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Updated: 03 जुलाई, 2022 05:14 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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महाराष्ट्र की राजनीति में महाविकास आघाड़ी सरकार के दौरान जिन तीन नेताओं ने अपनी अलग जगह बनायी थी, शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत भी उनमें से एक हैं. ऐसे ही एनसीपी प्रवक्ता नवाब मलिक को भी काफी मुखर देखा जाता रहा - और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले का तो कहना ही क्या! गठबंधन सरकार तो अभी अभी गिरी है, नाना पटोले तो काफी पहले से ही राहुल गांधी को समझा रहे थे कि ये सरकार गिरने के बाद होने वाले चुनाव में वो कांग्रेस की सरकार बना लेंगे. राहुल गांधी के नाना पटोले को पसंद करने की तमाम वजहों में से एक ये भी है.

संजय राउत को मनी लॉन्ड्रिंग केस में प्रवर्तन निदेशालय के सामने पेश होना था. हुए भी. करीब 10 घंटे की पूछताछ के बाद बाहर निकले तो एक नया रहस्योद्घाटन किया - संजय राउत के मुताबिक, उनको भी गुवाहाटी होटल का ऑफर मिला था.

संजय राउत कहते हैं, 'मेरे ऊपर भी प्रेशर है, लेकिन मैं डरता नहीं हूं... मुझे भी गुवाहाटी जाने का ऑफर मिला था, लेकिन मैं बालासाहेब ठाकरे (Bal Thackeray) का सैनिक हूं... मैं वहां नहीं गया. जब सच्चाई आपके पक्ष में है, तो डर क्यों है?'

हो सकता है, नयी व्यवस्था में संजय राउत कोई राजनीतिक समीकरण देख और महसूस कर रहे हों, लेकिन बहाने से वो ये भी बता रहे हैं कि गुवाहाटी न जाने के कारण ही उनको ईडी की पूछताछ का सामना करना पड़ा है - और समझने वाली बात ये है कि गुवाहाटी जाने वाले सभी ईडी के प्रेशर में ही हैं और डरे हुए हैं.

शिवसेना सांसद संजय राउत पर कई तरह की जिम्मेदारियां हैं. ईडी की पेशी जैसे निजी कामकाज और शिवसेना की बातें मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये लोगों के सामने रखने के अलावा संजय राउत को सामना भी निकालना होता है. सामना शिवसेना का मुखपत्र है. संजय राउत ही सामना की संपादकीय जिम्मेदारी संभालते हैं.

बीजेपी और फडणवीस को वाजपेयी के जरिये नसीहत: अपनी बात के बाद, सामना के जरिये संजय राउत ने उद्धव ठाकरे के दिन में दिये बयान को भी अपने तरीके से आगे बढ़ाया है. बीजेपी नेता अमित शाह और देवेंद्र फडणवीस को लेकर उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) के बयान को संजय राउत ने अपने तरीके से आगे बढ़ाया है - और बात को दमदार बनाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता के साथ पेश किया है.

सामना में याद दिलाने की कोशिश की गयी है कि बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस ने मन बड़ा करके मुख्यमंत्री पद के बजाय डिप्टी सीएम का पद स्वीकार किया है. आगे लिखा है, करार के अनुसार दिये गये वचन का पालन करने का 'बड़ा मन' बीजेपी ने ढाई साल पहले ही दिखाया होता तो बचाव के नाम पर 'बड़े मन' की ढाल सामने लाने की नौबत पार्टी पर नहीं आई होती. उद्धव ठाकरे का भी कहना था कि ढाई साल बाद आज मुख्यमंत्री बीजेपी का होता, न कि शिवसेना के एक बागी को आगे करने के लिए देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम की कुर्सी पर बैठने को मजबूर होना पड़ता.

बीजेपी को नसीहत देने के लिए वाजपेयी की एक कविता भी शेयर की गयी है, 'छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता...' पूरी कविता का प्रसंग अलग है, लेकिन यहां पर तो बस इतना ही प्रासंगिक है - और ये सच भी है कि जिन हालात में देवेंद्र फडणवीस सरकार में शामिल हुए हैं, बीजेपी के लिए मिशन पूरा करना आसान भी नहीं लगता.

उद्धव ठाकरे अपनी पूरी पारी खेल चुके हैं: ये भी मान कर चलना होगा कि उद्धव ठाकरे अब इतना ही कर सकते हैं - वो अपनी पारी पूरी तरह खेल चुके हैं और सेहत भी ऐसी दुरूस्त नहीं है कि आगे की लड़ाई धारा के खिलाफ चल कर लड़ सकें. वो भी एकनाथ शिंदे से इतना बड़ा झटका खाने के बाद. ताउम्र उद्धव ठाकरे पूर्व मुख्यमंत्री ही कहलाएंगे. ढाई साल की ही जिद थी, पूरी भी कर ली. सेहत भी तो साथ नहीं दे रही होगी. अपनी सफाई में उद्धव ठाकरे ने ऐसा संकेत भी दिया था. ये बताते हुए कि किन हालात में वो सरकारी कामकाज निबटाते रहे. 2012 में उद्धव ठाकरे का ऑपरेशन हुआ था और स्टेंट लगे थे - और कुछ ही दिन पहले उनके स्पाइन की सर्जरी भी हुई है. ऐसी हालत में बहुत सक्रिय होना काफी मुश्किल है.

लिहाजा अब सारा दारोमदार आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) पर आ चुका है. वैसे भी उद्धव ठाकरे के बराबर ढाई साल का प्रशासनिक अनुभव तो उनका भी माना ही जाएगा - और जिस तरीके से बातें निकल कर आ रही हैं सरकारी कामकाज में भी मौजूदगी भी आदित्य ठाकरे की मुख्यमंत्री से कम नहीं महसूस की जाती रही. भले ही उनकी मां रश्मि ठाकरे को अनऑफिशियल सीएम तक कहा जाता रहा हो. वैसे भी आखिरी दौर में बागी विधायकों को उनकी पत्नियों के जरिये मनाने की कोशिश तो रश्मि ठाकरे ने की ही थी.

aditya thackerayआदित्य ठाकरे को लोगों के बीच जाना ही होगा

कुल मिलाकर फाइनल टेक यही है कि शिवसेना के साथ अब जो कुछ भी हो सकता है या संभव है, आदित्य ठाकरे के हाथों में ही है. अब ये आदित्य ठाकरे पर भी निर्भर करता है कि अपने दादा बाल ठाकरे की विरासत को अपने पिता उद्धव ठाकरे से कितना आगे ले जाते हैं - आदित्य ठाकरे को ये तो मालूम होगा ही कि शिवसेना के लिए राहत और बचाव के काम में बहुत विकल्प बचे भी नहीं हैं.

1. चाहें तो शिंदे को ही नेता मान लें

उद्धव ठाकरे ने शिवसेना के सांसदों की 1 जुलाई की शाम को एक मीटिंग बुलाई थी. विधायकों की बगावत के बाद ये मीटिंग वैसे तो सांसदों का मन टटोलने के लिए बुलायी गयी लगती है, लेकिन इसके बाद एकनाथ शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे के बीच सुलह कराने की कोशिशें भी समझी जा रही हैं.

मीटिंग में शिवसेना के एक सीनियर नेता की तरफ से ऐसी सलाह की भी चर्चा है, लेकिन उस पर उद्धव ठाकरे का क्या रिएक्शन रहा ये नहीं साफ हो सका है. सुलह की पेशकश शिवसेना सांसदों के एक गुट की तरफ से ही हुई है.

aditya thackeray, uddhav thackeray, eknath shindeमौजूदा संकट से शिवसेना को उबारने के लिए एकनाथ शिंदे को नेता मान लेने में भी आदित्य ठाकरे का फायदा ही है

विधायकों की बगावत का सांसदों पर असर पड़ना तो स्वाभाविक भी है, खासकर तब जब एक सांसद श्रीकांत शिंदे मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के बेटे हों. मीटिंग से एक बात तो साफ हो गयी कि सांसदों पर उद्धव ठाकरे की पकड़ विधायकों के मुकाबले बेहतर है - क्योंकि मीटिंग में शिवसेना के तीन सासंदों में से सिर्फ तीन ही नहीं पहुंचे थे. ये बात अलग है कि बीजेपी दर्जन भर सांसदों के संपर्क में होने का दावा कर रही है.

शिवसेना के जो तीन सांसद उद्धव ठाकरे की बैठक से दूर रहे, उनमें श्रीकांत शिंदे के अलावा भावना गवली और राजन विचारे शामिल हैं. यवतमाल से पांचवीं बार सांसद बनीं भावना गवली को ईडी की रडार पर बताया जा रहा है. ठाणे से सांसद राजन विचारे आनंद दिखे को मानने वाले हैं, जाहिर है एकनाथ शिंदे की तरफ ही रहेंगे.

सुलह की बात वैसे भी बहुत बुरी नहीं है. जब देवेंद्र फडणवीस एकनाथ शिंदे के डिप्टी सीएम बन सकते हैं, तो उद्धव ठाकरे के लिए सुलह करना क्यों मुश्किल होगा - और अगर उद्धव ठाकरे ऐसा नहीं कर पाते तो आदित्य ठाकरे को ही समझायें कि बेटा जरा अंकल से बात करके तो देखो?

अगर सुलह में एकनाथ शिंदे की शर्त ये हो कि नेता तो वही रहेंगे, तो भी कोई बुराई नहीं है - 'सर्वनाशे, समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पंडितः'

आदित्य ठाकरे के पास पूरा मौका है, अधिकार भी है - और ये कर्तव्य भी बनता है कि चाहे जैसे भी मुमकिन हो शिवसेना को मौजूदा संकट से उबार कर आगे ले जायें, आगे बढ़ने पर नये रास्ते बी नजर आने लगते हैं. लेकिन ये सब तय तो आदित्य ठाकरे को ही करना होगा.

2. चाहें तो चाचा राज ठाकरे से हाथ मिलायें

ये तो हर कोई देख रहा है कि कैसे बीजेपी ने राज ठाकरे के कंधे पर हाथ रख कर आग भड़काया और काम हो गया तो हाथ पीछे भी खींच लिया. पूरे महाराष्ट्र से मस्जिदों को लाउडस्पीकर मुक्त करने की मुहिम का ऐलान करने के बाद राज ठाकरे अचानक खुद ही खामोश हो गये - यहां तक कि अयोध्या दौरा भी रद्द कर दिये, ये कह कर कि वो साजिशों के जाल में नहीं फंसने वाले.

वैसे भी जब बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को ही सेट कर लिया था तो राज ठाकरे या नवनीत राणा जैसे प्यादों का क्या बचा था? वैसे लाउडस्पीकर के बहाने बाल ठाकरे की याद दिलाकर राज ठाकरे ने काफी काम आसान तो कर ही दिया था. वैसे भी राज ठाकरे चाहे कितना भी उत्पात करते, शिवसेना को ऐसे तहस नहस तो नहीं ही कर पाते, जैसा एकनाथ शिंदे ने किया है.

देखा जाये तो राज ठाकरे अब तक सारे ऑप्शन आजमा चुके हैं. सबसे पहले तो राज ठाकरे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को ही बाल ठाकरे की राजनीति का उत्तराधिकारी साबित करने की कोशिश किये, लेकिन फेल हो गये. फिर चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मजाक उड़ाने वाले अंदाज में विरोध करने की भी कोशिश कर चुके हैं - और बीजेपी के साथ नये सिरे से गठबंधन का प्रयास भी बेकार ही हो चुका है.

शिवसेना में बगावत के बीच ही एकनाथ शिंदे और राज ठाकरे की बातचीत की भी चर्चा हुई थी - और मुख्यमंत्री बनने पर बधाई के साथ भरोसा और उम्मीदें भी जता रहे हैं. शिंदे के साथ साथ एक ट्वीट देवेंद्र फडणवीस के नाम भी किया है.

अगर आदित्य ठाकरे के मन में कोई संकोच न हो तो चाचा का मन टटोल सकते हैं. खीझ तो उद्धव से ही ज्यादा होगी, हो सकता है आदित्य ठाकरे बात करें तो राज ठाकरे की नाराजगी कम हो जाये. जैसे मुलायम सिंह यादव से लंबे अरसे तक खार खाये बैठी रहीं ममता बनर्जी अब अखिलेश यादव के साथ काफी मेलजोल बढ़ा चुकी हैं. ममता और अखिलेश में तो सिर्फ राजनीतिक संबंध हैं, आदित्य और राज का तो खून का भी रिश्ता है.

बीएमसी और दूसरे निगमों के चुनाव राज और आदित्य ठाकरे को मिल जुल कर आजमाने का एक बेहतरीन मौका है - बशर्ते, ये सब दोनों पक्षों को मंजूर हो.

3. चाहें तो गठबंधन की राजनीति के साथ आगे बढ़ें

आदित्य ठाकरे के सामने एक विकल्प ये भी है कि वो किसी राजनीतिक दल के साथ हाथ मिलायें या जरूरी लगे तो बची हुई शिवसेना के साथ शामिल भी हो सकते हैं - क्योंकि अभी तो आदित्य ठाकरे को काफी लंबी पारी खेलनी है.

ऑप्शन तो गठबंधन की राजनीति के लिए भी खुला ही है, महाविकास आघाड़ी को वैसे तो खत्म करने की घोषणा हुई नहीं है, जैसे 2019 के आम चुनाव के बाद मायावती ने एक दिन अचानक सपा-बसपा गठबंधन को लेकर ऐलान कर दिया था. अखिलेश यादव बस मुंह देखते रह गये थे.

मुश्किल ये है कि महाविकास आघाड़ी के पास भी बहुत कुछ नहीं है. संघर्ष वहां भी है. और संघर्ष के दौर में कांग्रेस और एनसीपी कैसे अपने को बचाये रखने की कोशिश करेंगे और क्या कुछ आदित्य ठाकरे के साथ शेयर करेंगे, सवाल ये भी है. अगर शेयर करने को तैयार भी हुए तो आदित्य ठाकरे की जो राजनीतिक हैसियत बची है, उसके हिसाब से मिलेगा क्या? अब तो आदित्य ठाकरे की राजनीतिक हैसियत भी शिवसेना के हिसाब से ही तय होगी.

4. और चाहें तो जीरो से शुरू करने का ऑप्शन भी है

आखिरी ऑप्शन भी तो होता ही है. अक्सर आखिरी ऑप्शन बेहतरीन भी साबित होता है - और आदित्य ठाकरे के मामले में आखिरी ऑप्शन यही है कि वो मैदान में खुद उतरें, लोगों से मिलें जुलें और नये सिरे से अपनी बात कहें.

aditya thackeray, uddhav thackeray, bal thackerayजैसे देश में फिलहाल ब्रांड मोदी है, महाराष्ट्र में बाल ठाकरे का नाम भी वैसा ही है

जो महत्व कांग्रेस के लिए गांधी परिवार रखता है, शिवसेना के लिए ठाकरे परिवार भी वैसा ही है. अगर एकनाथ शिंदे ने शिवसेना तोड़ी है, तो अलग अलग समय पर शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी तो ऐसा ही किया था, लेकिन कोई भी कांग्रेस का विकल्प तो नहीं ही बन सका.

कांग्रेस में अब तक बीजेपी को कोई एकनाथ शिंदे मिला नहीं, वरना राहुल गांधी के सामने भी आदित्य ठाकरे जैसी ही चुनौती होती. ऐसा तो नहीं कह सकते कि बीजेपी न कांग्रेस में शिंदे की तलाश न की हो, लेकिन किसी की ऐसी हैसियत भी तो नहीं कि वो कांग्रेस के सांसदों को लेकर अलग हो जाये - और हो भी जाये तो फायदा क्या मिलने वाला है, सब कुछ तो इस बात पर ही निर्भर करता है.

अरे आदित्य ठाकरे हर हाल में अरविंद केजरीवाल से तो बेहतर स्थिति में ही रहेंगे. जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की फौज हैं, पुराना संगठन है - और बाल ठाकरे जैसा हिंदुत्व की राजनीति का ब्रांड है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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