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Updated: 23 फरवरी, 2023 04:11 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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शरद पवार (Sharad Pawar) का परेशान होना स्वाभाविक है. पहले तो हाथ से महाराष्ट्र की सत्ता का रिमोट छूट गया. धीरे धीरे महाराष्ट्र की राजनीति पर भी पकड़ भी ढीली पड़ती जा रही है - और कहीं ऐसा न हो आगे चल कर उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) का हाल न हो जाये?

अपने बारे में वो आश्वस्त हैं कि उनका हाल उद्धव ठाकरे जैसा तो होने से रहा. वैसे भी अभी तक शरद पवार ने कभी कच्ची गोली नहीं खेली है - लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या कुछ छिपा हुआ है, किसे मालूम.

और यही वजह है कि शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी के भविष्य को लेकर खासे चिंतित लगते हैं - शिवसेना के मामले में चुनाव आयोग के फैसले पर शरद पवार का अचानक रुख बदल जाना तो ऐसे ही इशारे कर रहा है.

और सिर्फ चुनाव आयोग का ही मामला नहीं है, हाल के मसलों पर शरद पवार अपना स्टैंड बदल रहे हैं. ये भी हो सकता है कि वो अपनी तरफ से भूल सुधार में लगे हों, लेकिन ये तो वही जानें. चुनाव आयोग के हाल के फैसले के अलावा ऐसे दो मामले और हैं जिनमें वो अपने पहले के स्टैंड से अलग बातें करने लगे हैं.

ये शरद पवार ही हैं जो राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा चुके हैं, लेकिन अब कांग्रेस को बड़ी पार्टी बताते हुए सलाह दे रहे हैं कि उनको नेतृत्व करने दीजिये. ऐसे ही महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस के मामले में भी अब पहले की तरह नहीं कह रहे हैं कि वो झूठ बोल रहे हैं - बल्कि, उसके फायदे समझा रहे हैं. कहते हैं कि उसका ये फायदा तो हुआ ही कि महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हट गया. अपनी दलील को दमदार बनाने के लिए तत्काल ही वो आगे बढ़ कर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार का हवाला देने लगते हैं.

हाल ही में देवेंद्र फडणवीस ने दावा किया था कि एनसीपी नेता अजीत पवार के साथ जब उनकी सरकार बनी थी तो शरद पवार की भी उसमें सहमति रही. पूछे जाने पर शरद पवार समझाते हैं कि अगर ये कवायद नहीं हुई होती तो महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन ही लगा रहता.

लेकिन सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात है, एकनाथ शिंदे के पक्ष में आये चुनाव आयोग के फैसले को लेकर उनका पलट जाना. पहले तो शरद पवार ने साफ साफ बोल दिया था कि वो इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते. ये तभी की बात है जब अमित शाह के मुंबई दौरे में उनसे मुलाकात को लेकर भी शरद पवार को सफाई देनी पड़ी थी, लेकिन अब वो चुनाव आयोग के बहाने बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ हमलावर हो गये हैं - और ये भी दुहाई दे रहे हैं कि अभी जो कुछ भी हो रहा है, ये सब वाजपेयी के दौर में नहीं होता था.

शरद पवार का कहना है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब देश की संस्था पर इस तरह हमला नहीं हुआ था. जो कांग्रेस नेतृत्व की अरसे से पॉलिटिकल लाइन रही है, बिलकुल वैसे ही शरद पवार कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार देश की संस्था पर हमला कर रही है, और राजनीतिक दल को अपना काम नहीं करने दे रही है - एक विचारधारा और एक पार्टी देश में भाईचारे को खत्म कर रही है. समझा जाये तो राहुल गांधी भी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पूरे वक्त यही इल्जाम लगाते रहे.

चुनाव आयोग के फैसले के प्रसंग में ऐसे तमाम मुद्दे हैं जो शरद पवार अलग अलग तरीके से उठा रहे हैं, लेकिन एक खास बात भी समझ में आ रही है - और वो है शिवसेना को लेकर बालासाहेब ठाकरे का जिक्र कर बयान देना.

एनसीपी नेता चुनाव आयोग के फैसले के बहाने बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे का नाम लेकर जो कुछ समझाना चाहते हैं, वो सीधे सीधे नहीं कह रहे हैं - लेकिन उसमें वो बात उभर कर जरूर आ रही है जिसकी शरद पवार को सबसे ज्यादा फिक्र लग रही है. और शरद पवार की फिक्र अपनी बेटी सुप्रिया सुले (Supriya Sule) को लेकर लगती है.

ये फिक्र भी करीब करीब वैसी ही है जैसी कभी मुलायम सिंह यादव को रही होगी, या फिर लालू यादव भी चिंतित रहते हैं. तभी तो कुछ दिन पहले हुई आरजेडी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक प्रस्ताव पारित कर लालू यादव ने पार्टी से जुड़े कुछ अधिकार अपने अलावा सिर्फ तेजस्वी यादव के पास होने की घोषणा करायी है - अगर ऐसे प्रसंगों को एक साथ जोड़ कर देखें तो शरद पवार की चिंता समझ पाना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा.

पवार को किस बात का डर सता रहा है?

2022 में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आरजेडी के संविधान में एक खास संशोधन किया गया और बाकायदा उसे प्रचारित भी किया गया. ऐसा करने का मकसद यही समझा गया कि लालू यादव ने तेजस्वी यादव के लिए आरजेडी में चाक चौबंद व्यवस्था कर दी है.

sharad pawar, uddhav thackeray, supriya suleशरद पवार की चिंता वाजिब है, कहीं शिवसेना की ही तरह एनसीपी के पीछे भी बीजेपी पड़ गयी तो क्या हाल होगा?

बैठक के दौरान आरजेडी के राष्ट्रीय महासचिव भोला यादव की तरफ से एक प्रस्ताव भी पढ़ा गया था, भविष्य में राष्ट्रीय जनता दल के नाम और चुनाव निशान में किसी भी बदलव का अधिकार सिर्फ लालू यादव और तेजस्वी यादव के पास ही होगा.

मतलब, सिर्फ दो नेताओं के अधिकृत किया गया है, न कि आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष या किसी और पदाधिकारी को, जो परिस्थिति विशेष में कोई भी हो सकता है. अव्वल तो विवाद की सूरत में आरजेडी के मामले में भी चुनाव आयोग उन बिंदुओं पर ही विचार करेगा जो शिवसेना के मामले में किया है, लेकिन एहतियाती उपाय कुछ तो मददगार बनेंगे ही.

चुनाव आयोग ने शिवसेना को एकनाथ शिंदे गुट को सौंप दिया है. और अभी तक उद्धव ठाकरे को सुप्रीम कोर्ट से भी कोई मदद नहीं मिल पायी है. ऐसा भी नहीं है कि उद्धव ठाकरे की सुनवाई भी नहीं हो रही है, लेकिन ये तो है ही कि उनकी गुजारिश सुनी भी नहीं जा रही है. सुप्रीम कोर्ट ने न तो चुनाव आयोग के फैसले पर ही रोक लगायी है, न ही उद्धव ठाकरे की उस मांग पर कुछ कहा है कि एकनाथ शिंदे को व्हिप जारी करने और शिवसेना की संपत्ति पर काबिज होने से रोकने का आदेश दिया जाये - कुल मिलाकर देखें तो उद्धव ठाकरे सब कुछ गवां चुके हैं, और उम्मीद की आखिरी किरण अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही है.

शरद पवार के सामने सबसे बड़ी चिंता यही है. और यही वजह है कि शरद पवार ने इस मामले में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट किया है. पहले यही शरद पवार कह चुके हैं कि वो इस मामले में बिलकुल भी नहीं पड़ना चाहते - लेकिन अब वो पुराने स्टैंड से पीछे हट चुके हैं.

शिवसेना के नाम और चुनाव निशान विवाद में एनसीपी नेता शरद पवार का ताजा बयान है, 'चुनाव आयोग ने वही किया, जो सरकार चाहती थी... आयोग का दुरुपयोग किया गया है... हमने चुनाव आयोग का ऐसा फैसला कभी नहीं देखा.

शरद पवार इस सिलसिले में इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस के विभाजन और तब के चुनाव आयोग के फैसले की दुहाई दे रहे हैं. शरद पवार समझाना चाहते हैं कि तब चुनाव आयोग ने निशान तो नहीं लेकिन कांग्रेस पार्टी का नाम किसी एक के हवाले नहीं किया था.

शरद पवार, दरअसल, अपनी दलील को सही ठहराने के लिए आधा सच ही बता रहे हैं. असल में 1966 में सीपीआई के विभाजन के बाद 1967 में एसपी सेन वर्मा जब मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो चुनाव निशान को लेकर एक नियम बनाया, जिसे 'सिम्बल ऑर्डर 1968' कहा जाता है. आदेश के मुताबिक, किसी भी राजनीतिक पार्टी के विवाद या विलय की स्थिति में फैसले का अधिकार सिर्फ चुनाव आयोग के पास ही रहेगा. फिर 1971 में सादिक अली बनाम चुनाव आयोग केस सुप्रीम कोर्ट ने ऑर्डर के पैरा-15 की वैधता को बरकरार रखा था - और अब उद्धव ठाकरे के केस में भी इसी बात का डर है, जिसकी चिंता अभी से शरद पवार को खाये जा रही है.

शरद पवार ने इंदिरा गांधी के मामले की तरफ ध्यान दिलाया है. 1969 में कांग्रेस में बंटवारा हुआ तो दो गुटों को चुनाव आयोग से मान्यता मिली थी. कांग्रेस-ओ और कांग्रेस-जे. कांग्रेस-जे नाम तत्कालीन अध्यक्ष जगजीवन राम की वजह से रखा गया था, जिसकी नेता इंदिरा गांधी थीं. बाद में कांग्रेस-जे ही कांग्रेस-आई यानी इंदिरा में तब्दील हो गयी - और चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत को आधार बनाते हुए कांग्रेस-आई को असली गुट के तौर पर मान्यता दे दी.

और फिर शरद पवार की तरफ से जो बात जोर देकर पेश की जाती है, वो है - 'बालासाहेब ठाकरे ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि उनके बाद उद्धव ठाकरे को शिवसेना की जिम्मेदारी दी जाएगी.'

मतलब, अब शरद पवार ये बताना चाहते हैं कि चुनाव आयोग के फैसले के बाद जो दावा एकनाथ शिंदे गुट कर रहा है या फिर जिस तरह से बीजेपी की तरफ से अमित शाह और देवेंद्र फडणवीस बधाई दे रहे हैं - वो सब बालासाहेब ठाकरे नहीं चाहते थे. मतलब, जो कुछ हुआ है वो बालासाहेब की इच्छा के विरुद्ध हुआ है.

दरअसल, अब तक एकनाथ शिंदे और बीजेपी की तरफ से यही समझाने की कोशिश हो रही थी कि उद्धव ठाकरे ने जो किया है, वो बालासाहेब ठाकरे की इच्छा के खिलाफ रहा है. शिंदे और बीजेपी ने उद्धव ठाकरे को कठघरे में खड़ा करने के लिए उनके हिंदुत्व के मुद्दे से भटक जाने का आरोप लगाया था. बीजेपी की छत्रछाया में ही सही, एकनाथ शिंदे भी शिवसेना के एक गुट को ये समझाने में सफल रहे कि उद्धव ठाकरे ने कुर्सी के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाया और हिंदुत्व का मुद्दा पीछे छोड़ दिया. उद्धव ठाकरे लाख सफाई देते रहे लेकिन कोई सुनने को तैयार न हुआ.

अब शरद पवार, उद्धव ठाकरे के साथ दोस्ती निभा रहे हों या फिर गठबंधन धर्म का निर्वहन, लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या शरद पवार को ये डर सताने लगा है कि कहीं उनका हाल भी उद्धव ठाकरे जैसा न हो जाये?

एकबारगी ऐसा तो नहीं लगता. अगर तुलना की जाये, कम से कम इस प्रसंग में, तो शरद पवार की उद्धव ठाकरे से तुलना नहीं हो सकती. हां, शरद पवार और बालासाहेब ठाकरे की तुलना जरूर हो सकती है. जैसे बालासाहेब ठाकरे शिवसेना के संस्थापक रहे हैं, शरद पवार ने भी एनसीपी बनायी है.

फिर उद्धव ठाकरे की बराबरी में एनसीपी से कौन आएगा - देखा जाये तो सुप्रिया सुले ही उद्धव ठाकरे की बराबरी में लगती हैं.

बालासाहेब ठाकरे का नाम लेकर शरद पवार भी अपनी इच्छा की तरफ इशारा कर रहे हैं - साफ है, शरद पवार भी सुप्रिया सुले को वैसे ही विरासत सौंपना चाहते हैं, जैसे बाल ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को सौंपी थी.

और एनसीपी के मामले में देखें तो राज ठाकरे की तरफ अजित पवार की भूमिका लगता है. राज ठाकरे को तो बाल ठाकरे ने अपने हिसाब से पहले ही निबटा दिया था, लेकिन वो एकनाथ शिंदे पैदा न हों, ऐसा कोई इंतजाम नहीं कर पाये - ये कहना ज्यादा ठीक होगा कि उद्धव ठाकरे ऐसा नहीं कर सके.

शिवसेना के मामले में शरद पवार की चिंता एनसीपी की फिक्र बता रही है - कहीं ऐसा न कि उनके बाद वो दिन आये जब एनसीपी पर सुप्रिया सुले की जगह अजित पवार या कोई और काबिज हो जाये.

आखिर चाहते क्या हैं पवार?

तुलनात्मक रूप से देखें तो रामविलास पासवान ने भी ऑपरेशेन के लिए अस्पताल जाने से पहले साफ कर दिया था कि वो अपनी पूरी विरासत बेटे चिराग पासवान को सौंप कर जा रहे हैं, लेकिन बाद में ऐसी नौबत आ गयी कि उनके भाई पशुपति कुमार पारस बगावत कर बैठे.

बीजेपी नेतृत्व के पीठ पर हाथ रखते ही, पशुपति कुमार पारस उछल उछल कर कहने लगे कि चिराग पासवान, रामविलास पासवान के संपत्ति के वारिस हो सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक विरासत तो उनके पास ही है - चिराग पासवान तब बड़े ही मुश्किल दौर से गुजर रहे थे, एक तरफ नीतीश कुमार बीजेपी पर दबाव बनाये हुए थे और दूसरी तरफ चाचा पशुपति कुमार पारस.

वक्त बदला और नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ कर जाते ही, चिराग पासवान के फिर से अच्छे दिन आ गये. मुमकिन है, किसी दिन मोदी की कृपा से उद्धव ठाकरे के भी बहार के दिन आ जायें, लेकिन अभी तो दूर दूर तक ऐसा कुछ नहीं लगता.

चिराग पासवान जैसी चुनौतियां अखिलेश यादव के सामने भी आयी थीं, और तेजस्वी यादव के सामने भी. जैसे मुलायम सिंह ने ताना बाना बुन कर शिवपाल यादव को उलझा दिया, लालू यादव ने भी पप्पू यादव को बाहर और तेज प्रताप यादव को पीछे कर सब कुछ तेजस्वी यादव को सौंप दिया है.

शरद पवार नहीं चाहते कि सुप्रिया सुले को भी उद्धव ठाकरे जैसा दिन देखना पड़े और उनकी तमाम बातों का लब्बोलुआब यही लगता है - तभी तो वो अभी से एहतियाती इंतजामों में जुट गये हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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