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Updated: 14 मार्च, 2022 09:00 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 4-1 से जीत हासिल की है. वहीं, पंजाब में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करते हुए प्रचंड बहुमत हासिल किया है. वैसे, पंजाब को भाजपा के लिहाज से बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जा सकती है. क्योंकि, पंजाब में भाजपा की व्यापक उपस्थिति नहीं थी. खैर, पांचों राज्यों में कांग्रेस को बड़ी हार का सामना करना पड़ा है. जो किसी भी हाल में कांग्रेस पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं कही जा सकती है. इन सबके बीच कांग्रेस की हार पर भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने तंज कसते हुए कहा है कि 'चुनाव कैसे हारते हैं, ये कांग्रेस से सीखना चाहिए.' बीते कुछ विधानसभा चुनाव नतीजों पर नजर डालें, तो ये बात काफी हद तक सही भी है. बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल और असम तक हर चुनाव में कांग्रेस लगातार राजनीतिक पतन की ओर बढ़ रही है. जिसे देखकर कहा जा सकता है कि कांग्रेस के हारने का फॉर्मूला बेहद सफल है. आइए जानते हैं कैसे...

Congress Losing Formulaभाई-बहन की ये जोड़ी आमतौर पर ट्विटर और कुछ खास मौकों पर ही जमीन पर एक्टिव नजर आती है.

'पार्ट टाइम' पॉलिटिक्स का बोझ उठा रही कांग्रेस

बात कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की हो या कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की. इन दोनों ही कांग्रेस नेताओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि भाजपा जैसी पार्टी के सामने, जो साल के 365 दिन चुनावी मोड में ही नजर आती है, ये भाई-बहन की जोड़ी आमतौर पर ट्विटर और कुछ खास मौकों पर ही जमीन पर एक्टिव नजर आती है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस की विचारधारा को सूट करने वाले मुद्दों पर पार्टी का इकोसिस्टम राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को बताता है कि अमुक मामले पर कांग्रेस को कुछ फायदा मिल सकता है. तो, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी उस मुद्दे पर ध्यान देते हैं. हालांकि, इस तरह का विरोध केवल भाजपा शासित राज्यों में ही होता है. उदाहरण के तौर पर यूपी में महिलाओं पर अत्याचारों की बात करने वालीं प्रियंका गांधी की कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर प्रतिक्रिया सामने नहीं आ पाती है. कमोबेश यही हाल राहुल गांधी का भी है. जो जमीन से ज्यादा ट्विटर पर राजनीतिक क्रांति करते नजर आते हैं.

वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी लंबे समय से बीमार चल रही हैं. और, राजनीतिक रूप से उतनी ज्यादा एक्टिव नजर नहीं आती है. लेकिन, बीते तीन साल से कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लगातार सोनिया गांधी की वजह से ही टल रहा है. दरअसल, सोनिया गांधी किसी भी हाल में राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बैठाना चाहती हैं. जिससे कि 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के नेता के तौर पर भी राहुल गांधी के नाम पर ही मुहर लग जाए. लेकिन, सोनिया गांधी की इस कवायद पर कांग्रेस के असंतुष्ट वरिष्ठ नेताओं के जी-23 गुट ने ही मोर्चा खोल दिया है. असंतुष्ट नेताओं का ये गुट अब प्रियंका गांधी और राहुल गांधी में 'बॉर्न टू रूल' वाले भाव को खत्म करना चाहता है. जो किसी भी हाल में होता नहीं दिख रहा है. क्योंकि, कांग्रेस के इन्हीं नेताओं ने अपनी चापलूसियों से गांधी परिवार में ये भाव इंजेक्ट किया था. जिसे निकालना अब इन असंतुष्ट नेताओं के लिए भी मुश्किल हो रहा है.

चेहरे के दम पर नहीं मिल रहे वोट

बात बिहार की हो या पश्चिम बंगाल की, असम की हो या केरल, उत्तराखंड की हो या पंजाब की, गोवा की हो या मणिपुर की. इन सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जी-तोड़ मेहनत की. लेकिन, पार्टी के अंदरूनी झगड़ों-खींचतान और कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार के गलत राजनीतिक फैसलों ने पार्टी को कमजोर कर दिया. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने जमीन पर मेहनत की. लेकिन, वह कांग्रेस के पक्ष में न जाकर समाजवादी पार्टी के पक्ष में गई. उत्तराखंड में राहुल गांधी ने पूरा जोर लगाया. लेकिन, कांग्रेस के पक्ष में माहौल नहीं बना सके. आसान शब्दों में कहा जाए, तो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से ज्यादा प्रभाव तो वो कथित यूट्यूब पत्रकार रखते हैं, जो खुद को निष्पक्ष कहते हुए भी किसी एक राजनीतिक पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने का माद्दा रखते हैं. भले ही उससे जीत हासिल न करवा सकें. लेकिन, कम से कम उनकी कोशिशों का प्रभाव जमीन पर नजर तो आता है. लेकिन, गांधी परिवार इस मामले में भी पिछड़ता ही दिखता है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अपने चेहरे के दम पर ये केवल काडर वोट ही कांग्रेस को दिलवा सकते हैं.

वहीं, पंजाब में तो गांधी परिवार ने सत्ता बाकायदा प्लेट में सजाकर आम आदमी पार्टी को सौंप दी. नवजोत सिंह सिद्धू को कैप्टन के खिलाफ बगावत करने के लिए उकसाने, कैप्टन अमरिंदर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने, चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाने समेत राजनीतिक रूप से दर्जनों गलत फैसले लेने का श्रेय गांधी परिवार को ही जाता है. भाई-बहन की इस जोड़ी का पॉलिटिकल एजेंडा बिलकुल साफ हो सकता है. लेकिन, ये जोड़ी इसके सहारे लोगों से जुड़ने में पूरी तरह से नाकाम रही है. हालांकि, इन तमाम गलतियों के बावजूद कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को जी-23 के रूप में असंतुष्ट नेताओं का गुट करार दे दिया जाता है. कहना गलत नहीं होगा कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की यही पार्टटाइम पॉलिटिक्स कांग्रेस को भारी पड़ती है. और, आगे भी पड़ती रहेगी.

कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में मंथन का दौर

कांग्रेस की शीर्ष नीति निर्धारक इकाई कांग्रेस कार्य समिति (CWC) की हालिया बैठक में विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त के बाद यूं तो हार के कारणों और आगे की रणनीति पर चर्चा होनी चाहिए थी. लेकिन, संभावनाओं के अनुरूप ही सूत्रों के हवाले से खबर सामने आई कि CWC की बैठक में सोनिया गांधी ने अपने साथ ही राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के इस्तीफे की पेशकश की. लेकिन, कांग्रेस में अंदर तक घर कर चुकी 'दरबारी' संस्कृति के चलते तत्काल रूप से सोनिया गांधी के इस सुझाव को खारिज कर दिया गया. कांग्रेस कार्य समिति की बैठक से पहले राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत और कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष डीके शिवकुमार समेत कई नेताओं ने राहुल गांधी को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग भी की. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पांच राज्यों में मिली हार पर मंथन उतना बड़ा मुद्दा नहीं रहा. जितना कांग्रेस के नये अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी को स्थापित करने की कवायद रही.

दरअसल, कांग्रेस की ओर से माना जा रहा था कि हालिया पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. जिसके बाद राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी आसानी से की जा सकेगी. लेकिन, चुनाव नतीजे कांग्रेस की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं रहे. और, अब कांग्रेस आलाकमान के सामने हार-जीत पर मंथन करने से बड़ी समस्या ये खड़ी हो गई है कि राहुल गांधी को किस बिनाह पर पार्टी अध्यक्ष घोषित किया जाएगा? अगर कांग्रेस आलाकमान को कोई फैसला लेना है, तो उसके लिए इंतजार किस बात का किया जा रहा है. उनके फैसले पर कांग्रेस के अंदर सवाल उठाने वाला शायद ही कोई होगा. क्योंकि, जब कांग्रेस के नेताओं ने मान ही लिया है कि राहुल गांधी केवल पार्टी ही नहीं बल्कि देश की 'जरूरत' हैं. तो, किसी को राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से क्या ही फर्क पड़ जाएगा. ये केवल एक फैसला भर ही तो है. वैसे, बड़ा सवाल यही है कि जो कांग्रेस पार्टी 3 साल में अपना पार्टी अध्यक्ष का चुनाव न कर पा रही हो, वो देश में चुनाव क्या ही लड़ेगी?

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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