होकर लड़ते तो गुजरात में भाजपा की जीत नहीं होती. सवाल है कि फिर एक होकर हर चुनाव क्यों नहीं लड़ते. किसी ने रोका है क्या?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसे विश्लेषण जानबूझकर थोपे जाते हैं. क्योंकि विश्लेषणों से निकले झूठे सैम्पल की वजह से राजनीतिक दलों तक समाज की सही सोच को पहुंचने से रोका जा सकता है. ऐसे विश्लेषण चुनाव से पहले ही शुरू हो जाते हैं. किसी राज्य में चुनाव की घोषणा होने के बाद मुस्लिम मत कितने प्रतिशत हैं और चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी, कोई ओवैसी, किसी पीस पार्टी की क्या भूमिका होगी- हवा हवाई एनालिसिस आने लगते हैं. किसी एक आम ख़ास के मुंह में चैनल का बूम घुसाकर उसकी आवाज को समाज की आवाज बता दिया जाता है. गुजरात में देखिए कि चुनाव से पहले तक ओवैसी लगभग हर रोज हर टीवी चैनल पर नजर आते थे, लेकिन मतगणना में उन्हें तवज्जो ही नहीं मिली.

कांग्रेस और तीसरे दलों की हार और भाजपा की ऐतिहासिक जीतों के पीछे क्या है यह?

मुस्लिम एंगल से विश्लेषणों का अपना एजेंडा है. असल में यह सिर्फ इसलिए है कि भारतीय राजनीति में किसी दल की तरफ झुंड के झुंड मुसलमान मतों के जाने का भ्रम बना रहे. यह भ्रम बना रहे ताकि भारत के विचार का विरोध करने वाली राजनीति मजबूत रहे. जिसे सत्ता पानी है उसकी मजबूरी है कि वह करेगा, भले ही उसे अपने ही समाज का बंटवारा क्यों ना करना पड़े. जबकि यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है. विश्लेषणों से सुविधाजनक स्थापनाएं महज इसलिए होती हैं कि भारत का लोकतंत्र और राजनीति अपनी स्वाभाविक जरूरत के हिसाब से, स्थानीयता के हिसाब से और भूगोल के हिसाब से मुद्दों को निर्धारित ना करे. कांग्रेस समेत तीसरे दलों की बर्बादी के पीछे और भाजपा की बेशुमार कामयाबी के पीछे असल में यही एक बिंदु अहम है. पिछले डेढ़ दशक में देश में इंटरनेट विस्तार के साथ भाजपा के शीर्ष पर जाने के रास्ते और पड़ाव देख लीजिए. रामपुर और मैनपुरी के उपचुनाव से अब इतना तो समझ ही सकते हैं कि अखिलेश यादव यूपी में सत्ता के बिल्कुल मुहाने पर खड़े थे. मगर आजम खान की नाराजगी का हौवा कुछ इस तरह खड़ा किया गया कि उनके सिर पर जिन्ना का जिन सवार हो गया. उनकी तरफ आ रहे तमाम वोट विदक गए. भाजपा को असल में विकल्पहीन जीत मिली थी वहां. वे अपराजेय नहीं थे. उन्हें हराया जा सकता था.

मुस्लिम बहुल सीटों की हकीकत क्या है और विश्लेषण कैसे हो रहा?

गुजरात की कुछ मुस्लिम बहुल सीटों का विश्लेषण कई मायनों में मजेदार है. एजेंडा भी साफ हो जाता है. बताया जा रहा है कि कैसे भाजपा के खिलाफ बेतहाशा मुस्लिम उम्मीदवारों की वजह से विपक्ष को नुकसान उठाना पड़ा. वह विपक्ष जो चुनाव से पहले सिर्फ थोक में मिलने वाले मतों की उम्मीद में गठबंधन नहीं कर पाता, चुनाव के बाद बताया जाता है कि अगर वे साथ लड़ते तो नतीजे क्या होते? गजब देश है. उदाहरण के लिए गुजरात की लिम्बायत, बापूनगर, वेजलपुर और सूरत ईस्ट जैसी कुछेक सीटों को सैम्पल बनाकर की गई एनालिसिस को गूगल कर लीजिए. मजेदार यह है कि यहां तीनों बड़ी पार्टियों (भाजपा, कांग्रेस और आप) ने हिंदू उम्मीदवारों को ही टिकट देने में दिलचस्पी दिखाई. लिम्बायत और वेजलपुर में तीनों पार्टियों ने हिंदू उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. ये सीटें भाजपा के खाते में गईं. यहां बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार थे. ओवैसी के भी. लेकिन जीतने वाले भाजपा उम्मीदवार की मार्जिन के बराबर तो छोडिए, सभी मुस्लिम प्रत्याशियों को मिले मतों को भी अगर जोड़ दिया जाए तो वह हार जीत के अंतर का आधा भी नहीं है. सूरत ईस्ट में जरूर कांग्रेस ने मुलिम प्रत्याशी उतारा.

gujrat electionलिम्बायत

gujrat electionवेजलपुर

बावजूद हार-जीत के अंतर के बराबर दूसरे सभी मुस्लिम उम्मीदवारों ने मिलकर भी वोट नहीं पाया है. और विश्लेषण क्या हो रहा है? अगर थोक के भाव में मुस्लिम उम्मीदवार नहीं होते तो इन सीटों पर विपक्ष जीत जाता. जबकि ईमानदारी से तो यही सवाल होना था कि मुस्लिम बहुल सीटों पर आखिर क्या वजह रही कि विपक्ष को भी हिंदू प्रत्याशी ही मैदान में उतारने पड़े? गुजरात से रामपुर तक मतलब साफ़ है कि मुस्लिम मतदाता अब मुस्लिम बहुल सीटों पर भी निर्णायक नहीं रहे. और राजनीति का मुद्दा पूरी तरह से राष्ट्रवाद और हिंदुत्व है. जबकि बड़ी बात यह भी है कि मुस्लिम बहुल सीटों पर भी राजनीतिक पार्टियां अगर ईमानदारी से लडे तो उन्हें वहां भी किसी मुस्लिम कैंडिडेट की जरूरत नहीं है. चुनाव से निकलने वाली असल चीजों को को बताया ही नहीं जा रहा. अब सवाल है कि जब मुलिम बहुल सीटों पर भी मुसलमान मत निर्णायक नहीं हैं तो ऐसे झूठे विश्लेषण क्यों और किस फायदे के लिए हो रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके जरिए भाजपा और कांग्रेस विरोधी, छोटे-छोटे दलों की राजनीति का एजेंडा सेट किया जा रहा है. ऐसे ही एजेंडा की वजह से तमाम राजनीतिक दल आज की तारीख में समाज से डिसकनेक्ट हो चुके हैं और अपनी प्रासंगिकता खोने की कगार पर हैं.

बुद्धि भ्रम का शिकार है, हिमाचल की भनक तक नहीं लगी

हिमाचल के ही नतीजों को ले लीजिए. यहां मात्र 0.9 मतों के अंतर से सत्ता भाजपा के हाथ से फिसल गई. 0.9 प्रतिशत के अंतर ने भाजपा को 25 की संख्या में और कांग्रेस 40 के आंकड़े पर पहुंचा दिया. वहां कांग्रेस का कोई चेहरा नहीं था. राहुल गांधी गए नहीं. प्रियंका ने सिर्फ 4 सभाएं कीं, मगर यूं प्रचारित किया जा रहा कि हिमाचल में कांग्रेस के पक्ष में सुनामी थी. जबकि यहां भाजपा में आतंरिक खींचतान थी और सरकारी पेंशनर्स का एक साइलेंट वोट था. किसी को भनक तक नहीं लगी. मीडिया तक भांप नहीं पाया. आख़िरी वक्त में पेंशनर्स के स्विंग ने भाजपा को पटखनी दे दी. विश्लेषण क्या आ रहे हैं, उठाकर देख लीजिए. यह साइलेंट वेव यूपी के विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्वी हिस्से में भी नजर आया था. पेंशनर्स पिछले कुछ चुनाव से निर्णायक हो रहे हैं, मगर मुस्लिम एंगल पर विचार देने वाले उसे भांप तक नहीं पा रहे. वे किसी पार्टी की मदद क्या ही करेंगे? अब हिमाचल के किस सैम्पल को आप भाजपा विरोधी दलों तक पहुंचाना चाहते हैं? हिमाचल पर आ रहे बुद्धिजीवियों के विश्लेषण को फिर गौर से देखिए.

himachal-vote-share_120922040310.pngहिमाचल में मतों की शेयरिंग.

बिना मुस्लिम प्रत्याशी उतारे भी सीटें जीती जा सकती हैं

समझना मुश्किल नहीं कि लोकतंत्र के लिहाज से यह स्थिति कितनी घातक है. इससे बचा नहीं गया तो हमारे लोकतंत्र का बहुदलीय रूप नष्ट हो जाएगा और हम इसकी शिकायत भी नहीं कर सकते हैं. बहुत अच्छा है कि राजनीति में अब मुसलमान कोई मुद्दा नहीं हैं. होने भी नहीं चाहिए. यह हालिया जनादेश से निकली एक बहुत बड़ी बात है जिसे भाजपा विरोधी दलों को गौर से देखना चाहिए. छह दिसंबर बीत गया और पता भी नहीं चला. यह मामूली बात नहीं है. बावजूद कि प्रोपगेंडा चलाने वाले वित्त पोषित बुद्धिजीवी राजनीति में अभी भी बाबरी विध्वंस को पीछे छूटा नहीं मान रहे. उसे बार-बार याद कर अपनी मूर्खता प्रदर्शित कर रहे हैं. हाल ही में एक उम्दा लेखक और बुद्धिजीवी पर नजर गई. उन्होंने तर्क दिए कि जब अयोध्या में राम से जुड़े ढेरो मंदिर मौजूद हैं- यह बात पचाने लायक नहीं कि बाबर ने जन्मभूमि तोड़कर मस्जिद बनाई होगी. या फिर तुलसी ने रामचरितमानस में उसका जिक्र क्यों नहीं किया? तुलसी जैसा राम प्रिय भला उस घटना को याद करने से कैसे चूक सकता है? सवाल बढ़िया है.

लेकिन भारतीय परंपरा से अनभिज्ञ मूर्खों को कौन समझाएं कि सनातन व्यवस्था में 'जन्मभूमि' का मतलब और महत्व क्या है? सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी जगह हमारे लिए वही तो है. 'जननी जन्मभूमिश्च'. उसके नहीं होने की भरपाई किसी चीज के होने से कभी नहीं की जा सकती. देश में लाखों शिव मंदिर हैं. मगर वह ज्ञानवापी के विश्वेश्वर' की जगह नहीं ले सकते. एक मिनट के लिए यह मान भी लिया जाए कि वहां मंदिर नहीं था. लेकिन यह तो असंभव है कि राम के जन्मस्थान में उनके जन्मस्थान का कहीं जिक्र ही ना हो. कोई निशान ही ना हो. कहीं तो रहा होगा. बाबरी ढाँचे के नीचे ना सही, जब दर्जनों मंदिर हैं राम के नाम पर वहां तो जन्मस्थान का भी कहीं कोई वजूद रहा होगा. सवाल है कि आखिर वह कहां है? मूर्खों को कौन समझाए कि रामचरित मानस, बाबरनामा नहीं है जो तुलसीदास वहां उसका जिक्र करते.

बावजूद कि उन्होंने दर्ज किया है. उनके दोहों को राममंदिर विवाद में कोर्ट में भी पेश किया जा चुका है. बावजूद कि मामले में पुरातात्विक रिपोर्ट भी मंदिर के पक्ष में ही है. सुप्रीम कोर्ट रामलला के पक्ष में फैसला भी दे चुका है, मंदिर अंतिम निर्माण की दिशा में है. बावजूद कोई मानने को तैयार नहीं, तो इस बीमारी का कुछ भी नहीं किया जा सकता. अब एक लाइलाज बीमारी के लिए कोई अपनी पार्टी के राजनीतिक मुद्दे बदलना चाहेगा तो वह असल में आत्महत्या ही करेगा. ओवैसी के लिए जरूर यह आत्महत्या नहीं है. उन्हें बाबरी के विध्वंस का रोना रोते रहना चाहिए. मगर दूसरे क्या कर रहे हैं?

राजनीति में मुसलमान मुद्दा नहीं रहे तो तमाम चीजें अपने आप बदल जाएंगी

चुनाव नतीजों के मायने गहरे हैं. इसमें सभी दलों के लिए संदेश है. देश की राजनीति मुसलमानों के तय मुद्दों पर नहीं हो सकती. अब वक्त और जगह भी नहीं है. सभी राजनीतिक दलों को गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ नतीजों पर आत्ममंथन करना चाहिए. यह भी कि गैरबराबरी एक अस्थाई व्यवस्था है और इसे हमेशा के लिए खत्म करने का कोई मैकेनिज्म किसी पार्टी, विचार और व्यवस्था में नहीं है. यह हमारे बहुलता के सिद्धांत को भी संरक्षण नहीं देता. असमानता, गैरबराबरी रहेगी किसी ना किसी रूप में. हमें मानवता की स्थापना करनी है जो समाज में जहर ना भरे. तो राजनीति के मुद्दे असल में भूख के होने चाहिए, समान शिक्षा के होने चाहिए, एक जैसी स्वास्थ्य सुविधाओं के होने चाहिए, सार्वजनिक परिवहन के होने चाहिए, सुरक्षा के होने चाहिए, समान अवसर के होने चाहिए. कम से कम सभी के लिए एक समान मौका तो होना ही चाहिए. स्वाभिमान का मुद्दा सबके लिए होना चाहिए. और सबसे बड़ा मुद्दा संप्रभुता का होना चाहिए. चाहे जो करना पड़े. अगर समाज तैयार है. उसे चलने दीजिए, दौड़ाने दीजिए. हां, उसकी रफ़्तार पर नजर रखिए.

अगर राजनीति बदली तो तो समाज बदल जाएगा. समाज बदलेगा तो उसमें संकोच पनपेगा और इस तरह हमारी संस्कृति खुद ब खुद बदल जाएगी. निश्चित ही हम एक शांत और ज्यादा मानवीय समाज होंगे करुणा से भरे हुए. हम ऐसे ही थे और अभी भी विपरीत से विपरीत हालात में भी रहने की कोशिश कर ही रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स ने सत्ता में बने रहने के लिए हमारे दलों को विवश किया. जो चीजें नहीं थी उसे स्थापित किया गया और असलियत को छिपा दिया गया. आज नहीं तो कल, राजनीतिक मुद्दे बदलने ही पड़ेंगे. समय रहते बदले तो औचित्य बना रह जाएगा. बाद बाकी जो है वह एक-एक कर सामने आ ही रहा है. अब समाज में एक संकोच दिख रहा है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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