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Updated: 12 मई, 2016 11:26 AM
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संसद में जीरो ऑवर का वक्त था. कांग्रेस के ज्यादातर सांसद सदन के वेल में शोर मचा रहे थे - प्रधानमंत्री माफी मांगें. सोनिया गांधी अपनी सीट पर बैठे बैठे नजारा देख रही थीं - उनके अगल बगल मल्लिकार्जुन खड्गे और एम वीरप्पा मोइली भी बैठे हुए थे. कांग्रेस सांसद सोनिया गांधी पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी से नाराज थे. तभी चीफ व्हीप ज्योतिरादित्य सिंधिया दौड़े दौड़े सोनिया के पास पहुंचे और उत्तराखंड से मिली खुशखबरी सुनाई.

ये सुनते ही दीपेंदर हुड्डा ने घोषणा की - उत्तराखंड में लोकतंत्र की जीत गया. आवाज वेल तक भी पहुंची और स्लोगन बदल गया - लोकतंत्र की जीत हुई है.

जो पहली बार हुआ

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बुलाया गया उत्तराखंड विधानसभा का विशेष सत्र अपनेआप में ऐतिहासिक है. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार देखने को मिला जब फ्लोर टेस्ट के लिए दो घंटे के लिए स्पेशल सेशन बुलाया गया हो. सिर्फ उतनी देर के लिए राष्ट्रपति शासन हटाया गया हो - और फिर दो घंटे बाद फिर से उसे लागू कर दिया गया हो.

1. विधानसभा के 16 साल के इतिहास में पहली बार स्पीकर अपनी सरकारी गाड़ी परिसर में अंदर नहीं ले जा सके. ऐसे में उन्हें पैदल अंदर जाना पड़ा.

2. इतिहास में पहली बार स्पीकर को अपना मोबाइल तक विधानसभा के मेन गेट के बाहर छोड़ना पड़ा.

3. जब स्पीकर को छूट नहीं मिली तो विधायकों के साथ भी ऐसा ही होना था. पहली बार विधायकों को भी अपने मोबाइल फोन मेन गेट पर तैनात सुरक्षाकर्मियों के पास जमा करना पड़ा.

इन सबके बाद भी विधायकों को विधानसभा के भीतर मेटल डिटेक्टर से गुजरना पड़ा तब जाकर उन्हें एंट्री मिली.

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खबर तो सूत्रों के हवाले से पहले ही आ चुकी थी, मगर उस पर पक्की मुहर तब लगी जब सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफा खुला.

रावत को बीजेपी की सौगात

खुद बीजेपी के लिए उत्तराखंड मिशन भले ही बैकफायर हो गया हो, लेकिन उसने हरीश रावत के लिए सौगातों की भरमार लगा दी है. जिन नेताओं ने कांग्रेस से बगावत की वे सारे के सारे हरीश रावत के विरोधी थे. इधर बीजेपी ने हरीश रावत सरकार पर धावा बोला, उधर उन्हें हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा के समर्थकों से यूं ही निजात मिल गई.

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मुबारकां जी, मुबारकां... [फाइल फोटो]

2012 में ये हरीश रावत ही थे जिनकी अगुवाई में कांग्रेस सत्ता में पहुंची लेकिन जब कुर्सी की बारी आई तो ऐन वक्त पर बहुगुणा बाजी मार लिये. फिर आलाकमान को रावत को केंद्र में ऐडजस्ट करना पड़ा. अब हरीश रावत उत्तराखंड के सबसे बड़े और मजबूत नेता के रूप में उभरे हैं.

दाग धोने की बारी

बीजेपी की कारगुजारियों के कारण रावत को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इंसाफ जरूर दिला दी है - लेकिन स्टिंग के डंग से अभी उनका पीछा नहीं छूटा है. चर्चा है कि रावत सबसे पहले एक ऐसी कैबिनेट खड़ी करना चाहते हैं जिसमें सभी नेता अच्छी छवि वाले यानी बेदाग हों.

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उत्तराखंड केस के हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक के सफर के बीच जितनी देर के लिए रावत कुर्सी पर बैठे थे - ताबड़तोड़ फैसले लिये. ये सारी वेलफेयर स्कीम थीं.

अब जो संकेत मिल रहे हैं वो यही बता रहे हैं कि अभी ऐसे और फैसले लिये जा सकते हैं. इसका मकसद भी पूरी तरह साफ है - रावत ये पारी ज्यादा देर तक खेलना नहीं चाहते.

अभी डर, आगे जीत

रावत भले ही कह चुके हों कि जो बीत गया उसे भुला दिया जाए. केंद्र से भी उन्होंने म्युचुअल कोआपरेशन की भी उम्मीद जताई है. फिर भी कांग्रेस हलके में एक डर सताए जा रहा है.

उत्तराखंड में भी कहीं हिमाचल जैसा हाल न होने लगे. जैसे हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के घर सीबीआई की छापेमारी के लिए वो दिन चुना गया जिस दिन घर में शादी थी. विधायकों की खरीद फरोख्त वाले स्टिंग की जांच के बहाने केंद्र के इशारे पर रावत को परेशान किया जा सकता है, ऐसा कांग्रेस मान कर चल रही है.

तो ऐसे में हरीश रावत के पास उपाय क्या है?

जनता की अदालत

सुप्रीम कोर्ट से मिले इंसाफ को हरीश रावत फौरी राहत मान कर चल रहे हैं. अब अगर रोज रोज की मुश्किलों से निजात पानी है तो जनता की अदालत में जाना ही होगा. वैसे तो उत्तराखंड में यूपी और पंजाब के साथ ही एसेम्बली इलेक्शन होने हैं, लेकिन माना जा रहा है कि रावत खुद राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर सकते हैं - ताकि वक्त से पहले चुनाव का रास्ता साफ हो सके.

बिहार में तो बीजेपी ने सिर्फ दिल्ली दोहराया था. उत्तराखंड में तो बीजेपी नेताओं ने दिल्ली-बिहार डबल दोहरा लिया है. उत्तराखंड बीजेपी के नेताओं से बात करने पर पता चलता है कि ये सारे फैसले दिल्ली से किये गये. उन्हें बस फरमान सुना दिया गया - अगर उनसे पूछा गया होता तो शायद वो हरगिज ऐसी राय नहीं देते.

ये बीजेपी के लिए सिर्फ एक शिकस्त भर नहीं है - केंद्र में सत्ता संभालने के बाद ये बीजेपी की सबसे बुरी हार है. कुवैत पर बमबारी कर इराक के कब्जे के बाद कहते सुना गया था कि मुसीबत मोल लेने के मामले में सद्दाम हुसैन का कोई जोड़ नहीं. लगता है बीजेपी तो कहीं आगे है. मिसाल कम पड़ती हो तो संसद के हर सत्र से पहले बीजेपी की एक्टिविटी पर गौर फरमाएं - यकीन हो जाएगा.

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