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राष्ट्रपति चुनाव के लिए बीजेपी को कैसे उम्मीदवार की तलाश होगी?
कोई शक शुबहे वाली बात नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव (President Election 2022) में सत्ताधारी बीजेपी एक ऐसे ही नेता को अपना उम्मीदवार (BJP Candidate) बनाएगी जो अगले आम चुनाव (General Election 2024) में बेहद उपयोगी साबित हो सके - कोई एक नाम समझ में न आये तो समझने के और भी तरीके हैं.
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राष्ट्रपति चुनाव (President Election 2022) में बीजेपी उम्मीदवार के नाम को लेकर तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं, लेकिन नाम में क्या रखा है? जो भी बीजेपी की चुनावी राजनीति के लिए फायदेमंद होगा राष्ट्रपति बन कर रहेगा.
जैसे विपक्ष की तरफ से फारूक अब्दुल्ला और गोपाल कृष्ण गांधी का नाम चर्चा में है, बीजेपी के संभावित उम्मीदवारों की भी एक लंबी फेहरिस्त मीडिया की कई रिपोर्ट में देखी जा सकती है - और यही वजह लगती कि बीजेपी की तरफ से ऐसी कोशिशें चल रही हैं कि कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री अमित शाह के मन की बात न समझ सके. मतलब, सरप्राइज एलिमेंट किसी भी तरीके से हल्का न पड़ सके.
लिहाजा नाम पर फोकस होने की जगह अगर ये समझने की कोशिश की जाये कि बीजेपी के लिए योग्य उम्मीदवार (BJP Candidate) कौन हो सकता है? ज्यादा अच्छा रहेगा. ये तो साफ है कि वो कोई भी हो बीजेपी की अपेक्षा के हिसाब से उसे कुछ खास पैमानों पर खरा उतरना ही होगा. छवि की भी कोई चिंता नहीं है, छवि तो कभी भी किसी की भी गढ़ी जा सकती है. ऐसा करने के लिए राजनीति में राहुल गांधी होना भी जरूरी नहीं है.
और सबसे बड़ा पैमाना तो 2024 के आम चुनाव (General Election 2024) के हिसाब से सुटेबल साबित होने की है - क्योंकि उसके पहले के चुनावों में तो बीजेपी के लिए जीत की राह ज्यादा मुश्किल नहीं ही लगती. कम से कम अभी का माहौल देख कर तो ऐसा ही लगता है.
ये तो आप जानते ही हैं कि मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का नाम भी 2019 के आम चुनाव को ही ध्यान में रख कर फाइनल किया गया था - और देश की राजनीति के हिसाब से सबसे अहम यूपी चुनाव 2022 में, प्रकारांतर से ही सही, बीजेपी को फायदा तो मिला ही है.
कांग्रेस का हाल तो जग जाहिर है ही, अरविंद केजरीवाल और के. चंद्रशेखर राव जैसे नेता जरूर जगह जगह घूम कर बीजेपी को चैलेंज करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वो मुकाम हासिल करने से पहले ऐसे नेताओं को पहले अपनी मजबूत जगह बनानी होगी. ये जगह भी यूं ही मजबूत नहीं हो सकती, उसके लिए वहां जमे जमाये राजनीतिक दलों को पहले रिप्लेस करने की कोशिश करनी होगी - और कुल मिलाकर ये किसी शॉर्ट कट तरीके से मुमकिन हो सके, ऐसा भी नहीं है.
लेकिन ऐसा एक उम्मीदवार चुनना भी कोई आसान काम नहीं है - आइये ये समझने की कोशिश करते हैं कि बीजेपी को 2022 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए कैसे उम्मीदवार की तलाश हो सकती है?
BJP की राष्ट्रपति चुनाव की मैनेजमेंट टीम: अपने उम्मीदवार नाम पर तो बीजेपी सस्पेंस कायम रखने में अभी तक सफल रही है, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के प्रबंधन के लिए 14 सदस्यों वाली एक टीम जरूर बना दी है - और मैनेजमेंट टीम के संयोजक बनाये गये हैं केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत.
मैनेजमेंट टीम में सरकार और संगठन दोनों ही जगहों से बीजेपी नेताओं को शामिल किया गया है. बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े और सीटी रवि को मैनेजमेंट टीम का सह-संयोजक बनाया गया है. साथ ही, राष्ट्रीय महासचिव तरुण चुग, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डीके अरुणा, राष्ट्रीय सचिव ऋतुराज सिन्हा, महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष वनति श्रीनिवासन और राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा को भी मैनेजमेंट टीम में शामिल किया गया है.
केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी, अश्विनी वैष्णव, सर्बानंद सोनोवाल, अर्जुन राम मेघवाल और डॉक्टर भारती पवार के साथ साथ असम बीजेपी के उपाध्यक्ष और सांसद डॉक्टर राजदीप रॉय को भी बीजेपी की मैनेजमेंट टीम में जगह दी गयी है.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की तरफ से विपक्षी नेताओं से संपर्क कर उनकी मंशा जानने और आम राय बनाने का प्रयास शुरू कर दिया है. राजनाथ सिंह के अब तक कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव से संपर्क किये जाने की खबर आ चुकी है.
अगर चयन का आधार समुदाय विशेष हो
जैसे राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार के लिए पहली शर्त होती है कि वो भारत का नागरिक हो, बिलकुल वैसे बीजेपी उम्मीदवार के लिए ये जरूरी शर्त तो होगी ही कि उसकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कि पृष्ठभूमि रही हो. अभी तो यही स्थिति है कि देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर संघ बैकग्राउंड के नेता ही काबिज हैं.
मोदी-शाह राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए का उम्मीदवार भी 2024 के आम चुनाव के हिसाब से ही ठोक बजाकर तय करेंगे
संघ की पृष्ठभूमि की शर्त पहले बीजेपी शासित राज्यों में मुख्यमंत्रियों के लिए भी हुआ करती थी, लेकिन पहले असम में हिमंत बिस्वा सरमा और बाद में त्रिपुरा में माणिक साहा के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद ये धारणा भी खत्म हो चुकी है - हालांकि, ये मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में फिट किये जाने की बात है. नहीं तो एपीजे अब्दुल कलाम तो एनडीए की वाजपेयी सरकार में ही राष्ट्रपति बने थे. वैसे वाजपेयी और मोदी की राजनीति में बहुत बड़ा फासला दर्ज किया जा चुका है.
बीजेपी के राष्ट्रपति पद उम्मीदवार बनने के लिए एक शर्त ये भी रहेगी कि ऐसा नेता हो जिसे इग्नोर करना विपक्षी दलों के लिए मुश्किल हो जाये. ज्यादा कुछ संभव न हो पाये तो कम से कम विपक्षी खेमे में पहले की तरह फूट तो पड़ ही जाये.
फिर से कोविंद ही क्यों नहीं हो सकते: एक नाम जिसकी बीजेपी उम्मीदवारों संभावित सूची में सबसे कम चर्चा है, वो तो मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ही हैं - अगर राष्ट्रपति कोविंद को ही फिर से एनडीए का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाये तो सरप्राइज एलिमेंट भी बना ही रहेगा.
वैसे केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और बीएसपी नेता मायावती से लेकर बहुतेरे नाम संभावित उम्मीदवारों की सूची में पहले से ही जोड़े जा चुके हैं - कर्नाटक के राज्यपाल थावर चंद गहलोत, तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन और पूर्व लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन भी चर्चाओं का हिस्सा बने हुए हैं.
कोई आदिवासी उम्मीदवार भी तो हो सकता है: हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने आदिवासी समुदाय से आने वाले बीजेपी नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के साथ मीटिंग की है - आने वाले चुनावों के अलावा ये बैठक राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की सक्रियता से अपनेआप जुड़ जाती है.
साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं जहां आदिवासी समुदाय बड़ा वोट बैंक है - और फिर अगले साल के अंत में भी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल आबादी के वोट की बीजेपी को जरूरत पड़ने वाली है.
जैसे पिछली बार बीजेपी को दलित वोट की जरूरत रही, इस बार आदिवासी समुदाय को रिझाने की कोशिश हो सकती है. कम्युनिटी को साधने के साथ साथ बीजेपी ऐसा करके क्षेत्रीय राजनीति को भी साधने की कोशिश कर सकती है.
बीजेपी के पसंदीदा संभावित उम्मीदवारों में भी कई नामों का जिक्र चल रहा है. संभावित आदिवासी उम्मीदवारों की सूची में सबसे ऊपर चल रहा नाम द्रौपदी मुर्मू का है. द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं. द्रौपदी मुर्मू के अलावा छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके - और ओडिशा के सांसद जुआल ओराम भी इस सूची में शामिल किये जा रहे हैं.
नुपुर शर्मा विवाद का भी तो कोई रोल होगा: बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर आरिफ मोहम्मद खां का नाम तो राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होने के साथ ही ट्रेंड करने लगा था - लेकिन अब वो ऐसे अकेले उम्मीदवार नहीं रह गये हैं.
ये ठीक है कि वाजपेयी-आडवाणी की भाजपा और मोदी-शाह की बीजेपी में बहुत बड़ा फर्क है, लेकिन मुख्तार अब्बास नकवी की मजबूत उम्मीदवारी से भी इनकार नहीं किया जा सकता. हाल फिलहाल की कुछ घटनाओं की क्रोनोलॉजी को समझें तो एक इशारा तो समझा ही जा सकता है. मुख्तार अब्बास नकवी को न तो फिर से राज्य सभा भेजा गया है, न ही रामपुर उपचुनाव में उनको उम्मीदवार बनाया गया है - और अगला आम चुनाव तो अभी काफी दूर है. कुल जमा छह महीने तक ही वो मंत्री भी बने रह सकते हैं.
मुख्तार अब्बास नकवी भी बीजेपी के पसंदीदा मुस्लिम नेताओं की कैटेगरी में पूरी तरह फिट होते हैं. वो शिया मुस्लिम हैं जिनसे बीजेपी को परहेज कम ही रहता है - और नकवी की पत्नी भी हिंदू हैं.
अगर आधार क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरण हो
समुदायों तक पहुंचने के प्रयास के साथ साथ अगर बीजेपी नेतृत्व की कोशिश क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरण को साधने की होती है तो चयन प्रक्रिया का दायरा अलग हो सकता है. बीस साल पहले जब एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनाया गया उनके मुस्लिम और मिसाइल मैन होने के अलावा क्षेत्रीयता के मुद्दे का भी असर देखा गया. तमिलनाडु से होने के कारण AIADMK और DMK में से कोई भी विरोध नहीं कर सका था. विरोध के नाम पर तब लेफ्ट को ही देखा गया, जिसने स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मी सहगल को कलाम के खिलाफ मैदान में उतार दिया था.
आदिवासी होने के नाते अगर बीजेपी द्रौपती मुर्मु को एनडीए का उम्मीदवार बनाती है तो उसमें क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरण भी अपनेआप शामिल हो जाएंगे. आदिवासी समुदाय से आने वाली द्रौपदी मुर्मु का जन्म ओडिशा में हुआ है, ऐसे में नवीन पटनाय की बीजेडी को इधर उधर जाने की जरूरत महसूस नहीं होगी. वैसे भी नवीन पटनायक ने विपक्ष की बैठक से दूरी बनाकर ये तो साफ कर ही दिया है कि पहले की ही तरह आगे भी वो बीजेपी के साथ ही खड़े मिलेंगे. बीजेडी की तरफ से बताया भी गया है कि वोट देने का फैसला वो बीजेपी के उम्मीदवार की घोषणा के बाद ही करेगी.
तमिल, बंगाली या ऐसा कोई और: उत्तर और दक्षिण भारत के अलावा क्षेत्रीय राजनीति का एक आधार भाषायी भी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि तमिल भाषा संस्कृत से भी पुरानी है - और हिंदी को लेकर अमित शाह के बयान पर जो प्रतिक्रिया हुई है, उसे फीडबैक समझ कर भी बीजेपी आगे बढ़ने का फैसला कर सकती है.
उत्तर भारत में तो बीजेपी ने 2024 के आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए जरूरी इंतजाम कर ही लिये हैं, लेकिन दक्षिण के बंदोबस्त अभी नाकाफी हैं. बीजेपी अगर दक्षिण भारत से किसी नेता को राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनाती है तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं के लिए विरोध करना मुश्किल हो सकता है.
ठीक वैसे ही अगर एनडीए उम्मीदवार तमिलनाडु से होता है तो डीएमके के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी. अभी तक तो मुख्यमंत्री एमके स्टालिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते देखे जाते हैं, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में किसी तमिल उम्मीदवार के विरोध के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकते.
ये ठीक है कि पश्चिम बंगाल से प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बन चुके हैं, लेकिन वैसा ही प्रयोग दोहराया भी तो जा सकता है. बीजेपी तो वैसे भी दूरगामी सोच के साथ चलती है. अगर बंगाल से कोई एनडीए का राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनता है तो सोचिये मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का क्या हाल होगा?
बीजेपी 2021 में बंगाल हार जरूर गयी, लेकिन जैसे 2014 की अमेठी की हार का बदला 2019 में ले लिया, पश्चिम बंगाल को लेकर भी 2026 की ऐसी ही तैयारी कर रही होगी - और बंगाल से किसी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद तो ममता बनर्जी को पीछे हटना ही होगा. ऐसा होने पर आगे तो बीजेपी के विरोध को लेकर ममता बनर्जी को सवालों के जवाब देने ही होंगे.
विपक्ष को बिखरा हुआ बनाये रखने के लिए जरूरी है कि बीजेपी कांग्रेस नेतृत्व यानी राहुल गांधी और ममता बनर्जी के सामने राजनीतिक पेंच फंसाये रखे. ऐसे में जबकि शरद पवार से लेकर प्रशांत किशोर तक कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता की कल्पना के लिए तैयार न हो रहे हों - विपक्ष के खिलाफ तो ऐसा प्रयोग बीजेपी का ब्रह्मास्त्र ही साबित होगा.
हां, अगर बहुत पापड़ बेलने के बाद भी कोई कसर बाकी रह जाती है तो बीजेपी कुछ ही दिन बाद वो सब उपराष्ट्रपति चुनाव में पूरी कर सकती है. है कि नहीं?
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