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Updated: 02 दिसम्बर, 2017 04:01 PM
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योगी आदित्यनाथ बीजेपी की उम्मीदों पर खरे उतरे हैं. वो उम्मीदें जो बीजेपी ने योगी को कुर्सी पर बिठाते वक्त संजोयी होंगी. यूपी के निकाय चुनाव के नतीजों ने योगी के साथ साथ प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय को लेकर भी बीजेपी को फीडबैक दे दिया है कि केंद्रीय कैबिनेट से हटाकर उन्हें सूबे की कमान सौंपने का फैसला बिलकुल सही रहा.

अमेठी के नतीजों का हवाला देकर बीजेपी कांग्रेस की औकात बताने पर तुली हुई है, लेकिन वो भूल जा रही है मेरठ और अलीगढ़ के रिजल्ट में भी संदेश छिपे हुए हैं - और गोरखपुर में बीजेपी उम्मीदवार की हार में भी.

जीत तो ये वाकई योगी की ही है

निकाय चुनाव के नतीजों ने वास्तव में योगी आदित्यनाथ को यूपी में एक निर्विवाद नेता के रूप में पेश किया है. हाल के विधानसभा चुनाव तक बीजेपी यूपी में मुलायम सिंह यादव और मायावती की तरह किसी कद्दावर नेता के लिए परेशान थी. अब उसकी ये परेशानी आने वाले कुछ साल के लिए तो खत्म हो ही गयी है. यूपी में किसी कद्दावर नेता के अभाव में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही बीजेपी की चुनावी कमान भी संभालनी पड़ी. उसमें बिहार जैसा रिस्क था लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने हर बाजी पलट दी.

yogi adityanathबड़ी जीत योगी की है, बीजेपी की नहीं

यूपी बीजेपी में अभी तक सिर्फ कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह को जो कद रहा, योगी आदित्यनाथ ने भी अब वो रुतबा हासिल कर लिया है. 2019 में मोदी चाहें तो योगी के भरोसे यूपी और उत्तर भारत छोड़ सकते हैं. वैसे भी हाल के एक सर्वे में मोदी को दक्षिण भारतीय राज्यों में ज्यादा लोकप्रिय पाया गया था.

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से पहले योगी लंबे समय से सांसद जरूर थे लेकिन उन्हें कभी केंद्र में भी मंत्री नहीं बनाया गया था. नौसीखिए होने के कारण ही उन्हें प्रशासनिक सहयोग के लिए दो-दो डिप्टी सीएम की जरूरत पड़ी. निकाय चुनावों को ध्यान में रख कर ही योगी अयोध्या में दिवाली मनायी और अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी अयोध्या से ही की. औरों का विश्लेषण जो भी हो, कम से कम योगी और बीजेपी ये तो मान कर चल ही सकते हैं कि लोगों ने उन्हें चुनावी राजनीति में अयोध्या एक्सपेरिमेंट को हरी झंडी दिखा दी है.

निकाय चुनाव के नतीजों से ये भी साफ है कि लोगों ने योगी के शासन पर उठने वाली आपत्तियों और अपराधियों को सलाखों के पीछे या यमलोक पहुंचाने के उनके ऐलान के प्रति वैसा ही नजरिया रहा जैसा विधानसभा चुनाव के दौरान नोटबंदी को लेकर.

दो डिप्टी सीएम के साथ साथ योगी को एक मजबूत साथी और भी मिला - डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय. महेंद्र नाथ पांडेय पूरे चुनाव में कदम कदम पर योगी का साथ दिया क्योंकि प्रतिष्ठा तो दोनों की ही दांव पर थी. जीत का क्रेडिट भले ही योगी को मिले लेकिन महेंद्र नाथ पांडेय के रोल को कम करके नहीं आंका जा सकता. देखें तो ये जोड़ी भी यूपी के लिए वैसे ही है जैसे देश भर में मोदी-शाह की जोड़ी जानी जाती है.

अमेठी के साथ गोरखपुर का भी जिक्र जरूरी है

अमेठी में कांग्रेस को बड़ा झटका जरूर लगा है और बीजेपी इस पर खूब इतरा रही है. अमेठी नगर पंचायत पर बीजेपी की चंद्रमा देवी को जीत हासिल हुई है. वैसे नगर पंचायत के लिए कांग्रेस ने अपने सिंबल पर कैंडिडेट ही नहीं खड़े किए थे.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी ने अमेठी को लेकर अपनी टिप्पणी में राहुल गांधी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन निशाने पर वही थे, "विकास के गुजरात मॉडल की आलोचना करने वालों के लिए बेहतर होगा कि वो अमेठी निकाय चुनाव में हार से सीखें. हवा में तीर चलाने के बजाय जमीन पर आकर कुछ काम करें."

स्मृति ईरानी के ट्वीट का भी करीब करीब यही मतलब रहा. हैरानी तो इस बात पर है कि न तो योगी को और न ही स्मृति ईरानी को गोरखपुर, कौशाम्बी और वाराणसी के नतीजे नजर नहीं आ रहे हैं. कम से कम ये 5 हार तो यही इशारा कर रहे हैं कि बीजेपी के लिए 2019 की राह इतनी भी आसान नहीं है.

1. अमेठी पर बीजेपी नेता ऐसे बात कर रहे हैं जैसे गोरखपुर में बाकियों की जमानत जब्त हो गयी हो. हकीकत ये है कि गोरखपुर के जिस वॉर्ड नंबर 68 में खुद योगी आदित्यनाथ वोटर हैं वहां बीजेपी की करारी हार हुई है. ये जरूर है कि गोरखपुर में मेयर पद पर बीजेपी ने जीत की हैट्रिक लगायी है, लेकिन योगी के अपने ही वॉर्ड में बीजेपी प्रत्याशी माया त्रिपाठी को निर्दलीय उम्मीदवार नादरा खातून से मुहंकी खानी पड़ी है.

2. वैसे इस हिसाब से देखें तो नतीजों ने योगी के डिप्टी सीएम और पूर्व प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य की भी बोलती बंद कर दी है. मौर्य के गृह जनपद कौशाम्बी में नगर पंचायत अध्यक्ष की छह में से एक पर भी बीजेपी का खाता नहीं खुल सका.

3. प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से भी बीजेपी के लिए कई बुरी खबरें रहीं. वॉर्ड नंबर 27 में बीजेपी के दो बार से पार्षद रहे विनोद भारद्वाज को समाजवादी पार्टी की श्वेता पांडेय ने हैट्रिक लगाने से रोक दिया. दिलचस्प बात ये है कि इस हार का ठीकरा योगी के मंत्री नीलकंठ तिवारी के माथे ही फूट रहा है क्योंकि ये उन्हीं का मोहल्ला है. ये वही नीलकंठ तिवारी हैं जिनके लिए बीजेपी के सीनियर नेता श्यामदेव रॉय चौधरी का टिकट काट जिससे कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेलनी पड़ी.

4. वाराणसी के ही शहर कैंट विधायक सौरभ श्रीवास्तव को लेकर भी विधानसभा चुनाव में खूब पोस्टरबाजी हुई थी. बीजेपी कार्यकर्ता एक ही परिवार को लगातार टिकट दिये जाने से बेहद नाराज थे. सौरभ उसी सीट से विधायक हैं जिससे उनके पिता हरिश्चंद्र श्रीवास्तव और मां ज्योत्सना श्रीवास्तव एमएलए रह चुकी हैं. अब बीजेपी क्या कहना चाहेगी जब श्रीवास्तव परिवार के मोहल्ले तुलसीपुर में कमल खिलने की बजाय मुरझा गया. यहां कांग्रेस की कौशल्या देवी ने बीजेपी उम्मीदवार को हरा डाला.

5. बीजेपी का सबसे बुरा हाल तो रामनगर में देखने को मिला. विधानसभा में प्रधानमंत्री तो निकाय चुनाव में खुद योगी भी बीजेपी के लिए रामनगर में वोट मांगने गये थे, लेकिन नतीजे आये तो मालूम हुआ पार्टी तीसरे स्थान पर पहुंच गयी.

बीजेपी को मेरठ-अलीगढ़ के संकेत भी समझने चाहिये

ओमवीर के पास एनसीआर परमिट वाला ऑटोरिक्शा है. ऐसे में दिन भर दिल्ली, नोएडा और गाजियाबाद आना जाना होता रहता है. बातचीत में राजनीति में गहरी दिलचस्पी झलकती है - बात चाहे हिमाचल चुनाव की हो या फि गुजरात की. निकाय चुनावों को वो अलग नजरिये से देखते हैं. ओमवीर गाजियाबाद में ही रहते हैं.

वोटिंग से पहले बातचीत में ओमवीर ने कहा, "मोहल्ले के 10 लोग चुनाव लड़ रहे हैं. किसे वोट दें समझ में नहीं आता. फैसला करना मुश्किल हो जाता है. सभी के साथ सुबह शाम उठना बैठना है." ये पूछने पर कि वो किस पार्टी के समर्थक हैं, कहते हैं, निकाय चुनाव में पार्टी का कोई मतलब नहीं. आपस का संबंध ज्यादा हावी रहता है, पार्टी कौन है फर्क नहीं पड़ता. लोग वोट या तो संबंधों के चलते देते हैं या जाति बिरादरी के चलते."

देखें तो ओमवीर की बातें किसी एक्सपर्ट जैसी ही लगती हैं. हर चुनाव की अपनी तासीर होती है. न तो लोक सभा के हिसाब से विधानसभा और न ही कोई और चुनाव एक जैसे नतीजे दे सकता है. 2014 के लोक सभा के बाद महाराष्ट्र हरियाणा और झारखंड की ही तरह दिल्ली और बिहार के भी नतीजे होने चाहिये थे और दिल्ली और बिहार की तरह असम के भी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हर चुनाव में लोगों के वोट देने की वजह अलग होती है.

मेरठ और अलीगढ़ के मेयर चुनाव में बीएसपी ने बीजेपी की दाल नहीं गलने दी. नगर निगम चुनाव में भी बीजेपी कई जगह मामूली अंतर से जीती है तो नगर पंचायत और नगर पालिका में कई जगह बीएसपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने अच्छी टक्कर दी है.

2012 में विधानसभा चुनाव जीत कर समाजवादी पार्टी ने सरकार तो बना ली, लेकिन कुछ ही दिन बाद हुए निकाय चुनाव में बीजेपी ने 12 में से 10 सीटें जीत ली थी.

yogi adityanathमोदी के गुजरात में योगी

निकाय चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके कैबिनेट सहयोगी और यूपी बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय जहां जोर शोर से चुनाव प्रचार में जुटे रहे, वहीं मायावती और अखिलेश यादव कहीं झांकने भी नहीं गये. 2014 के लोक सभा और इस साल के विधानसभा चुनाव में भारी जीत के हिसाब से देखें तो बीजेपी को क्लीन स्वीप करना चाहिये था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगर मायावती की राजनीति खत्म हो चुकी है तो उनका तो एक भी उम्मीदवार नहीं जीतना चाहिये.

बीजेपी ने 16 में से 14 नगर निगम सीटों पर कब्जा किया है. नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष पद पर भी बीजेपी का प्रदर्शन पहले से बेहतर नजर आ रहा है. यूपी में नगर पालिका के 5261 वॉर्डों में चुनाव हुए, जिनमें से बीजेपी के सिर्फ 17.51% उम्मीदवार ही जीत पाए जबकि 64.21% वार्डों में निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की.

निश्चित रूप से निकाय चुनावों के नतीजे योगी आदित्यनाथ की पहले के मुकाबले ज्यादा ताकतवर बनाते हैं, मगर ये भी याद रखना होगा कि ये कहीं से भी 2019 में जीत के गारंटी कार्ड नहीं हैं. खासकर तब जब योगी आदित्यनाथ निकाय चुनाव के साथ ही साथ 2019 के लिए भी वोट मांग रहे हों.

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