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Updated: 13 मई, 2023 09:29 PM
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माफ कीजिएगा थोड़ी एक्स्ट्रा लिबर्टी ले ली है. लेकिन बेवजह नहीं ली है. शीर्ष न्यायालय ने फैसला सुनाने में 17 महीनों का समय जो ले लिया. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने तर्कों के समापन के बाद उच्च न्यायालयों द्वारा शीघ्र निर्णय सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश जारी कर रखे हैं और अवहेलना के लिए जब तब संबंधित उच्च न्यायालयों की निंदा भी की है. 'बात निकली है तो दूर तलक जायेगी' और बात निकली है सुप्रीम कोर्ट के 4 मई के फैसले की वजह से जिसमें भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय और अन्य के खिलाफ सामूहिक बलात्कार और आपराधिक धमकी के एक आरोप की पुलिस जांच का निर्देश देने वाले कोलकाता के एक मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द करते हुए मजिस्ट्रेट को 'विवेक' का प्रयोग कर इस मामले पर नए सिरे से विचार करने को कहा है.

पूरा मामला क्या है? भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और दो अन्य पर एक महिला से बलात्कार करने और उसे और उसके बेटे को जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाया गया था. जब पुलिस ने कथित तौर पर विजयवर्गीय और अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया, तो शिकायतकर्ता ने एक सिटी मजिस्ट्रेट के हस्तक्षेप की मांग की. मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अलीपुर द्वारा उनके आवेदन पर विचार करने से इनकार करने पर, शिकायतकर्ता को कलकत्ता हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा जिसने उसके आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन को अनुमति देते हुए मामले को मजिस्ट्रेट के पास वापस भेज दिया. इसी आदेश को तीनों आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. 

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एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, विशेष अनुमति याचिकाओं के लंबित रहते हुए भी मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता के आवेदन को स्वीकार कर लिया और पुलिस को इसे एफआईआ मानने और यौन उत्पीड़न और आपराधिक धमकी के आरोपों की जांच शुरू करने का निर्देश दे दिया था. माननीय उच्चतम न्यायालय में मामले की सुनवाई पूरी हुई जिसके उपरांत 12 दिसंबर 2021 को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था. और अब 4 मई 2023 को फैसला सुनाया गया है. इसके अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा मिले रिमांड पर ऑर्डर को No Independent Application of Mind बताते हुए खारिज कर दिया है. यह भी कहा है मजिस्ट्रेट इस मामले में आरोपियों के खिलाफ 'विवेक' का प्रयोग कर इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार करें कि क्या इस मामले में आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की जरूरत है.

कुल मिलाकर रिमांड पर दिये गये आदेश को खारिज करते हुए मामले को पुनः रिमांड ही कर दिया. और ऐसा सिंगल बेंच ने नहीं, बल्कि दो विद्वान जजों की बेंच ने किया है. निर्णय देने में लगभग 17 महीने की इस विलंब पर इसीलिए सवाल है क्या शीर्ष अदालत खुद उन मजबूरियों से मुक्त है, जिन्हें छोड़कर त्वरित फैसला देने का निर्देश जस्टिस केटी थॉमस और जस्टिस आरपीसेठी ने अनिल रॉय बनाम बिहार राज्य के मामले में 2001में ही दिया था और साथ ही दिशा निर्देश भी जारी किये थे ? इन दिशा निर्देशों में दलीलें पूरी होने के तीन महीने बीत जाने के बाद पक्षकारों को जल्द फैसले के लिए अर्जी दाखिल करने की अनुमति देना और छह महीने के भीतर फैसला नहीं सुनाए जाने पर दूसरी पीठ द्वारा फिर से सुनवाई के लिए मुख्य न्यायाधीश को आवेदन देना शामिल था. 

एक अन्य मामले में, बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा निर्णय के ऑपरेटिव हिस्से की घोषणा करने और अंत में अंतर्निहित तर्क का खुलासा करने के बीच नौ महीने का अंतराल था. तब सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजय किशन कौल और हृषिकेश रॉय की पीठ ने विलंब पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा था, "इसका समर्थन नहीं किया जा सकता. न्यायिक अनुशासन के लिए निर्णय देने में तत्परता की आवश्यकता होती है." साल 2022 में फिर से सुप्रीम कोर्ट ने अदालत में ऑपरेटिव हिस्से को निर्धारित करने के चार महीने बाद अंतिम निर्णय प्रकाशित करने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ को फटकार लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने तो फैसला सुनाए जाने और इसे हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किए जाने के बीच अत्यधिक देरी पर भी आपत्ति जताई है. कुल मिलाकर मामलों में फैसला सुरक्षित रखे जाने की बाद सुनाने के विलंब पर शीर्ष न्यायालय द्वारा निंदा की जाती रही है.     

वो अंग्रेजी में कहावत है, Practice What You Preach और हिंदी में जो है सो शीर्षक है ही. क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसी प्रकार के विलंब को नजरअंदाज किया जा सकता है? एक तर्क दिया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट शीर्ष है जिसके अधिकांश फैसले अंतिम होते है, अपरिवर्तनीय होते हैं और इसलिए फैसला सौंपने के पहले अधिक समय दिया जाना चाहिए. परंतु तर्क गले नहीं उतरता क्योंकि शीर्ष है तो इनके जस्टिस भी देवताओं के भगवान हुए ना. उनकी विद्वता अतुलनीय है, कुशाग्रता विलक्षण है और वे समय के मोहताज नहीं हैं. हाँ, यदि निर्णय संवैधानिक बेंच को देना है, समय लग सकता है चूंकि गहन सोच विचार की आवश्यकता होती है और तदनुसार निर्णय भी विस्तृत होता है जैसे कि अयोध्या विवाद का फैसला 1047 पन्नों का था, हाल ही महाराष्ट्र विवाद का निर्णय 200 पन्नों में है. परंतु जिस मामले से बात निकली है, पुनः रिमांड के संक्षिप्त से निर्णय में 17 महीने लगा देने का औचित्य समझ के परे हैं. ताजुब्ब ही है ना निर्णय मजिस्ट्रेट से विवेक का प्रयोग करने के लिए कह रहा है और निर्णय लेने वालों ने क्या खूब "विवेकशील" 17 महीने लगा दिए.

दुनिया भर में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले इस विशाल देश में न्याय दिलाने के लिए एक सुप्रीम कोर्ट, 25 हाई कोर्ट और असंख्य स्थानीय न्यायालय हैं जिनके अलग अलग क्षेत्राधिकार है. फिर भी परमानेंट प्रॉब्लम न्याय में विलंब ही है. और 'जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड' सरीखे डिक्टम को शिकस्त देने के लिए ही त्वरित न्याय के उपायों की चर्चा की जाती है. समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने अधीनस्थ न्यायालयों को लिटिगेंट्स को आवश्यकता से अधिक समय तक अधर में लटकाए रखने के लिए फटकार लगाई है. न्याय तुरंत मिले, सुनिश्चित करने के लिए उच्चतम न्यायालय समय समय पर गाइडलाइन जारी करती रहती है और यदि कहें दिशा निर्देशों का संग्रहालय ही निर्मित हो गया है, अतिशयोक्ति नहीं होगी.  लेकिन, जब बात घर (सुप्रीम कोर्ट) की हो तो खेल के नियम क्या हैं? खुद पहरेदारों की रखवाली कौन करेगा? यदि शीर्ष अदालत के लिए अलग स्टैंडर्ड हैं, उन्हें विस्तृत रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिए.   

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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