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Updated: 12 जून, 2022 03:06 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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देश में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल बनते ही सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी खेमे में उम्मीदवारों को लेकर माथापच्ची शुरू हो चुकी है. विपक्ष इस बार बीजेपी की मोदी सरकार को कड़ी चुनौती देने की तैयारी में जुटा है, तो बीजेपी सिर्फ अपने नंबर दुरूस्त करने में लगी है. वैसे भी एक बार नंबर दुरूस्त हो जायें, फिर कोई फिक्र वाली बात तो बचती भी नहीं है.

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान (Arif Mohammad Khan) का नाम अचानक सुर्खियों में आ गया है. कयास लगाये जा रहे हैं कि आरिफ मोहम्मद खान को भी बीजेपी एपीजे अब्दुल कलाम (APJ Abdul Kalam) की तरह एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बना सकती है.

एपीजे अब्दुल कलाम को अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) के प्रधानमंत्री रहते राष्ट्रपति क्यों बनाया गया था, सभी जानते हैं - और उसी तर्ज पर आरिफ मोहम्मद खान के नाम पर चर्चा होने लगी है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को ऐसी कोई जरूरत महसूस होती होगी?

आरिफ मोहम्मद खान की चर्चा क्यों: क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होते ही ट्विटर पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खां का नाम ट्रेंड करने लगा था. ऐसे ट्वीट और रीट्वीट करने वालों का ये मानना रहा होगा कि बीजेपी नेतृत्व आरिफ मोहम्मद खान को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना सकती है.

ऐसा इसलिए क्योंकि एनडीए की तरफ से आरिफ मोहम्मद खान के उम्मीदवार होने की सूरत में विपक्षी दलों की तरफ से कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा. देखा जाये तो निर्विरोध तो एपीजे अब्दुल कलाम भी राष्ट्रपति नहीं बन सके थे. लेफ्ट पार्टियों की तरफ से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद फौज की लक्ष्मी सहगल को उम्मीदवार बनाया गया था. बाकी किसी ने कलाम का विरोध नहीं किया था.

कहा तो ये जाता है कि कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का आइडिया समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने ही दिया था, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी को भी पसंद आया और वो मान गये. कलाम राष्ट्रपति बन गये.

एनडीए में कुछ गठबंधन साथियों की आपत्ति की वजह से तब बीजेपी को अयोध्या मसले पर चुप रह जाना पड़ा था. चुप क्या कहें, पीछे ही हटना पड़ता था और बीजेपी कभी अयोध्या आंदोलन को चुनावी घोषणा पत्र या किसी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम जैसी सूची में शुमार नहीं कर पाती थी.

ये अटल बिहारी वाजपेयी ही रहे जिनका मानना था कि राजधर्म का पालन तो हर हाल में होना ही चाहिये - और ये बात भी वाजपेयी ने मोदी को लेकर ही कही थी, जब गुजरात दंगों को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री की भूमिका पर सवाल उठाये जा रहे थे.

तब से लंबा वक्त गुजर चुका है. राजनीति का मिजाज भी पूरी तरह बदल चुका है. ऐसे आरोपों से बाइज्जत बरी होने के बाद मोदी की छवि बेदाग भी जल्दी ही हो गयी - और अभी तो वो देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. ऐसा नेता जो प्रधानमंत्री पद को लेकर होने वाले हर सर्वे में अपने सारे राजनीतिक विरोधियों से मीलों आगे पाया जाता हो.

सबसे बड़ी वजह भी यही है कि बीजेपी नेतृत्व को अपनी सर्वमान्य छवि बनाने की जरूरत कतई नहीं है. कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को वाजपेयी बनने की कोशिश जरूर रही होगी, लेकिन चुनावी राजनीति में जीत के पैमाने पर मोदी ने वाजपेयी को पीछे छोड़ दिया है - लिहाजा मोदी को वाजपेयी की तरह अपनी छवि की फिक्र करने की कतई जरूरत नहीं है.

मोदी जो हैं, मौजूदा दौर में बहुमत के वोटर को बिलकुल वैसे ही पसंद हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो सोनिया गांधी गुजरात दंगों को लेकर 'मौत का सौदागर' बार बार दोहरातीं, लेकिन गुजरात चुनावों के बाद वो ऐसे जोखिम कभी नहीं उठा सकीं. बहुत जरूरी होता है तो प्यार और नफरत का फर्क समझा कर पल्ला ही झाड़ लेती हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अभी जो इमेज है, उससे इतर न संघ न बीजेपी और न खुद मोदी को ही कोई सर्वमान्य छवि की दरकार महसूस होती होगी - क्योंकि ये बात भी वो अच्छी तरह जानते हैं कि 'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी' - मोदी को भी आडवाणी बनते देर नहीं लगेगी.

मुसलमान बीजेपी के साथ अब भी नहीं है

गुजरे जमाने में बीजेपी को सियासी सजावट के लिए कुछ मुस्लिम नेताओं की सख्त जरूरत हुआ करती थी - क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कट्टर हिंदुत्व के प्रभाव वाली आइडियोलॉजी को कंधे पर लेकर समान सोच वाले राजनीतिक दलों के साथ मिलजुल कर आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता रहा, लेकिन अब रेस में बीजेपी सरपट इतना आगे निकल चुकी है कि ऐसे सारे मिथक पीछे छूट चुके हैं.

arif mohd khan, narendra modi, apj abdul kalamमोदी-शाह की बीजेपी वाजपेयी-आडवाणी की पार्टी से काफी आगे निकल चुकी है - और स्वर्णिम काल के लिए जरूरी होने के सिवा कोई भी काम अलग हटकर नहीं करने वाली है

सत्ता की राजनीति के हिसाब से अब तक बीजेपी के दो दौर देखे जा चुके हैं. और ये दोनों ही दौर ऐसे हैं जिनमें तुलना की जाये तो हर तरह से बड़े फासले नजर आते हैं - एक वाजपेयी का दौर और दूसरा मोदी का मौजूदा दौर.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने के मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी की जरूरत अब बीजेपी में पूरी तरह खत्म हो चुकी है. कभी आरिफ बेग, सिकंदर बख्त, नजमा हेपतुल्ला और सैयद शाहनवाज हुसैन जैसे नेताओं की खासी अहमियत हुई करती थी. बाद में ऐसे नेताओं की फेहरिस्त में एमजे अकबर और जफर इस्लाम का नाम भी शामिल हो गया - लेकिन वाजपेयी काल के नकवी और शाहनवाज की बीजेपी को राष्ट्रीय राजनीति में जरूरत खत्म हो गयी लगती है. कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में लाने का थोड़ा सा क्रेडिट जफर इस्लाम को भी मिलता है. काफी है. मिशन पूरा हो गया तो आगे भी वैसे ही ढोते रहने से क्या फायदा.

सैयद शाहनवाज हुसैन को तो जैसे तैसे जम्मू-कश्मीर में हुए डीडीसी चुनाव में बेहद उम्दा प्रदर्शन के इनाम के तौर पर बिहार भेज दिया गया है. वाजपेयी काल के कैबिनेट मंत्री शाहनवाज हुसैन को बिहार में नीतीश कुमार को रिपोर्ट करना पड़ रहा है. हो सकता है 4 जुलाई को मुख्तार अब्बास नकवी का राज्य सभा कार्यकाल खत्म होने के बाद, या छह महीने के ग्रेस पीरियड के खत्म होने के बाद, मार्गदर्शक मंडल भेज दिया जाये - आखिर वहां तो बैलेंस की जरूरत हो ही सकती है.

मोदी के सामने वाजपेयी जैसी चुनौती नहीं है: वो दौर बहुत पीछे छूट चुका है जब अटल बिहारी वाजपेयी को गठबंधन साथियों के दबाव में अयोध्या मसले पर निजी विचारधारा तक समेट लेना पड़ता था - और तो नरेंद्र मोदी अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का पूरा श्रेय हासिल कर चुके हैं.

वाजपेयी को गठबंधन की सरकार चलाने की मुश्किलों से कदम कदम पर जूझना पड़ता रहा - और कहां अपने दम पर बीजेपी को बहुमत दिला कर मोदी एक झटके में संसद में प्रस्ताव लाकर जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म कर देते हैं. जनता का दबाव राजनीतिक साथियों से अलग होता है. तभी तो कृषि कानूनों को लेकर मोदी अकाली दल जैसे गठबंधन साथी के चले जाने की परवाह नहीं करते, लेकिन किसान आंदोलन के दबाव में तीनों कानून ये कहते हुए वापस ले लेते कि तपस्या में कोई कमी रह गयी होगी.

ये ठीक है कि पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी हार जाती है, लेकिन यूपी चुनाव में कोरोना काल की बदइंतजामियों, लखीमपुर खीरी हिंसा और सभी सत्ता विरोधी लहर को पीछे छोड़ते हुए बड़े आराम से सत्ता में वापसी कर लेती है - और ये सिर्फ यूपी में ही नहीं पांच में से चार राज्यों में हो जाता है.

और ये सब डंके की चोट पर होता है. श्मशान और कब्रिस्तान का फर्क समझाकर होता है. एक राजनीतिक विरोधी नेता के पिता का 'अब्बाजान' बोल कर मजाक उड़ाने भर से हो जाता है. बुलडोजर के जरिये गर्मी शांत करने के वादे के साथ होता है.

लोगों में ऐसी धारणा बना दी जाती है कि बीजेपी जो भी कर रही है, सही कर रही है. देश के लिए कर रही है. ठीक है नोटबंदी से परेशानी होती है, लेकिन समझा दिया जाता है कि देश के लिए थोड़ा कष्ट तो उठाया जा सकता है, लेकिन बाद में कोई नामलेवा भी नहीं मिलता जो बताये कि कष्ट उठाकर जान तक गंवा देने से देश को क्या मिला.

देश की इतनी फिक्र होने लगती है कि न तो महंगाई की चिंता रहती है, न बेरोजगारी या धंधे की - सबसे ऊपर देश. सबसे ऊपर देश तो सबसे अच्छी बात है, लेकिन सबसे ऊपर कोई पार्टी क्यों?

नुपुर शर्मा कांड के बाद उद्धव ठाकरे से लेकर ममता बनर्जी तक, सभी का सवाल यही है - बीजेपी के एक प्रवक्ता की गलती के लिए दुनिया से देश को माफी मांगने की जरूरत क्यों होनी चाहिये?

मुश्किल ये है कि ऐसी चीजों के विरोध का एक तरीका बेअसर है, और दूसरा गैरकानूनी है. बीच का कोई रास्ता नहीं है. लोकतांत्रिक विरोध की आवाज का हाल नक्कारखाने में तूती का हो जा रहा है - और कोई कानून हाथ में लेगा तो लॉ एंड ऑर्डर कायम रखने के तौर तरीकों का इस्तेमाल तो होगा ही - ऐसे तरीकों में अगर पुलिस एनकाउंटर से भी किसी को कोई दिक्कत नहीं है तो बुलडोजर से क्या फर्क पड़ता है?

नुकसान हुआ तो हुआ, आगे फायदा ही फायदा है: नुपुर शर्मा केस में डैमेज कंट्रोल हो चुका है. पहले जरूर कतर में भारतीय राजदूत को नुपुर शर्मा को फ्रिंज एलिमेंट बताना पड़ा था, लेकिन फिर केंद्र सरकार रणनीति बदली और सबको साफ कर दिया कि बीजेपी का प्रवक्ता सरकार की राय जाहिर नहीं करता. किसी की निजी राय का सरकार सपोर्ट नहीं करती.

और असर देखिये कि ईरान को अपना ट्वीट तक डिलीट करना पड़ता है. पहले ईरान का कहना था कि एनएसए अजीत डोभाल ने पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी करने वालों से सख्ती से निबटा जाएगा, लेकिन बाद में ट्वीट हटाने के साथ वो पीछे हट चुके हैं.

नुपुर शर्मा को सस्पेंड जरूर किया गया है, लेकिन साध्वी प्रज्ञा ही नहीं केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी ने भी सार्वजनिक बयान दे दिया है कि पार्टी किसी कार्यकर्ता को यूं ही छोड़ नहीं देती. बीजेपी कार्यकर्ता और समर्थक भी तो सोशल मीडिया पर नुपुर शर्मा के सपोर्ट में खड़े हो ही गये हैं.

रही बात जुमे के नमाज के बाद हुई हिंसा की तो पुलिस ही निबट लेगी - और बुलडोजर तो है ना. वैसे भी बुलडोजर दायरा सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित तो है नहीं. केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय अलर्ट रहने को कह ही चुका है - और हर पत्थरबाज के घर बुलडोजर पहुंचने ही वाला है. सरकारी मैसेज तो ऐसा ही है.

जो नुकसान हुआ वो तो हो ही गया, लेकिन आगे की राजनीति के हिसाब से देखें तो बीजेपी को चुनावों में फायदा मिलने की पूरी संभावना है. वैसे ही जैसे जिन्ना विमर्श का अक्सर फायदा मिलता है. अब चाहे गुजरात का चुनाव हो, हिमाचल प्रदेश का चुनाव हो या फिर कर्नाटक का - श्मशान और कब्रिस्तान वाली ताजा बहस अंजाम तक पहुंच चुकी है, ऐसा अब समझ ही लेना चाहिये.

ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, यूपी चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि मुस्लिम वोटर किसके साथ खड़ा रहा. मतलब, बीजेपी के साथ तो नहीं ही रहा - और तब भी बीजेपी ने आसानी से बहुमत हासिल कर लिया. आजमगढ़ और रामपुर लोक सभा उपचुनाव के नतीजे बहुत अलग होंगे, ऐसा भी नहीं लगता.

सवाल ये है कि जब मुस्लिम वोटर बीजेपी से अब भी स्पष्ट दूरी बना कर चल रहा है, तो बीजेपी को क्या पड़ी है - यूपी में भी नतीजे पश्चिम बंगाल जैसे होते तो हो सकता है बीजेपी एक बार पीछे मुड़ कर सोचती भी.

आरिफ मास्टरस्ट्रोक हो सकते हैं

बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन आरिफ मोहम्मद खान को राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की तरफ से उम्मीदवार बनाने के अपने फायदे हैं. बल्कि, आरिफ मोहम्मद खान बीजेपी की तरफ से मास्टरस्ट्रोक भी हो सकते हैं.

पहले तो ओबीसी भी बीजेपी को वोट नहीं देता था. पहले तो दलित भी बीजेपी को वोट नहीं देता था. पहले तो बीजेपी ब्राह्मण-बनिया की पार्टी कही जाती रही - लेकिन अब ऐसा रह गया है क्या?

ओबीसी में यादव को छोड़ कर सारे वोटर बीजेपी के पक्ष में हो चुके हैं. दलितों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया होता तो क्या मायावती की बीएसपी यूपी चुनाव में महज एक सीट ही जीत पाती? सवर्णों की मजबूरी है, बीजेपी भी उसका पूरा फायदा उठा रही है.

तब बीजेपी को किसी स्लोगन की जरूरत नहीं रहेगी: फर्ज कीजिये किसी दिन मुस्लिम समुदाय ने बीजेपी परहेज करना बंद कर दिया. तीन तलाक कानून को लेकर मुस्लिम महिलाएं बीजेपी के पक्ष में खड़ी हो गयीं - तो बीजेपी का कैसा रिएक्शन होगा?

बेशक मौजूदा माहौल में ऐसी बातें कोरी कल्पना करार दी जायें, लेकिन कभी ऐसा हुआ तो - क्या बीजेपी का कोई प्रवक्ता मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ऐसी बातें करने की हिम्मत जुटा पाएगा?

वोट का लालच हर चीज पर भारी पड़ता है. ये मुस्लिम वोट ही तो है जिसके एकजुट पड़ जाने के डर से अमित शाह को बीजेपी की प्रासंगिकता को भरे चुनावी माहौल में प्रमोट करना पड़ा. वरना, वही अमित शाह बार बार मायावती से पूछा करते थे कि बहन मायावती घर से निकलती क्यों नहीं?

जैसे देश में जातीय जनगणना के विरोध में खड़ी बीजेपी बिहार में सपोर्ट करने को मजबूर हुई है, भूल कर भी श्मशान और कब्रिस्तान की बहस में नहीं पड़ने वाली है. संघ और बीजेपी ने जो नैरेटिव सेट किया है, उसमें राहुल गांधी को भी जनेऊ धारण कर तिलक लगाना पड़ रहा है. अरविंद केजरीवाल तो जय श्रीराम के नारे ही लगाने लगे हैं - और मंच पर मायावती त्रिशूल लेकर खड़ी होती हैं तो बगल में शंखध्वनि होने लगती है.

खुदा न खास्ता, अगर ऐसा कभी वास्तव में मुमकिन हुआ तो बीजेपी को किसी स्लोगन की जरूरत नहीं रह जाएगी - सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास.

आरिफ और कलाम का फर्क भी समझ लीजिये: ये आरिफ मोहम्मद खां ही हैं जो शाहबानो केस में संविधान संशोधन का विरोध किये थे - और विरोध भी कोई ऐसा वैसा नहीं सीधे इस्तीफा दे दिया था, ये कहते हुए कि 'आप कठमुल्लों को संरक्षण दे रहे हैं - बीजेपी को यही लाइन तो सूट करती है.' ये तब की बात है जब भारी बहुमत से चुनाव जीत कर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे.

अगर मुस्लिम समाज के खिलाफ आज के दौर में कोई डंके की चोट पर बोल सकता है तो वो आरिफ मोहम्मद खां ही हैं - और ऐसा नहीं है कि ये सब वो इसलिए करते हैं क्योंकि संघ और बीजेपी को ये सब पसंद है. वो तो ये सब तब से बोल रहे हैं जब संघ और बीजेपी के बोलने का कोई ज्यादा मतलब भी नहीं हुआ करता था.

आरिफ मोहम्मद खां तभी से अपने स्टैंड पर कायम हैं - और कालांतर में ये बीजेपी के एजेंडे को सूट करने लगा. पूरा न सही सेलेक्टिव तौर पर ही सही, लेकिन ज्यादातर बीजेपी के लिए फायदे की ही बातें होती हैं.

संघ और बीजेपी के एजेंडे के हिसाब से एपीजे अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान का केस कॉमन लगता जरूर है, लेकिन दोनों में बहुतेरे फर्क हैं. कलाम की लाइफस्टाइल संघ और बीजेपी को सूट करते थे - गीता पढ़ना, सरस्वती की पूजा करना और वीणा वादन.

दोनों में बड़ा फर्क ये है कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम कभी आरिफ मोहम्मद खान की तरफ मुखर नहीं थे. जो आरिफ मोहम्मद खान बोलते हैं, कलाम वो सब नहीं कभी नहीं बोले थे - और आरिफ मोहम्मद खान आम-अवाम से लेकर इंटेलेक्चुअल क्लास तक हर किसी को संबोधित करते हैं.

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मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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