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Updated: 28 मई, 2021 09:04 PM
सर्वेश त्रिपाठी
सर्वेश त्रिपाठी
  @advsarveshtripathi
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आज प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी, विचारक और लेखक विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन है. स्वतंत्रता उपरांत लोकतांत्रिक दलीय राजनीति में वोट बैंक और ध्रवीकरण की राजनीति के चलते स्वतंत्रता पूर्व जो कुछ भी साझा था उसका वैचारिक आधार पर विभाजन करने की प्रवृत्ति रही. देश के भौतिक विभाजन ने दिलों में जो खाई खींची उसे ऐसे विचारों ने और गहरा ही किया. इन्हीं कारणों से वर्तमान राजनीति में अपने सत्ता लाभ और हितों के लिए 'नेहरू तुम्हारे पटेल हमारे टाइप' के बहस और विवाद को विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा समय समय पर छेड़ा जाता है. सरसरी तौर पर भारत जैसे देश में मैट्रिक स्तर भारत के इतिहास का परिचयात्मक ज्ञान दे दिया जाता है. उसके ऊपर विद्यार्थी के रुचि होने पर ही विषय को पढ़ने की व्यवस्था है. सही मायनों में मैट्रिक स्तर पर बच्चों में न तो तथ्यों के विश्लेषण की क्षमता का जन्म होता है न ही इसके वस्तुनिष्ठ स्वरूप को समझने का ज्ञान होता है. यह एक बहुत बड़ा कारण है जो अतीत के सटीक मूल्यांकन की हमारी क्षमता को प्रभावित करता है. आज के सूचना विस्फोट के युग में यह प्रवृत्ति निरंतर घातक बनती जा रही है जब सोशल मीडिया पर बिना किसी प्रामाणिक स्रोत के कुछ भी लिखकर उसे एक बड़े जनसमूह तक सर्कुलेट करना आसान है. सावरकर के बारे में जो कुछ भी लिखा या पढ़ा जा रहा है उसने उनकी एक ऐसी मिश्रित छवि गढ़ दी है जो नई पीढ़ी को सच को जानने और समझने की दृष्टि देने के बजाय और दिग्भ्रमित ही कर रही है.

Veer Savarkar, Hindutva, Birthday, Liberty, Movement, Britisher, Hindu, Rashtriya Shwayamsevak Sanghसावरकर की छवि छवि बिगाड़ने के लिए जो कुप्रचार किया गया है, उसने युवाओं को दिग्भ्रमित किया है.

विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था. बचपन से ही पढ़ाकू स्वभाव के सावरकर ने कुछ कविताएं भी लिखी. देशभक्ति और क्रांतिकारी विचारधारा के प्रति झुकाव के कारण इस अवधि में विनायक सावरकर ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया. जो कि तत्समय महाराष्ट्र में नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के उत्थान में सहायक सिद्ध हुआ.1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बीए किया.

1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की. 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे. बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली. सन् 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस( लन्दन) में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई.

इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया. बाद में इन्होंने इसे पुस्तक का रूप दिया जिसका नाम 'द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस: 1857' था. इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया. मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली.

लंदन में भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा का इंडिया हाउस मुख्य केंद्र था .सावरकर ने लन्दन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहना शुरू कर दिया था. इण्डिया हाउस को उस समय श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे. सावरकर ने 'फ़्री इण्डिया सोसायटी' का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतन्त्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे. उन्होंने 1857 की क्रान्ति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजों को जड़ से उखाड़ा जा सकता है.

लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे. 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था. 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहूंचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 1910 को पानी के जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर बीच रास्ते ये फरार हो गए. बाद में इन्हें दो बार आजीवन कारावास की सजा हुई. जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी.

पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में सावरकर नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया जहां सावरकर लगभग 10 साल बिताए. 1921 में दया याचिकाओं के कारण मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर से तीन वर्ष जेल की सजा भोगी. जेल में ही उन्होंने हिन्दुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा. इस बीच 1925 में उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई.

1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए सम्मेलन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया. सावरकर ने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों का विरोध किया. सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था. 15 अगस्त 1947 को उन्होंने भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये. इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि 'मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है किंतु खण्डित है, इसका दु:ख है.

राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होती'. गांधीजी के हत्या में सावरकर के सहयोगी होने का आरोप लगा जो सिद्ध नहीं हो सका. 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे. 8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डीलिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया. 26 फरवरी 1966 को बंबई में इनका निधन हो गया.

जिस बात के लिए सावरकर की सबसे ज्यादा आलोचना होती है वह है उनकी राष्ट्रवादी दृष्टि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केंद्रित थी. सावरकर अपने ग्रन्थ 'हिन्दुत्व' में वह लिखते है कि. 'कोई भी व्यक्ति बगैर वेद में विश्वास किए भी सच्चा हिन्दू हो सकता है. उनके अनुसार केवल जातीय सम्बन्ध या पहचान हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं कर सकता है बल्कि किसी भी राष्ट्र की पहचान के तीन आधार होते हैं – भौगोलिक एकता, जातीय गुण और साझा संस्कृति.'

सावरकर पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि हिंदुत्व संबंधी उनके विचार फासीवाद के निकट प्रतीत होते है और सांप्रदायिक राजनीति के अनुकूल भी. लेकिन आज के ग्लोबल विश्व में जब राष्ट्रवाद के पुराने मानक कमजोर हो रहे हो तो इन विचारों की क्या प्रासंगिकता है यह समय स्वयं तय कर देगा. फ़िलहाल सावरकर को वर्तमान में भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के महानायक का दर्जा प्राप्त है, उन्हें देवतुल्य माना जाता है.

एक क्रांतिकारी से ज्यादा हिंदुत्व पर उनके विचारों के लिए उन्हें जाना जाता है. यही कारण है कि वामपंथी विचारकों द्वारा सावरकर के सम्पूर्ण कृतित्व को आलोचना के घेरे में लिया जाता है. यह विडंबना ही है कि हमारी पीढ़ी में सावरकर ही नहीं गांधी और नेहरू के प्रति ऐसी छवियां बनाई गई जिसमें तमाम विरोधाभास को तरजीह दी गई. शायद राजनीति इन्हीं विरोधाभास की फसल भी काट रही है.

तथ्यों का क्या है उसे किसी भी तरह प्रस्तुत किया जा सकता है. महत्वपूर्ण वह दृष्टि है जो उन तथ्यों पर निर्णयात्मक छवियां गढ़ती है. यहीं पर किसी भी इतिहासकार के लिए एक बड़ी चुनौती और गंभीर जिम्मेदारी होती है कि वह तथ्यों की वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता को कायम रखे. हर पीढ़ी को सच जानने और समझने का पूरा हक़ है बशर्ते उस पर कोई मुलम्मा न चढ़ा हो.

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लेखक

सर्वेश त्रिपाठी सर्वेश त्रिपाठी @advsarveshtripathi

लेखक वकील हैं जिन्हें सामाजिक/ राजनीतिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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