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Updated: 24 सितम्बर, 2022 09:12 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अमित शाह (Amit Shah) का सीमांचल दौरा असल में नीतीश कुमार के अब तक के हर हालिया एक्शन का रिएक्शन नजर आ रहा है. अमित शाह के हाव भाव और भाषण की स्टाइल से तो ऐसा ही लगता है - और ये भी साफ होने लगा है कि नीतीश कुमार के नये पैंतरे को बीजेपी नेतृत्व हल्के में नहीं ले रहा है, बल्कि ज्यादा ही सतर्कता बरती जा रही है.

अमित शाह ने 2024 के लिए बीजेपी का चुनाव अभियान कहीं और से शुरू किया होता, अगर नीतीश कुमार पाला बदल कर एनडीए से महागठबंधन में शिफ्ट न हुए होते - बिहार में भी सीमांचल दौरे का कार्यक्रम बीजेपी ने इसीलिए बनाया गया ताकि नीतीश कुमार के बहाने पूरे विपक्ष को बिहार की धरती से ही माकूल जवाब दिया जा सके.

अगले आम चुनाव (General Election 2024) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के मामले में एक्टिव तो अरविंद केजरीवाल भी हैं, लेकिन बीजेपी अभी उनको गुजरात चुनाव भर ही खतरा मान रही है. आगे की क्या तैयारी है ये गुजरात चुनाव के नतीजे आने के बाद ही बीजेपी का रुख साफ समझ में आएगा.

आम चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज करने तो मैदान में ममता बनर्जी भी उतरी थीं, लेकिन कुछ दिनों से उनका रुख काफी अजीब लग रहा है. राष्ट्रपति चुनाव और उपराष्ट्रपति चुनाव में तो दूर दूर ही नजर आयीं. हाल ही में ममता बनर्जी के मुंह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तारीफ सुन कर लोग अभी अलग अलग कयास ही लगा रहे थे - और तभी विपक्ष के नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियों के लगे होने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी बख्श दिया.

नीतीश कुमार के आने के बाद ममता बनर्जी का एक बयान आया था जिसमें वो अखिलेश यादव और हेमंत सोरेन का नाम लेकर अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज देने की बात कर रही थीं, लेकिन फिर अचानक मोदी के प्रति अचानक उनके सॉफ्ट-स्टैंड ने पूरे विपक्षी खेमे को हैरत में डाल दिया है.

ममता बनर्जी ने एक झटके में अपनी मिसाइल का टारगेट प्रधानमंत्री मोदी की जगह अमित शाह की तरफ ये कहते हुए मोड़ दिया कि जांच एजेंसियां गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं. ऐसे में ममता बनर्जी का रुख पहले की तरह साफ तो नहीं ही लग रहा है. अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे ममता बनर्जी ने मोदी विरोधी अपनी मुहिम रोक देने का फैसला किया है.

ये देखने में तो आया ही है कि नीतीश कुमार के महागठबंधन में आ जाने के बाद से विपक्षी खेमा नये सिरे से उम्मीद तो करने ही लगा है. नीतीश की मुहिम की सबसे बड़ी खासियत है किसी भी राजनीतिक दल या नेता को लेकर पॉलिटिकल अनटचेबिलिटी न होना - और यही वो बात है जो बीजेपी नेतृत्व को अंदर तक झकझोर रही होगी.

प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और बिखरा हुआ विपक्ष ही वो राजनीति स्थिति है, जिसमें बीजेपी निश्चिंत भाव से कोई भी आम चुनाव लड़ सकती है. दरअसल, ये स्थिति बीजेपी का वो आजमाया हुआ नुस्खा है जिसमें उसके लिए सफलता की सौ फीसदी गारंटी है.

अमित शाह की रैली में हुए भाषण से भी यही लगता है कि बीजेपी चाहती है कि लोग ये तो बिलकुल न समझें कि नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ देने के बाद से बीजेपी की सेहत पर कोई फर्क पड़ा है - और बिहार में तो ऐसा कोई मैसज बिलकुल नहीं जाना चाहिये. दावा तो अमित शाह 2025 में अपने दम पर बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का भी कर रहे हैं, लेकिन असली मकसद तो 2024 में ज्यादा से ज्यादा लोक सभा सीटों पर जीत सुनिश्चित करना ही है.

अगली बार बिहार में बीजेपी ने 32 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है. 2019 में नीतीश कुमार की जेडीयू और बीजेपी ने मिल कर 40 में से 39 सीटें जीती थी. अब अगर जेडीयू के 16 सांसदों को अलग कर दें तो एनडीए के हिस्से में 23 बचती हैं - और अब इसे ही पलट कर अमित शाह ने 23 को 32 का लक्ष्य बना दिया है. 23 में ही चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस में बंट चुकी लोक जनशक्ति के भी सांसद हैं.

amit shah, nitish kumar, rahul gandhiअमित शाह ने राहुल गांधी का नाम लेकर नीतीश कुमार को हल्के में दिखाने की कोशिश जरूर की है, लेकिन ऐसा ही हो जरूरी भी नहीं है

लोक जनशक्ति पार्टी के सांसदों का क्या हाल होगा, ये कहना भी मुश्किल है. राम विलास पासवान के निधन के बाद चिराग पासवान के अपने पैरों पर खड़े होने की कौन कहे, वो तो लगातार लुढ़कते ही जा रहे हैं - बिहार चुनाव के बाद जितने भी उपचुनाव हुए हैं, चिराग पासवान के उम्मीदवारों का प्रदर्शन काफी घटिया रहा है. ऐसे में 2024 में अपनी सीट निकालने के लिए भी लगता है चिराग पासवान को फिर से मोदी का हनुमान ही बनना पड़ेगा.

ताकि सोनिया के मन में संदेह होने लगे

एनडीए छोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने बगैर नाम लिये सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही निशाना लगाया था - जो 2014 में आये थे... 2024 में आएंगे नहीं...

असल में 2014 से पहले नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद ही एनडीए छोड़ा था, लेकिन जल्दी ही लालू यादव का साथ उबाऊ लगने लगा और महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में लौट आये. घुटन तो महागबंधन में भी रही, लेकिन बीजेपी के साथ भी खुली हवा में सांस लेने का मौका कुछ ही दिन मिला - और 2020 के विधानसभा चुनावों के बाद तो बीजेपी नेतृत्व ने जैसे हाथ पैर ही बांध दिये थे. वैसे खुल कर तैरने की छूट तो लालू यादव आगे भी नहीं देने वाले लेकिन बिहार में बेटे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए और कोई रास्ता भी तो नहीं सूझ रहा है.

अमित शाह का दौरा खत्म होते ही नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से मिलने का कार्यक्रम बनाया है. ये भी पहले से ही बता दिया गया है कि नीतीश कुमार अपने साथ लालू को भी लेकर जा रहे हैं मिलने - और फिर तीनों बैठ कर 2024 के लिए रणनीति की दशा और दिशा तय करेंगे.

सवाल ये है कि क्या इस खास मुलाकात में प्रधानमंत्री पद का मुद्दा नहीं उठेगा?

विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोई भी बैठक बगैर इस चर्चा के होने का तो कोई मतलब ही नहीं है. सब कुछ तो बढ़िया बढ़िया ही होता है, जब तक प्रधानमंत्री पद पर चर्चा की बारी नहीं आती. वैसे तो नीतीश कुमार ने नयी पारी की शुरुआत से ही कहना शुरू कर दिया है कि वो 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं - लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि सोनिया गांधी के मन में कोई संशय न हो कि नीतीश कुमार जो कह रहे हैं वो उसी बात पर आखिर तक कायम भी रहेंगे.

लगता है यही सोच कर अमित शाह ने नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ मीटिंग से ठीक पहले सोनिया गांधी को राहुल गांधी का नाम लेकर याद दिला दी है. पूर्णिया की रैली में अमित शाह नाम तो नीतीश कुमार का भी लेते हैं और लालू प्रसाद यादव का भी, लेकिन प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर राहुल गांधी को ही पेश कर रहे हैं.

रैली में अमित शाह बिलकुल मोदी स्टाइल में लोगों से पूछते हैं - आप राहुल बाबा को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं या नरेंद्र मोदी को फिर से पीएम बनते देखना चाहते हैं? जिस ऑडिएंस से ये सवाल पूछा जा रहा है, जवाब भी सबको मालूम है और इसीलिए पूछा भी जा रहा है. ऐसे सवालों के जवाब भी लोग पूरे सुर में देते हैं - मोदी-मोदी!

और उसी दौरान सवाल ऐसे भी पूछा जाता है, प्रधानमंत्री कौन बने? मोदी, नीतीश या राहुल बाबा? भीड़ जोरदार ठहाके लगाती है - और कुछ देर के लिए पूर्णियां का रंगभूमि मैदान नमो-नमो की गूंज भर उठता है.

जैसे यूपी चुनाव में अमित शाह बीएसपी की प्रासंगिकता बता रहे थे, बिहार जंगलराज को भी प्रासंगिक बनाये रखने की पूरी कोशिश करते हैं. अब तक तो जंगलराज से मुक्ति के लिए अमित शाह लोगों से नीतीश कुमार की सरकार बनवाने की अपील करते रहे, लेकिन अब कहने लगे हैं कि बिहार में जंगलराज से मुक्ति केलिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनवाइये.

फिर दावा ठोक देते हैं. कहते हैं, बिहार सरकार का चुनाव तो 2025 में आएगा मगर 2024 में ट्रेलर आ जाएगा... लोकसभा का चुनाव आएगा... आपको तय करना है कि देश का प्रधानमंत्री मोदी जी बनेंगे या राहुल बाबा बनेंगे?

और एक फिर मोदी स्टाइल में भीड़ से मुखातिब होते हैं. पूछते हैं - जंगलराज चाहिये क्या?

भीड़ एक बार फिर पहले की ही तरह शोर मचाती है, और जोर लगा कर कहती है - नहीं...

क्या नीतीश बड़ी चुनौती बन चुके हैं

ऐसे में जबकि नीतीश कुमार के उत्तर प्रदेश के फूलपुर से लोक सभा चुनाव लड़ने की चर्चा जोरों पर है. ममता बनर्जी अपनी तरफ से नीतीश कुमार के प्रति समर्थन जता चुके हैं. नीतीश कुमार दिल्ली में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल सहित 10 नेताओं से मिल चुके हैं - और कई नेताओं से फोन पर संपर्क किया है - अमित शाह के पास नीतीश कुमार पर हमले का कोई बड़ा आधार नहीं मिल रहा है.

अमित शाह की एक मजबूरी ये भी है कि अगर बुनियादी चीजों पर सवाल उठाएंगे तो वो खुद भी लपेटे में आ जाएंगे - क्योंकि अभी तक तो गठबंधन की ही सरकार रही और बीजेपी का जिस तरह से दखल रहा, नीतीश कुमार से ज्यादा जिम्मेदार तो वो खुद ही माने जाएंगे.

ज्यादातर राज्यों में अमित शाह राजनीतिक विरोधियों को भ्रष्टाचार और परिवारवाद की राजनीति को लेकर टारगेट करते हैं, लेकिन मुश्किल ये है कि नीतीश कुमार पर न तो वो भ्रष्टाचार का इल्जाम लगा सकते हैं और न ही परिवारवाद की राजनीति का.

ऐसे में अमित शाह ले देकर बड़े ही कमजोर आरोप लगा पा रहे हैं - नीतीश कुमार के पास कोई विचारधारा नहीं है - और एक ऐसा आरोप भी जिससे नीतीश कुमार की सेहत पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता, वो ये कि नीतीश कुमार धोखेबाज हैं. अपनी बाद का वजन बढ़ाने के लिए अमित शाह जो उदाहरण दे रहे हैं, वो भी बेदम है. आखिर अमित शाह के नीतीश कुमार को धोखेबाज बतार कर लालू यादव को सतर्क करने का क्या मतलब है?

नीतीश कुमार को कमजोर साबित करने के लिए लालू यादव के बहाने ही अमित शाह कहते हैं कि जल्दी ही वो कांग्रेस की गोद में जाकर बैठ जाएंगे - और नीतीश कुमार की तरफ से लोगों का ध्यान हट जाये इसीलिए राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी बताते हैं.

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अपने 31 मिनट के भाषण में अमित शाह 22 बार नीतीश कुमार और लालू यादव का नाम लेते हैं - और 10 बार से ज्यादा जंगलराज की याद दिलाते हैं. लेकिन लोगों को हैरानी तब होती है जब एक बार भी न तो वो तेजस्वी यादव का नाम लेते हैं - और न ही मुस्लिम शब्द उनके जबान पर आता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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