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Updated: 21 अप्रिल, 2016 06:22 PM
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उत्तराखंड में इलेक्शन साल भर बाद होने हैं, लेकिन नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले से चुनाव नतीजों जैसा माहौल बन गया है. देहरादून में सुबह तक जहां स्यापा छाया हुआ था वहां सेलीब्रेशन हो रहा है - और जहां ताजपोशी की तैयारी चल रही थी वहां खामोशी छाई हुई है.

बीजेपी खेमे की सारी की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गई हैं - और कांग्रेस इंसाफ की जीत का जश्न मना रही है.

पासा पलट गया

बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय बीच में ही पश्चिम बंगाल चुनाव छोड़ कर दिल्ली पहुंच चुके थे. दिल्ली से सतपाल महाराज और भगत सिंह कोश्यारी को विधायकों (बीजेपी के अलावा कांग्रेस के बागी भी) का ख्याल रखने का फरमान तो पहले ही जारी हो चुका था. कांग्रेस के बागी विधायकों को अपने पक्ष में करने में सक्षम होने के नाते सतपाल महाराज मुख्यमंत्री पद की रेस में सबसे आगे माने जा रहे थे.

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कैलाश विजयवर्गीय ने साफ तौर पर कह दिया था, "हमारे पास उस वक्त भी बहुमत था और अब भी बहुमत है. अगर हमे मौका दिया जाए तो हम बहुमत साबित कर सकते हैं."

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तेरा ही सहारा था...

बहुमत साबित करने का मौका तो मिला लेकिन हरीश रावत को. हाई कोर्ट ने रावत को 29 अप्रैल को बहुमत साबित करने को कहा है.

'राष्ट्रपति राजा नहीं'

हाई कोर्ट ने एक दिन पहले सिर्फ तेवर दिखाया था - और फिर बाकायदा पहले से ऐलान करते हुए इंसाफ का हथौड़ा चलाया. कोर्ट ने ये भी कहा था कि किसी फैसले पर पहुंचने से पहले तक वो राज्य में राष्ट्रपति शासन के पक्ष में है. सुनवाई के दौरान जब केंद्र सरकार ने कहा कि कोर्ट राष्ट्रपति के फैसले में दखलअंदाजी नहीं कर सकता, तो कोर्ट ने साफ कर दिया कि राष्ट्रपति का आदेश राजा का फैसला नहीं है.

हाई कोर्ट की ये टिप्पणी ऐतिहासिक तो है ही, मौजूदा राजनीतिक हालात में ज्यादा सटीक है - "लोग गलत हो सकते हैं, चाहे राष्ट्रपति हों या जज. राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है." कोर्ट की ये टिप्पणी केंद्र सरकार की दलील पर थी. कोर्ट को बताया गया कि केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति की ओर से उत्तराखंड में धारा 356 लागू करने का फैसला अपने राजनीतिक विवेक के आधार पर लिया गया.

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राज्यपालों की ताजा भूमिका किसी मामले में कांग्रेसी सरकारों से अलग नहीं है - शायद यही सत्ता का दस्तूर है. रोमेश भंडारी, बूटा सिंह जैसे नाम तो इतिहास में अमर हो ही चुके हैं, केपी राजखोवा को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तो बिलकुल ताजा है. हाई कोर्ट ने भी उत्तराखंड के मामले में उसी बात को दोहराया, "कल अगर आप राष्ट्रपति शासन हटा देते हैं और किसी को सरकार बनाने के लिए बुला लेते हैं तो ये न्याय के साथ मजाक होगा."

संवैधानिक ढांचे में राष्ट्रपति का फैसला बहुमत की सरकार की सलाह पर दस्तखत से ज्यादा विरले ही होता है. कई बार ऐसी विशेष परिस्थितियां बनती हैं जब राष्ट्रपति को अपने विवेकाधिकार का वाकई इस्तेमाल करना होता है. ऐसी ही परिस्थिति 1984 में भी पैदा हुई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रपति को अपने विवेकाधिकार से ही सत्ताधारी पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलानी थी. पार्टी का वो नेता जिसके नेतृत्व में ज्यादातर सदस्यों की आस्था हो.

तब राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह थे. उनके सामने कई नाम होंगे. उनमें प्रणब मुखर्जी भी एक नाम जरूर होगा. लेकिन मुखर्जी उन क्राइटेरिया में फिट नहीं हो पाये जिनके आधार पर प्रधानमंत्री पद के लिए नेता का चयन होना था. इस बात का मुखर्जी को लंबे अरसे तक मलाल रहा होगा.

क्या राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का फैसला बिलकुल वाजिब और जायज था? नैनीताल हाई कोर्ट की ताजा टिप्पणी 84 की घटना से ऑटो-कनेक्ट हो जा रही है.

संवैधानिक पदों की अपनी गरिमा और मर्यादा होती है, लेकिन राष्ट्रपति भी तो हाड़ मांस का बना इंसान ही होता है. ज्ञानी जैल सिंह का फैसला सही था या गलत ये तभी सुना जा सकता है जब प्रणब मुखर्जी भी कभी 'मन की बात' करें.

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