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Updated: 13 अप्रिल, 2017 07:12 PM
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अंत भला तो सब भला- तीन उपचुनाव हारने के बाद आखिरकार आखिरी उपचुनाव वसुंधरा जीत ही गईं. जीत भी ऐसी धमाकेदार कि कांग्रेस को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है. धौलपुर सीट बीजेपी 38000 से ज्यादा वोटों से जीती है जबकि कभी कांग्रेस दस हजार वोटों से यहां नहीं हारी थी. राजस्थान में अगले साल आम चुनाव है और कहा जा रहा है कि महारानी अब विजय रथ पर बैठ गईं हैं. ऐसा लग रहा है कि बीजेपी की जीत और कांग्रेस की हार के कारणों की चर्चा अब बेमानी हो गया है. राजस्थान के धौलपुर विधानसभा चुनाव में बीजेपी की धमाकेदार जीत ने ये साबित कर दिया है कि बीजेपी हारी हुई बाजी जीतनेवाली पार्टी बन गई है जबकि कांग्रेस में इतनी ताकत भी नहीं बची कि वो कांग्रेस को वोट देने के लिए तैयार बैठी जनता को बूथ तक ला सके.

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महज डेढ़ साल हुए इसी धौलपुर में जहां बीजेपी का जश्न मन रहा है वहां कांग्रेस ने स्थानीय निकायों के पंचायतों और शहरी निकायों के चुनाव में बीजेपी का सूपड़ा ही साफ कर दिया था. तब धौलपुर की महारानी वसुंधरा राजे ने अपने ही घर में मिली करारी शिकस्त को चुनौती के रुप में लिया और डेढ़ साल में अपनी एक पर एक कूटनीतिक चालों की वजह से कांग्रेस को हाशिए पर ला दिया. दरअसल ये चुनाव बीजेपी के उम्मीद्वार शोभा रानी कुशवाहा और कांग्रेस के उम्मीद्वार बनवारी लाल शर्मा के बीच कभी रहा हीं नही. ये चुनाव मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच रहा. बीजेपी के पास कोई उम्मीदवार नहीं था और न ही बड़े कुशवाहा वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत थी. इसलिए चुनाव के घोषणा के दिन जेल गए बीएसपी के पूर्व विधायक बीएल कुशवाहा की पत्नी को बीजेपी में शामिल कर टिकट दे दिया. जबकि कांग्रेस में कौन माथा लगाता, लिहाजा सात बार से चुनाव लड़ रहे उसी पुराने बुजुर्ग बनवारी लाल शर्मा को टिकट थामा दिया. वसुंधरा ने धौलपुर के लिए विकास योजनाओं का पिटारा खोल दिया तो सचिन पायलट ज्यादा समय शिकायत लेकर चुनाव आयोग जाने के बहाने दिल्ली में हीं वक्त जाया करते रहे.

राजस्थान के धौलपुर चुनाव राजस्थान के राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. गली-मुहल्ले में चलते-फिरते मजदूर से लेकर सचिवालय में बैठे आईएएस अधिकारी तक सुबह-शाम यही सवाल पूछते थे कि मैडम( वसुंधरा राजे) दिल्ली जा रहीं हैं क्या? मैडम बदल रही हैं क्या? मोदी और अमीत शाह मैडम को पसंद नही करते हैं. ज्यादा लोग जवाब में यही कहते थे कि धौलपुर हार गईं तो वसुंधरा का मुख्यमंत्री पद से हटना तय है. लेकिन इस भारी-भरकम जीत के साथ वसुंधरा राजे ने सभी आलोचकों को करारा जवाब दिया है. यहां वसुंधरा नई उर्जा के साथ नई शुरुआत कर इस बढ़त को और आगे ले जा सकती हैं.

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दूसरी तरफ सचिन पायलट को लेकर कहा जा रहा था कि कांग्रेस जीती तो सचिन पायलट को फ्री हैंड मिलेगा और बाकि सभी धड़े साइड लाइन कर दिए जाएंगे. लेकिन कांग्रेस के इतिहास में धौलपुर में इतनी करारी हार कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. अब सचिन पायलट के लिए अशोक गहलोत और सीपी जोशी को नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होगा. अशोक गहलोत का धड़ा तो अशोक गहलोत को अमरिंदर सिंह की तरह पार्टा को अपने हाथ में लेने की बात कहता है और सचिन पायलट को पंजाब के प्रताप सिंह बाजवा करार देकर हटाने की मांग कर रहा है.

दरअसल पिछले तीन उपचुनाव और महरानी वसुंधरा का घर धौलपुर और चुनावी क्षेत्र झालावाड़ तक में पिछले स्थानीय चुनाव में कांग्रेस ने अच्छी जीत दर्ज की थी. जिसकी वजह से कांग्रेस को उत्तर भारत में उम्मीद की एक मात्र किरण राजस्थान दिख रहा था और वो जीत के लिए भूखी दिख रही वसुंधरा के आगे टूटता दिख रहा है. वसुंधरा के धूर आलोचक भी मानते हैं कि महरानी में एक करिश्मा है और जनता में महरानी का जादू बरकरार है. दूसरी तरफ दिल्ली में बैठे राहुल गांधी को लेकर तो कांग्रेस कार्यकर्ता इस कदर उब गए हैं कि कहने लगे हैं कि कांग्रेस का मिखाईल गोर्वाच्योव हैं राहुल गांधी. यूएसएसआर का विघटन जिस तरह से मिखाईल गोर्वाच्योव ने किया था उसी तरह से राहुल गांधी कांग्रेस का विघटन करके मानेंगे.

जहां तक कांग्रेस और बीजेपी की पार्टी के तौर पर बात की जाए तो ये चुनाव कांग्रेस और बीजेपी के चुनाव लड़ने की अपनी-अपनी संस्कृति का भी रहा जिसे चुनावी पंडित इलेक्शन स्ट्रेटजी कहते हैं. दोनों ही दलों के लिए इलेक्शन स्ट्रेटजी का अर्थ अब संकुचित हो गया है. चुनाव लड़ने के तरीके दोनों के ही अलग-अलग व्यापक संस्कारों का हिस्सा बन गए हैं. बीजेपी को हर हाल में जीत चाहिए, जीत के लिए माध्यम गौंण हो गया है. नेता से लेकर कार्यकर्ता तक में जीत की एक भूख दिख रही है. कांग्रेस के लिए चुनाव का मतलब जनता घर से निकले, जिता दे तो ठीक, नहीं जीते तो कोई बात नहीं. घिसे पीटे नेताओं का समूह तो है मगर उर्जावान कार्यकर्ता कहीं जमीन पर नहीं दिखते हैं.

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दरअसल, एक राजनीतिक पार्टी के विकास के लिए तीन चीजें अहम होती हैं. एक नेता जिसके पास क्षमता हो कि अपने नेतृत्व से अपने कार्यकर्ताओं की फौज तैयार करे और जनमानस को उत्साहित करे. दूसरी विचारधारा जिसके लिए समर्पित कार्यकर्ता हों और जनता में अपनी बात प्रभावी ढंग से कह पाएं. और तीसरा है लाभ. किसी कार्यकरता या नेता को लाभ दिख रहा हो या फिर कोई लोभ का संवरण हो. बीजेपी में ये तीनों दिख रहे हैं. जबकि कांग्रेस के पास जनता के बीच जाने के लिए न तो कोई नेता है और न हीं कोई विचारधारा. रही बात, लाभ या लोभ की तो वो कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बीजेपी दे रही है और कांग्रेसियों को समर्पण निहित स्वार्थ की वजह से बीजेपी को मिल रहा है.

धौलपुर में कमोबेश यही हाल था. शुरुआत पहले दिन से ढिली रही. नेता से उम्मीदवार तक नामंकन के लिए बैठे थे क्योंकि फाइनल मुहर लगाने वाले राहुल गांधी उम्मीदवार का नाम बताए बिना ही बीमार सोनिया गांधी को देखने विदेश चले गए थे और उनसे नेताओं का संपर्क हो नहीं पा रहा था. इसके अलावा ऐसी भी अफवाह रही जिसका कांग्रेस ने कभी खंडन नहीं किया कि धौलपुर जिले के वरिष्ठ कांग्रेस विधायक जो सबसे ज्यादा वरिष्ठ होने के बावजूद नेता विपक्ष नहीं बन पाए वो अपनी नाराजगी बीजेपी के लिए फोन पर ही वोट मांग कर निकाल रहे थे. कांग्रेस के महासचिव सीपी जोशी राज्य के मजबूत ब्राह्म्ण नेता माने जाते हैं लेकिन धौलपुर से खुद को दूर ही रखा. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की गैरमौजूदगी जब चुनावी मुद्दा बनने लगा तो वो धौलपुर गए मगर रस्मअदायगी निभाकर जयपुर लौट आए.

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जिम्मेदार केवल यही नहीं थे बल्कि सचिन पायलट को लग रहा था कि जीत श्रेय खुद ही लें. सचिन पायलट को धौलपुर में कांग्रेस के इतिहास और वसुंधरा के प्रति लोगों में नाराजगी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था. इसके ठीक उलट वसुंधरा राजे ने चुनाव की तैयारी पहले दिन से ही शुरु कर दी. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी और कम से कम पांच कैबिनेट मंत्री हर वक्त धौलपुर में मौजूद रहे. आखिरी दिनों में तो पंद्रह मंत्री गली-गली घूमकर वोट मांग रहे थे. खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे दस दिन पहले जाकर धौलपुर बैठ गईं और वहां से चुनाव परिणाम आने तक हिली नहीं. वसुंधरा के चुनाव जीतने की भूख इस कदर रही कि चुनाव प्रचार के आखिरी दिन भी धौलपुर से हटी नहीं. चुनाव आयोग को कह दिया कि पैर में चोट लग गई है. चुनाव आयोग ने डाक्टर भेजा तो कहलवा दिया कि दर्द की गोली लेकर सो गई हैं. अगले दिन मेडिकल बोर्ड बना और उसने कहा कि मैडम तीन दिन तक हिल-डुल नहीं सकतीं इसलिए धौलपुर में ही आराम करने दिया जाए. वहीं सचिन पायलट पहले से ही दिल्ली का टिकट कटाकर रखे थे, जैसे ही चुनाव प्रचार खत्म हुआ, पार्टी का पूरा भार उम्मीदवारों पर छोड़कर दिल्ली रवाना हो गए.

जीत का तो सिर्फ जश्न होता है और हारे को हरिनाम. वसुंधरा इस जीत में लगे धब्बों के ढंकने के लिए विकास का पैबंद चस्पा कर रही हैं, तो सचिन पायलट का सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का अरणयरोदन शुरु हो गया है.

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