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Updated: 12 जनवरी, 2021 01:26 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) की छवि भी बीजेपी नेतृत्व की नजर में वैसी ही बन चुकी है, जैसी सुशील कुमार मोदी के बारे में उनके डिप्टी सीएम रहते बनी हुई थी. सुशील मोदी को तो बीजेपी नेतृत्व बिहार की पॉवर गैलरी से कुछ हद तक दूर करने में कामयाबी हासिल कर ली, लेकिन वसुंधरा राजे अब तक छकाती ही रही हैं.

जैसे सुशील मोदी को बीजेपी नेतृत्व पार्टी से ज्यादा नीतीश कुमार के करीब पा रहा था, वसुंधरा राजे के बारे में भी करीब करीब ऐसी धारणा बन चुकी है कि वो फिलहाल बीजेपी के हितों से कहीं ज्यादा अशोक गहलोत के फायदे की बातें सोचती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अगले चुनाव के बाद अशोक गहलोत भी वसुंधरा राजे के साथ वैसा ही व्यवहार करें.

एनडीए छोड़ने से पहले तो RLP नेता और नागौर से सांसद हनुमान बेनीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से वसुंधरा राजे और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नार्को टेस्ट कराने की मांग कर डाली थी - ये आरोप लगाते हुए कि पिछले 22 साल से ये दोनों आपसी गठजोड़ कर एक दूसरे के भ्रष्टाचार पर परदा डालते हैं - और जनता त्रस्त हो चुकी है.

हनुमान बेनीवाल ने सचिन पायलट विवाद के दौरान भी वसुंधरा राजे पर अशोक गहलोत की मदद करने का आरोप लगाया था. हनुमान बेनिवाल का कहना रहा कि वसुंधरा राजे धौलपुर में रहते हुए भी अपने समर्थक विधायकों को फोन करके कांग्रेस मुख्यमंत्री की मदद करने को कहती हैं. हालांकि, राजस्थान बीजेपी के नेताओं के मना करने के बाद वो खामोश हो गये थे.

राजस्थान में 2023 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं - और जिस तरीके से बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) राजस्थान को लेकर एक्टिव हुए हैं, वसुंधरा राजे को अपने भविष्य की फिक्र स्वाभाविक है, लेकिन जिस तरीके से वसुंधरा राजे भी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) से मिलता जुलता, लेकिन सार्वजनिक रूप से बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन कर रही हैं, राजस्थान बीजेपी के अंदरूनी हालात काफी मुश्किल लग रहे हैं.

वसुंधरा सपोर्ट ग्रुप कितना असरदार होगा?

राजस्थान में चुनाव होने में करीब तीन साल का समय बचा है. चुनाव 2023 के आखिर में होने हैं. समझा जाता है कि वसुंधरा राजे राजस्थान की परंपरा के मुताबिक अगले चुनाव के बाद अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं - और यही वजह है कि मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे ने अशोक गहलोत सरकार को गिराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी है.

वसुंधरा का जयपुर में रुटीन की सत्ता के गलियारों में हो रही राजनीतिक गतिविधियों में भी दिलचस्पी नहीं रहती और यही वजह है कि वो अपने धौलपुर में ही खुशी खुशी वक्त काटने को तरजीह देती हैं. सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच हुए विवाद के समय भी काफी बाद में उनको एक्टिव देखा गया था, जब कांग्रेस सरकार ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के खिलाफ केस दर्ज करा दिया गया. बाद में तो खैर केस ही बंद हो गया. तब वसुंधरा राजे सीधे दिल्ली पहुंची थीं और जेपी नड्डा के साथ साथ राजनाथ सिंह और बीजेपी संगठन के कुछ नेताओं से मुलाकात कीं. 14 अगस्त को राजस्थान विधानसभा में अशोक गहलोत के विश्वास मत हासिल करने के साथ ही वसुंधरा राजे फिर से पुराने अंदाज में राजनीति करने लगीं - और उनका राजनीति दायरा ट्विटर पॉलिटिक्स तक फिर से सिमट गया.

राजस्थान में हुए पंचायत चुनावों के बाद से बीजेपी नेतृत्व फिर से सक्रिय हुआ है - और मान कर चलना चाहिये कि विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले सभी स्थानीय चुनाव में पार्टी की गहरी दिलचस्पी होगी ही. हैदराबाद से लेकर जम्मू-कश्मीर तक बीजेपी नेतृत्व की सक्रियता तो यही कहानी कहती है.

vasundhara raje, jp naddaवसुंधरा राजे जेपी नड्डा से निपट लेंगी या BJP में निपटा दी जाएंगी?

राजस्थान की राजनीति में वसु्ंधरा राजे को लेकर ताजा चर्चा बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के फरमान के बाद शुरू हुई है. दरअसल, जेपी नड्डा ने राजस्थान बीजेपी के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को दिल्ली तलब किया है - और अगर कोई छूटा है तो वो हैं सिर्फ वसुंधरा राजे.

वसुंधरा राजे को लेकर माना जाने लगा है कि बीजेपी नेतृत्व मन ही मन सख्त फैसले का संकेत देने लगा है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथा वसुंधरा राजे का टकराव तो पुरानी रवायत है ही, जेपी नड्डा के कमान संभालने के बाद वो नये सिरे से और नये रूप में सामने आता नजर आ रहा है. ऐसे में वसुंधरा राजे के समर्थक भी मानने लगे हैं कि पार्टी पर उनके नेता की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है, लिहाजा वे भी अपने तरीके से सक्रिय हो चुके हैं.

वसुंधरा राजे समर्थक राजस्थान मंच बनाये जाने की पीछे सिर्फ और सिर्फ यही वजह लगती है. ये संगठन हाल फिलहाल काफी एक्टिव हो चुका है - मुख्यधारा की राजनीति में भी और सोशल मीडिया पर भी.

वसुंधरा राजे को मजबूत करने के लिए सपोर्ट ग्रुप के जिला स्तर पर पदाधिकारियों की नियुक्ति भी हो रही है. साथ ही साथ, युवा संगठन और महिला विंग खड़ा किये जाने को लेकर अलग से काम चल रहा है.

सपोर्ट ग्रुप के प्रदेश अध्यक्ष विजय भारद्वाज इस बात से इंकार कर रहे हैं कि ये बीजेपी के खिलाफ है. हां, ये जरूर मानते हैं कि ये सूबे की सियासत में वसुंधरा राजे को मजबूत करने की कवायद है. राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष सतीश पूनिया ये तो मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में नीचे से ऊपर तक सभी को वसुंधरा समर्थक मंच के बारे में मालूम है, लेकिन वो इसे महत्व नहीं देना चाहते. सतीश पूनिया का कहना है कि मंच से जुड़े लोग बीजेपी के सक्रिय सदस्य नहीं हैं, मतलब, कोई ये न समझे कि बीजेपी में दो फाड़ हो चुका है.

सतीश पूनिया भले ही खारिज करने की कोशिश करें, लेकिन वसुंधरा का सपोर्ट ग्रुप अभी अभी एक्टिव नहीं हुआ है. चुनावों में हार के बाद से जैसे ही वसुंधरा राजे ने महसूस किया कि सब कुछ दिल्ली से ही तय होने वाला है, अपने आदमियों को हरी झंडी दिखा दी थी. लोक सभा चुनाव में बीजेपी नेतृत्व ने वसुंधरा राजे के साथ बिलकुल वैसा ही सलूक किया जैसा वो छह महीने पहले ही विधानसभा चुनावों में उनके साथ कर चुकी थीं.

टीम वसुंधरा के नाम से राजस्थान के काफी जिलों के फेसबुक पेज और अलग अलग तरह के ग्रुप भी बने हुए हैं जहां वसुंधरा के पक्ष में मुहिम चलायी जा रही है. ये आज भले लग रहा है कि वसुंधरा राजे के समर्थन में नया मंच बन गया है, लेकिन सोशल मीडिया के जरिये लोगों को वसुंधरा राजे के समर्थन में काफी पहले से ही जोड़ने की कोशिश चल रही है.

अभी ये कहना तो मुश्किल होगा कि वसुंधरा राजे और बीजेपी नेतृत्व में कौन भारी पड़ने जा रहा है, लेकिन अगर वसुंधरा राजे को आडवाणी बनाने की किसी रणनीति पर दिल्ली में काम चल रहा है तो जरूरी नहीं कि वो हकीकत में बदल भी पाये.

बीजेपी नेतृत्व भी इस बात से वाकिफ है कि राजस्थान में बीजेपी के 72 विधायकों में से कम से कम 45 पर वसुंधरा राजे का पूरा प्रभाव है. राजस्थान में कोई भी नया कदम आगे बढ़ाने से बीजेपी नेतृत्व के अब तक संकोच करने की वजह भी यही है. वसुंधरा राजे समर्थकों के जरिये जो राजनीति अंगड़ाई दिखा रही हैं, ये संकेत देने की भी कोशिश है कि अगर कोई ऐसी वैसी साजिश हुई तो पार्टी तोड़ते उनको जरा भी देर नहीं लगेगी.

वसुंधरा राजे को अपने समर्थक विधायकों पर भरोसा तो है, लेकिन सत्ता की राजनीति में रिश्ते अक्सर पीछे छूट जाते हैं - और वैसी सूरत में शोर मचाने के लिए अलग से एक सपोर्ट ग्रुप की जरूरत पड़ सकती है. वसुंधरा समर्थन मंच का पहला मकसद यही है कि बीजेपी नेतृत्व के सामने सनद रहे और गाढ़े वक्त में जरूरत के काम आये.

दबाव की राजनीति कितना कारगर होगी?

बीजेपी में सबसे ज्यादा मनमानी करने वाला मौजूदा दौर में कोई नेता है तो सिर्फ एक ही नाम है - बीएस येदियुरप्पा. कर्नाटक के मुख्यमंत्री उस उम्र को भी पार कर चुके हैं जो केंद्र सरकार के मोदी कैबिनेट में मंत्री पद के लिए अयोग्य माना जाता है. अगर बहुत जरूरी हुआ तो राज्यपाल बनाये जाने की थोड़ी बहुत संभावना रहती है लेकिन वो भी एक टर्म से ज्यादा नहीं - मुख्यमंत्री बने रहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.

ऐसा भी नहीं कि येदियुरप्पा को किनारे लगाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है, लेकिन वो मजबूती से पांव जमाये हुए हैं और जैसे ही कोई विरोध की आवाज उठती है वो न्यूट्रलाइज करने में पूरी ताकत झोंक देते हैं. ये बात अलग है कि अपने मंत्रियों के नाम और विभाग तक के लिए येदियुरप्पा को दिल्ली का ही मुंह देखना पड़ता है.

वसुंधरा राजे की ताजा राजनीतिक अंगड़ाई की तुलना कुछ हद तक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की जा सकती है. जैसे वसुंधरा राजे के समर्थकों ने सपोर्ट ग्रुप बनाया है, करीब करीब वैसा ही प्रेशर ग्रुप योगी आदित्यनाथ ने भी मुख्यमंत्री बनने से पहले बना रखा था - हिंदू युवा वाहिनी. माना जाता है कि उस प्रेशर ग्रुप की बदौलत ही योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने में भी कामयाब हुए. वरना, मनोज सिन्हा का नाम फाइनल हो चुका था. मनोज सिन्हा फिलहाल जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं.

बीजेपी में तरक्की और सरवाइवल का डार्विन फॉर्मूला भी कोई गूढ़ रहस्य या जटिल प्रक्रिया वाला नहीं है. सरवाइवल की कुछ शर्तें हैं - मसलन, संघ में अच्छी घुसपैठ होनी चाहिये और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं अमित शाह के साथ भी मधुर संबंध होने चाहिये. वरना, संघ के दुलरुवा होने के बावजूद या तो कोई नितिन गडकरी हो सकता है या फिर मोदी फेवरेट होने के बावजूद अमित शाह की गुड बुक में नहीं है तो वो प्रेम कुमार धूमल या फिर आनंदी बेन पटेल हो जाता है.

शिवराज सिंह चौहान बीजेपी में राजनीतिक रिश्तों के कॉकटेल के बेहतरीन उदाहरण हैं. ये बात अलग है कि मध्य प्रदेश में वो दस्तखत करने वाले मुख्यमंत्री ही रह गये हैं. मंत्रिमंडल में ज्योतिरादित्य सिंधिया का दबदबा है, मंत्रियों के नाम और उनके विभागों पर मुहर भी दिल्ली में ही लगती है - और मुख्यमंत्री के पास भी अपनी पसंद के मंत्रियों का कोटा चार से ज्यादा नहीं है. खुद को मिलाकर ये संख्या वो पांच समझ कर खुश भले हो लें.

2019 के आम चुनाव से पहले मेनका गांधी भी वसुंधरा राजे की ही तरह तनाव के दौर से गुजर रही थीं. खबर थी कि टिकट तक के लाले पड़ गये थे. काफी कोशिशों के बाद बीजेपी नेतृत्व मां-बेटे में से किसी एक को ही टिकट देने को राजी हुआ था - आखिरकार, संघ में कनेक्शन की बदौलत सीट बदलने पर टिकट तो मिल गया, लेकिन एक चुनावी रैली में एक ही बयान इतना भारी पड़ा कि मोदी कैबिनेट में दोबारा जगह पाने को लेकर संघर्ष अब भी जारी है. वरुण गांधी के ये बयान देने का भी कोई फायदा नहीं हुआ कि 'प्रधानमंत्री तो मेरे परिवार से भी लोग हुए हैं लेकिन मोदी जैसा तो कोई नहीं हुआ!'

केरल में हाथियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को लेकर मेनका गांधी ने मीनाक्षी लेखी वाले अंदाज में ही राहुल गांधी को घेरा भी था, लेकिन अभी तक कहीं कोई उम्मीद की किरण नजर तो आयी नहीं - वैसे जब तक मंत्रिमंडल विस्तार नहीं हो जाता, उम्मीदें कायम रहनी चाहिये.

समय समय पर कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे बेहद लोकप्रिय नेताओं को भी अलग अलग वजहों से बीजेपी नेतृत्व कोपभाजन महंगा पड़ा है - देखते हैं वसुंधरा राजे कब तक टिक पाती हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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