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Updated: 03 जून, 2016 07:44 PM
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भला अरविंद केजरीवाल और तन्मय भट्ट में भी कोई तुलना हो सकती है?

आखिर कैसे हो सकती है? दोनों का फील्ड अलग अलग है. दोनों का बैकग्राउंड अलग है. एक सार्वजनिक सेवा में है, तो दूसरा निजी कारोबार में.

लेकिन क्यों नहीं हो सकती? दोनों के फील्ड अलग अलग जरूर हैं, लेकिन आगे बढ़ने का तरीका तो एक जैसा ही है.

काम का नेचर अलग जरूर है, लेकिन बिजनेस मॉडल तो एक जैसा ही नजर आता है.

आइए, थोड़ा गौर फरमाते हैं और कुछ बातें समझने की कोशिश करते हैं.

पब्लिसिटी स्टंट

जनलोकपाल को लेकर आंदोलन खड़ा करना अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती रही जिसके लिए उन्होंने एक बड़े प्लेटफॉर्म का खाका खींचा, तमाम हस्तियों को जुटाया और बड़े कैनवास के साथ लांच किया. उसके बाद जब पूरा मीडिया अटेंशन मिलने लगा तो ऐसे बयान देने लगे जिससे विवाद खड़ा हो. उसी दौरान केजरीवाल ने एक सभा में कहा कि संसद में हत्यारे, बलात्कारी और लुटेरे भरे पड़े हैं. इस बयान पर चौतरफा बवाल हुआ. नेताओं ने खूब बयान दिये. केजरीवाल को नोटिस जारी हुआ. संसद में देर तक बहस भी हुई - सारे सांसदों ने जीभर कर केजरीवाल को कोसा भी, लेकिन कोई एक्शन नहीं लिया गया.

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पूरे वक्त केजरीवाल सुर्खियों में छाए रहे. बाद के दिनों में भी केजरीवाल या उनकी टीम को कुछ भी कहना होता तो उसी हिसाब से तैयारी के साथ मीडिया के सामने आते.

तन्मय भट्ट ने जब AIB फॉर्म किया तो उन्हें भी एक लांच पैड चाहिए था. एक ऐसा प्लेटफॉर्म जहां से उसे लांच किया जाए - और उसकी खूब चर्चा हो. तन्मय और उनके साथियों ने AIB रोस्ट की कल्पना की और पूरी तैयारी के साथ उसे अमलीजामा पहनाया. नतीजा सामने था - रातों रात AIB को चौतरफा शोहरत मिल चुकी थी.

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ये सब...

तन्मय के रोस्ट इवेंट में फिल्मी हस्तियों के गाली गलौच को भी खूब गालियां पड़ीं. इतना बवाल हुआ कि लाखों रुपये खर्च कर तैयार किया गया वीडियो यूट्यूब से हटाना पड़ा. बावजूद इसके AIB की टीम को फायदा ये हुआ कि वो स्थापित हो गये. वो खुद भी इस बात को मानते हैं.

बीबीसी से बातचीत में खुद तन्मय भट्ट और आशीष शाक्य कहते हैं, ''उसी ने तो हमें पॉपुलर बनाया. ये जो कुछ आप आज देख रहे हैं ये सब उसी की वजह से तो है.''

बड़े टारगेट के फायदे

केजरीवाल और तन्मय शुरुआती दौर से ही जानते रहे कि बड़े लोगों को निशाना बनाना चर्चा के हिसाब से बड़ा फायदा देगा. दोनों के काम के तरीके को देखें तो इसे समझा जा सकता है.

दिल्ली सचिवालय में सीबीआई की छापेमारी के बाद केजरीवाल ने ट्वीट कर प्रधानमंत्री को 'कायर' और 'मनोरोगी' कहा. इस पर भी खूब बवाल हुआ. लेकिन 31 मई को खबर आई कि केजरीवाल के खिलाफ ये मामला दिल्ली की अदालत में खारिज हो गया है. केजरीवाल के खिलाफ आईपीसी की धारा-124 ए (देशद्रोह) और धारा-500 के तहत मुकदमा चलाने की मांग की गयी थी.

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एक बार एनडीटीवी से बातचीत में केजरीवाल ने कहा था, "मैं मानता हूं कि मैंने खराब भाषा का इस्तेमाल किया, लेकिन मुझे कोई मलाल नहीं है. मैं दिल से बोलता हूं. प्रधानमंत्री लच्छेदार भाषा बोलते हैं, लेकिन उनके काम अच्छे नहीं हैं."

मुख्यमंत्री केजरीवाल के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि उन्होंने राज्य की शांति भंग करने या फिर संप्रभुता को नुकसान पहुंचाने जैसा कोई काम नहीं किया है. केस के तथ्यों से साफ है कि मुख्यमंत्री द्वारा सीबीआई छापे के बाद की गई अपमानजनक टिप्पणी इस घटना से उपजी नाराजगी का नतीजा थी जिसका मकसद राज्य की शांति व्यवस्था भंग करना नहीं था.

केजरीवाल की तरह ही तन्मय भी जानते हैं कि ये मामले कानूनी लड़ाई में कहीं नहीं टिकते. ये बात अलग है कि असीम त्रिवेदी और किकू शारदा भी उसी राह पर चले थे जिस पर तन्मय सवार हैं लेकिन उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी.

यही सोच कर तन्मय ने दो बड़ी हस्तियों को चुना - दोनों ही भारत रत्न. एक तरफ लता मंगेशकर तो दूसरी ओर सचिन तेंदुलकर. तन्मय अच्छी तरह जानते थे कि इन दोनों को लेकर छोटे से मजाक को भी लोग नहीं पचा पाएंगे - और वही हुआ भी.

तन्मय और उनके साथी शायद तय कर चुके हैं कि अगर बदनाम होकर भी नाम हो जाए तो बुरा क्या है? इस मामले में तन्मय केजरीवाल के जूनियर हैं इसलिए ये भी हो सकता है कि उनके प्रेरणास्रोत कोई और नहीं बल्कि केजरीवाल ही हों.

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