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Updated: 21 सितम्बर, 2021 01:42 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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भारत की आजादी में महात्मा गांधी के योगदान और अहिंसावादी जीवन पद्धति के प्रणेता के रूप में उनका व्‍यक्तित्व अमर रहेगा. लेकिन, इतिहास गवाह है, महान से महान व्यक्ति भी सवालों से बच नहीं सके हैं, तो ऐसा महात्मा गांधी के साथ भी है. इन दिनों सोशल मीडिया पर वायरल शहीद सुखदेव का एक पत्र वायरल हो रहा है, जो उन्होंने महात्मा गांधी को लिखा था. वे गांधी-इरविन पैक्ट पर अपनी टिप्पणी के रूप में ऐतराज जता रहे थे. सुखदेव गरम दल के नेता थे, लेकिन उनका पत्र एक बहुत संतुलित भाषा में उस समय के हालात पर गांधी जी के दृष्टिकोण पर सवाल उठाता है. पत्र रेखांकित करता है कि गांधी जी अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ाने में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल बाकी इकाइयों को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं. सुखदेव के ऐतराज से ये भी लगता है कि गांधी जी उस समय के क्रांतिकारियों से पूरी तरह कटे हुए थे. इसलिए आज उन विचारों को बल मिलता है कि यदि गांधी जी चाहते तो भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी रुकवा सकते थे. जिस पत्र की इन दिनों बात हो रही है, वह सुखदेव ने 5 मार्च 1931 को महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन के बीच एक पॉलिटिकल एग्रीमेंट के बाद लिखा था.

Gandhi, Sukhdev, Bhagat Singh, Hanging, Britisher, Open Letter, Revolutionaryमहान क्रांतिकारी सुखदेव का लिखा एक पत्र महात्मा गांधी को संदेह के घेरों में खड़ा कर रहा है

ध्यान रहे कि भले ही गांधी- इवरिन समझौते में तमाम बातें रही हों मगर जिस बात के लिए ये समझौता जाना गया वो थी हिंसा आरोपियों को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किये जाने की बात. तब इसी सिलसिले में एक चिट्ठी गांधी को सुखदेव की तरफ से लिखी गई थी और चूंकि मौजूदा वक्त में ये चिट्ठी वायरल हुई है तो आइये जानें क्या लिखा था सुखदेव ने गांधी को. सुखदेव ने लिखा कि

परम कृपालु महात्मा जी,

ताजा खबरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमाकर देखने का आखिरी मौका देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएं की हैं. वस्तुत: किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होने वाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुवा लोगों को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.

माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता नहीं होगा. मैं मानता हूं कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी से यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले मकसूद पर पहुंच गए हैं. संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले तब तक अविराम लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बंधी हुई है.उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध विराम है जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है. इस विचार के साथ ही समझौते और युद्धविराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती है और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.

किसी भी प्रकार का युद्ध विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्तें ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुवा लोगों का है. लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिय आंदोलन बंद रखना उचित समझा है तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है. इसी तरह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श जनसत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.

यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय जब तक प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बंधे हुए हैं परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्धनीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है. कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन का रूप होता है और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.

ऐसे में क्रांतिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरीह भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्व नहीं होता, हो नहीं सकता. आपने समझौते के बाद अपना आंदोलन बंद किया है और फलस्वरूप आपके सभी कैदी रिहा हुए हैं पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या?

1915 ईसवी से जेलों में पड़े हुए गदर पार्टी के सभी 20 कैदी सजा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में हैं. मार्शल कानून के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाए पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ बाजार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते फिरते हैं और उनमें कई तो स्त्रियां हैं.

सचमुच आधा दर्जन से अधिक कैदी फांसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. उन सबका क्या? लाहौर षड्यंत्र केस के सजायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का बड़ा हिस्सा नहीं हैं. उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है.

सच पूछो तो उनके फांसी चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है. यह सब होते हुए भी आप उन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें?

इन बातों के अलावा भी गांधी को लिखे अपने पत्र में महान क्रांतिकारी सुखदेव ने तमाम बातें की थीं. और बताया कि तमाम यातनाएं हैं जिनका सामना तत्कालीन जेलों में बंद उस समय के कैदियों को करना पड़ रहा है. इस चिट्ठी को शेयर करने के बाद सोशल मीडिया पर तमाम तरह की राय सामने आ रही है. कोई कह रहा है कि सुखदेव की लिखी इस चिट्ठी के बावजूद जिस तरह महात्मा गांधी ने चुप्पी साधी और अपनी साख के चलते असहाय कैदियों के लिए कुछ भी नहीं किया वो एक महात्मा को संदेह के घेरों में डालता है. किसी की राय में यदि महात्मा गांधी अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करते तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत कई क्रांतिकारियों की जान बचाई जा सकती थी.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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