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Updated: 01 अक्टूबर, 2021 05:55 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोर रहा है यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly Elections 2022). ऐसा कहने की वजह ये है कि यूपी विधानसभा चुनाव केवल राज्य के लिहाज से ही नहीं, बल्कि 2024 के सबसे बड़े सियासी इवेंट के मद्देनजर सर्वाधिक लोकसभा सीटों वाल प्रदेश होने के चलते इसका अहम हिस्सा है. आसान शब्दों में कहें, तो यूपी चुनाव को 2024 से पहले सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा सकता है. क्योंकि, यहां बाजी मारने वाली टीम ही 2024 से पहले होने वाले अन्य राज्यों के चुनाव में नंबर वन कंटेंडर की भूमिका में होगी. यूं तो यूपी विधानसभा चुनाव के सियासी मैच में भाजपा (BJP), सपा (SP), कांग्रेस (Congress), बसपा (BSP) जैसे बड़े खिलाड़ी आपस में भिड़ने को तैयार दिख रहे हैं. लेकिन, इन सबकी नाक के नीचे एक खिलाड़ी धीरे-धीरे खुद को मजबूत स्थिति में लाता जा रहा है. और, वो खिलाड़ी है भागीदारी संकल्प मोर्चा (Bhagidari Sankalp Morcha).

योगी आदित्यनाथ सरकार (Yogi Adityanath) से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर (Om Prakash Rajbhar) उत्तर प्रदेश के 10 से ज्यादा छोटे सियासी दलों को एकसाथ लाकर यूपी चुनाव (Uttar Pradesh Election) में अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी. और, अब जैसे-जैसे यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की तारीख नजदीक आ रही है, भागीदारी संकल्प मोर्चा में कई और छोटे दलों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. हाल ही में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (प्रसपा) के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव (Shivpal Singh Yadav) और आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण (Chandrashekhar azad ravan) ने भी भागीदारी संकल्प मोर्चा में संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं. ओमप्रकाश राजभर की मानें, तो बिहार सरकार में मंत्री और खुद को सन ऑफ मल्लाह कहने वाले मुकेश सहनी भी उनके साथ संपर्क में बने हुए हैं. वैसे, छोटे दलों का ये गठजोड़ यूपी के अलग-अलग हिस्सों में अपना अच्छा-खासा जातिगत प्रभाव रखता है, तो इसे इतनी आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

बीती 28 सितंबर को शिवपाल सिंह यादव के लखनऊ स्थित आवास पर सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर, एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) और भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद रावण की बैठक हुई थी. हालांकि, शिवपाल सिंह यादव की इस मुलाकात को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लिए चेतावनी के तौर पर देखा जा सकता है. क्योंकि, शिवपाल ने अखिलेश यादव को सपा और प्रसपा के गठबंधन के लिए 11 अक्टूबर तक की डेडलाइन दी है. लेकिन, अखिलेश के अभी तक के दिए गए इशारों से इतना तय माना जा सकता है कि वो शिवपाल सिंह यादन के नाम पर केवल जसवंतनगर विधानसभा सीट ही देने को तैयार हैं. लेकिन, शिवपाल की इस नई मुलाकात के बाद कहा जा सकता है कि भागीदारी संकल्प मोर्चा यूपी चुनाव का वो खिलाड़ी बन रहा है, जो किसी टीम में शामिल न हुआ, तो 'खेला' कर देगा.

bhagidari sankalp morcha shivpal singh yadavयूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भागीदारी संकल्प मोर्चा बड़ा उलटफेर कर सकता है.

राजभर, शिवपाल, चंद्रशेखर, ओवैसी का दबदबा

धर्म और जाति के रंग में रंगा देश के सबसे बड़े सियासी मैदान उत्तर प्रदेश में यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा की ओर से जातिगत गोलबंदी की लगातार कोशिशें की जा रही हैं. पूर्वांचल में वोटों की बड़ी ताकत रखने वाली प्रमुख जातियों में से कुर्मी और निषाद जाति की राजनीति करने वाले दल भाजपा के साथ गठबंधन कर चुके हैं. लेकिन, भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री रहे ओमप्रकाश राजभर के बर्खास्त किये जाने के बाद से पूर्वांचल की राजभर बिरादरी भाजपा से छिटकी हुई नजर आती है. हालांकि, भाजपा की ओर से अनिल राजभर को कैबिनेट मंत्री और सकलदीप राजभर को राज्यसभा सांसद बनाकर इस नाराजगी को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.

वहीं, बसपा के बड़े नेता रहे सुखदेव राजभर के बेटे ने सपा का दामन थाम लिया है. बताया जा रहा है कि बसपा सरकार में मंत्री रहे राम अचल राजभर भी सपा प्रमुख अखिलेश यादव की साइकिल पर सवार होने की जुगत में लगे हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती ने बीते साल ही भीम राजभर को प्रदेश अध्यक्ष बना कर इस बिरादरी को साधने की कोशिश शुरू कर दी थी. लेकिन, मतदाताओं के मन का भरोसा इतनी आसानी से नहीं जीता जा सकता है. सूबे की 403 विधानसभा सीटों में से करीब सौ सीटों पर राजभर मतदाताओं का अच्छा-खासा प्रभाव है. पूर्वांचल के दो दर्जन से ज्यादा जिलों में राजभर समाज निर्णायक भूमिका निभाने वाला मतदाता माना जाता है. पूर्वांचल की कई सीटों पर राजभर समुदाय 18-20 फीसदी के आसपास की संख्या के आधार पर अहम वोटबैंक बन जाता है.

शिवपाल सिंह यादव को नजरअंदाज करने की कीमत 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव भुगत चुके हैं. लेकिन, अखिलेश ने अभी भी इस हार से कोई सीख नहीं ली है. कम से कम शिवपाल सिंह यादव के मामले में इतना तो कहा ही जा सकता है. यादव वोटों के साथ ही सूबे के सियासी समीकरणों पर मजबूत पकड़ रखने वाले शिवपाल सिंह यादव को कमजोर समझ अखिलेश यादव उन्हें हल्के में ले रहे हैं. लेकिन, यूपी की राजनीति के बारे में कहा जाता है कि केवल एक जाति या धर्म के सहारे कुर्सी नहीं पाई जा सकती है. अगर शिवपाल के साथ अखिलेश का गठबंधन तय नहीं होता है, तो चाचा-भतीजे की इस जंग में नुकसान यादव परिवार का ही होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में फिरोजाबाद सीट पर अक्षय यादव की हार इस बात को पहले ही साबित कर चुकी है.

वहीं, चंद्रशेखर आजाद रावण की आजाद समाज पार्टी का दबदबा वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है. लेकिन, किसी बड़े सियासी दल के साथ गठबंधन होने पर चंद्रशेखर आजाद रावण से जुड़े युवाओं का वोट कोई न कोई कमाल जरूर दिखा सकता है. वैसे, चंद्रशेखर रावण का उभार भी बसपा सुप्रीमो मायावती के सियासी पतन के साथ शुरू हुआ था. चंद्रशेखर ने जाटव मतदाताओं के साथ ही दलित समाज के अन्य वर्गों में भी ठीक-ठाक पैंठ बना चुके हैं. वहीं, मुस्लिम वोटों पर एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी अपना हक जता ही चुके हैं. उनकी सभाओं में नजर आने वाली भीड़ अगर कुछ फीसदी भी दायें-बायें होकर उनके खाते में आ गई, तो सूबे में मुस्लिम वोटों के 'खेला' होने से कोई रोक नहीं पाएगा.  

गठबंधन की राह का रोड़ा कौन?

भाजपा के विरोध में खड़ा हुआ छोटे दलों का ये सियासी गठजोड़ लंबे समय से सपा या कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन करने की कोशिशों में लगा हुआ है. लेकिन, भागीदारी संकल्प मोर्चा में असदुद्दीन ओवैसी का नाम जुड़ा होने की वजह से सपा और कांग्रेस ने इससे अभी तक दूरी बना रखी है. बसपा सुप्रीमो मायावती पहले ही किसी भी तरह के गठबंधन से इनकार कर चुकी हैं, तो यहां इस मोर्चा की एंट्री होना मुश्किल ही है. वहीं, भाजपा को किसी भी हाल में हराने के उद्देश्य को लेकर बनाए गए इस भागीदारी संकल्प मोर्चा का बीजेपी के साथ आना नामुमकिन है. आसान शब्दों में कहें, तो एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की वजह से भागीदारी संकल्प मोर्चा से गठबंधन करने में सियासी दल कतरा रहे हैं. लेकिन, ओवैसी को सिर्फ एक बहाना माना जा सकता है. क्योंकि, अगर सपा, कांग्रेस या बसपा से गठबंधन के लिए ओवैसी को भागीदारी संकल्प मोर्चा से बाहर का रास्ता दिखाने की नौबत आई, तो ओमप्रकाश राजभर बिलकुल भी नहीं चूकेंगे.

लेकिन, इस मोर्चे के साथ गठबंधन करने का सीधा सा अर्थ होगा कि तमाम छोटे सियासी दलों को उनकी मांग के हिसाब से विधानसभा सीटों का बंटवारा करना. शिवपाल सिंह यादव, ओमप्रकाश राजभर, चंद्रशेखर रावण जैसे नामों से सजे छोटे-छोटे सियासी दलों के इस मोर्चे को अगर सम्मानजनक सीटें मिल जाती हैं, तो ये निश्चित तौर पर भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए खतरे की घंटी हो सकता है. क्योंकि, अगर भागीदारी संकल्प मोर्चा बिना किसी बड़े दल के साथ गठबंधन के यूपी चुनाव के सियासी रण में उतरता है, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को फायदा ही पहुंचाएगा. लेकिन, कांग्रेस, सपा. बसपा में से किसी के साथ गठबंधन होने पर जातीय समीकरण के चलते ये आसानी से भाजपा का बना बनाया खेल बिगाड़ सकता है. कुछ हजार वोटों के ऊपर-नीचे होने से सीटों के नतीजे बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. और, भागीदारी संकल्प मोर्चा का प्रभाव केवल पूर्वांचल ही नहीं बल्कि पूरे यूपी में दिखाई देगा.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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