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Updated: 08 अप्रिल, 2022 01:33 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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शरद पवार (Sharad Pawar) 2019 से ही विपक्ष की धुरी बने हुए हैं. पहले तो देश भर में विपक्षी दलों को एकजुट करने का हिस्सा बने, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को चैलेंज करने की सारी कवायद धरी की धरी रह गयी.

आम चुनाव की नाकामी के बावजूद शरद पवार का करिश्मा महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दिखा. सतारा की रैली में शरद पवार का बारिश में भीगते हुए भाषण देना आने वाले कई साल तक याद रखा जाएगा. महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूट जाने और नये गठबंधन की सरकार बनने के पीछे भी शरद पवार का दिमाग ही माना जाता है.

महाराष्ट्र में अगर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में गठबंधन सरकार अब तक चल रही है, तो बड़ा योगदान शरद पवार का ही है - और ये भी गांठ बांध कर रख लेना चाहिये कि भविष्य में उद्धव सरकार किसी न किसी वजह से गिरती भी है तो रिंग मास्टर शरद पवार ही होंगे. ये शरद पवार ही हैं जिन्होंने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की सलाह दी थी.

शरद पवार की मानें तो वो संजय राउत को इंसाफ दिलाने के लिए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने गये थे. संजय राउत का कहना है कि महाराष्ट्र सरकार गिराने के लिए उन पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है. ऐसे देखें तो प्रधानमंत्री मोदी से पवार का मिलना भी परोक्ष रूप से गठबंधन सरकार गिरने से बचाने की कोशिश लगती है.

ऐसे देखें तो महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार के बचे होने में ममता बनर्जी का भी थोड़ा बहुत योगदान लगता है. अगर पश्चिम बंगाल में बीजेपी को हार का मुंह नहीं देखना पड़ा होता तो महाराष्ट्र में काफी पहले ही 'खेला' हो गया होता. बंगाल के कारण बीजेपी के लिए यूपी की जंग जीतना जरूरी हो गया था - और अब गुजरात को लेकर भी बीजेपी काफी आश्वस्त हो गयी होगी.

पहले तो शरद पवार ने भी संकेत दिया था कि महाराष्ट्र का प्रयोग वो आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे - और कोशिश होगी कि उसी तर्ज पर केंद्र में भी विपक्षी दलों का गठबंधन खड़ा हो सके, लेकिन एनसीपी नेता के ताजा बयान से लगता है कि अब उनका इरादा बदल गया है.

शरद पवार ने साफ कर दिया है कि केंद्र विपक्षी गठबंधन (Opposition Alliance) का नेतृत्व करने का उनका कोई इरादा नहीं है. हां, साथ में ये जरूर जोड़ा है कि विपक्ष को एक मंच पर लाने में उनकी भूमिका निश्चित तौर पर हो सकती है.

आखिर शरद पवार के अचानक कदम पीछे खींच लेने के फैसले की क्या वजह हो सकती है. और कौन इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार लगता है - कांग्रेस या बीजेपी (Congress or BJP)?

क्या पवार के मन में कोई संकोच है?

हाल ही में शरद पवार की पार्टी एनसीपी के यूथ विंग ने अपने नेता को यूपीए का चेयरमैन बनाये जाने को लेकर एक प्रस्ताव पास किया था. 2004 में सरकार बनाने के लिए बनाये गये यूपीए की शुरू से ही चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं. 2017 के आखिर में जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की ताजपोशी कबूल कर ली थी, तो ऐसे संकेत मिलने लगे थे कि यूपीए का जिम्मा भी किसी को सौंपा जा सकता है. लेकिन 2019 के आम चुनाव के बाद से जैसे ही कांग्रेस की जिम्मेदारी फिर से सोनिया गांधी के कंधों पर आ गयी, यूपीए की कमान को लेकर कांग्रेस की तरफ से सोच विचार भी बंद हो गयी.

sharad pawarशरद पवार विपक्ष को एक मंच पर लाने की बात करना तो राजनीतिक तफरीह जैसा ही लगता है!

ममता बनर्जी के यूपीए के अस्तित्व पर सवाल उठाने के काफी पहले, शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने मीडिया के जरिये शरद पवार को यूपीए का अध्यक्ष बनाये जाने की मांग रखी. संजय राउत की बातों से तब ऐसा भी लगा था कि वो विपक्षी खेमे के अन्य नेताओं को भी यूपीए से जोड़ने के पक्ष में हैं. संजय राउत ने ये समझाने की भी कोशिश की कि अगर शरद पवार को यूपीए की कमान नहीं मिलती तो ऐसा कोई नया फोरम खड़ा किया जाये.

शरद पवार को यूपीए की तुलना में MVA अच्छा तो लगता ही होगा, लेकिन वहां उनको स्कोप कम ही नजर आता है. शरद पवार निजी तौर पर कांग्रेस को किनारे रख कर किसी विपक्षी गठबंधन के पक्ष में कभी नजर नहीं आये - यहां तक कि जब ममता बनर्जी ने खुल कर ये प्रस्ताव रखा तो भी मंजूरी नहीं दी.

संजय राउत ने फिर कहा है कि शरद पवार के बगैर विपक्ष को एकजुट करना मुश्किल है. 2019 में शरद पवार के साथ साथ पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा भी खासे सक्रिय रहे - और दोनों के बारे में ये राय बनी थी कि चूंकि दोनों में से कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं है, इसलिए विपक्ष के किसी भी नेता को उनके नाम पर ऐतराज नहीं है. ममता बनर्जी ने भी कहा है कि शरद पवार वरिष्ठ नेता हैं, सारे लोग उनकी बात सुनते हैं.

पवार के पीछे हटने की वजह महाराष्ट्र ही है या कुछ और: ये राजनीतिक हालात ही हैं जिनकी बदौलत कोई भी गठबंधन खड़ा होता है और कोई कॉमन एजेंडा ही उसे लंबे समय तक कायम रख पाता है.

2015 में बिहार के महागठबंधन का एक ही एजेंडा रहा - जैसे भी संभव हो बीजेपी को सरकार बनाने से रोकना. लेकिन वो दो साल भी नहीं चल सका, टूट गया. महाराष्ट्र में भी सत्ताधारी गठबंधन बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के मकसद से ही बना है और चल रहा है. महाराष्ट्र को लेकर शरद पवार का ताजा बयान है कि सरकार पूरे पांच साल चलेगी.

शरद पवार लाख दावा करें, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर हाल फिलहाल कई चीजें ऐसी हो रही हैं जिसमें सरकार पर लगातार तलवार लटक रही है. 2019 में गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी और शिवसेना आमने सामने देखे जाते रहे, लेकिन गठबंधन की सरकार बन जाने के बाद स्तिति थोड़ी बदली हुई लगने लगी.

काफी समय तक लड़ाई बीजेपी बनाम गठबंधन लग रही थी, लेकिन एक बार फिर से दोनों फेस टू फेस खड़े हो गये लगते हैं. ऐसा होने के कम से कम दो कारण साफ तौर पर लगते हैं. पहला, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के एक खास रिश्तेदार की 7 करोड़ की संपत्ति प्रवर्तन निदेशालय द्वारा सीज कर लिया जाना - और उसके बाद संजय राउत की पत्नी वर्षा राउत के खिलाफ भी वैसी ही कार्रवाई होना.

महाराष्ट्र में बीजेपी भी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. मौजूदा गठबंधन टूटने की नौबत आती है तो बीजेपी और शिवसेना चाहें तो मिल कर सरकार बना सकते हैं, लेकिन भला ये सब शरद पवार को हजम कैसे होगा. केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की वजह से शरद पवार को लगता है कि एनसीपी को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है.

अब एनसीपी को बचाये रखने के लिए शरद पवार के पास भी एक ही रास्ता है - या तो वो महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार को कायम रखने की कोशिश करें और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को इकट्ठा कर बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश करें या फिर नीतीश कुमार की ही तरह पाला बदल लें. मतलब, जब मामला खतरनाक लगे, मौजूदा गठबंधन तोड़ कर वो बीजेपी से हाथ मिला लें.

विपक्ष के नेतृत्व को लेकर शरद पवार का कहना है, 'हाल ही में, हमारी पार्टी के कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने एक प्रस्ताव पारित कर मुझे यूपीए का अध्यक्ष बनने के लिए कहा... लेकिन मुझे उस पद में जरा भी दिलचस्पी नहीं है... मैं इसमें नहीं पड़ने वाला... मैं वो जिम्मेदारी नहीं लूंगा.'

ऐसा भी नहीं कि शरद पवार को शिवसेना या कांग्रेस से प्रेम और बीजेपी से नफरत हो. खबरें तो यही बताती हैं कि उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने से हफ्ता भर पहले प्रधानमंत्री मोदी से पवार बीजेपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाने पर भी चर्चा किये ही थे.

फिर क्या समझें विपक्ष के नेतृत्व से शरद पवार के कदम पीछे खींच लेने की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस और शिवसेना है या केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी?

विपक्ष के एकजुट होने पर नाउम्मीद तो नहीं?

विपक्ष को एकजुट करने की कवायद 2014 से पहले देश में तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशों जैसा ही हो गया है. हर चुनाव से पहले विपक्षी खेमे के तमाम सीनियर नेता कहीं न कहीं इककट्ठे होते थे और एक या दो मीटिंग के बाद घर बैठ जाते थे - क्योंकि उनमें से एक-दो को छोड़ कर सभी प्रधानमंत्री पद के ही दावेदार हुआ करते थे.

विपक्षी खेमे में शरद पवार को छोड़ दें तो प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार हैं. संभव था अगर यूपी में समाजवादी पार्टी जीत गयी होती तो अखिलेश यादव भी नये दावेदार बन चुके होते. जैसे पश्चिम बंगाल की जीत के बाद ममता बनर्जी और पंजाब में सरकार बनाने के बाद अरविंद केजरीवाल - राहुल गांधी तो हर राज्य में चुनाव हारने के बावजूद प्रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार बने हुए हैं.

विपक्ष के नेतृत्व से इनकार के बावजूद शरद पवार ये जरूर कह रहे हैं कि एक ही पार्टी का देश पर शासन नहीं होना चाहिये. शरद पवार के मुताबिक, एक पार्टी के शासन से तानाशाही पैदा होती है. कहते हैं, 'देश का हाल रूस जैसा हो जाएगा... हम नहीं चाहते कि भारत के पास वैसा ही पुतिन हों.'

शरद पवार की बातों से ऐसा लगता है कि वो बीजेपी के शासन को लेकर खामोश तो नहीं रहना चाहते, लेकिन उनको कोई विकल्प भी नजर नहीं आ रहा है - शायद विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की जिद के चलते उनको भरोसा न हो रहा हो.

1. ममता बनर्जी की भूमिका: पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद ही ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीति पर काबिज होने के लिए आक्रामक तरीके से सक्रिय हैं, लेकिन देखा जाये तो शरद पवार भाव नहीं दे रहे हैं.

ममता बनर्जी को अलग से भाव नहीं देने में कांग्रेस को लेकर उनकी राय नहीं बदलना भी एक बड़ा कारण लग रहा है. कांग्रेस के लगातार घटिया प्रदर्शन के बावजूद शरद पवार की राय नहीं बदली है, 'आप हर गांव, जिले और राज्य में कांग्रेस के कार्यकर्ता पाएंगे... सच्चाई ये है कि विकल्प पेश करते हुए कांग्रेस को शामिल करना जरूरी है.'

ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे में शरद पवार का मुलाकात न करना, यूपीए पर तृणमूल कांग्रेस नेता के बयान का सपोर्ट न करना और उनको बायपास कर सोनिया गांधी की मीटिंग में शामिल होना - कम से कम ये तीन वाकये बता रहे हैं कि ममता बनर्जी को लेकर शरद पवार उनकी जरूरत भर उपयोगिता से ज्यादा के पक्ष में नहीं हैं.

मुश्किल ये है कि ममता बनर्जी भी फिलहाल प्रधानमंत्री की कुर्सी से कम पर राजी हो पाएंगी, ऐसा नहीं लगता - और ऐसी परिस्थिति में भला शरद पवार विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व को क्यों तैयार हों, जिसमें नाकामी पहले से ही नजर आ रही हो.

2. अरविंद केजरीवाल का रोल: पंजाब चुनाव जीतने के बाद अरविंद केजरीवाल के इरादे सबके सामने आ गये हैं. वो गुजरात जाकर एक मौका देने की बात कर रहे हैं. पंजाब में 20 दिन में ही भ्रष्टाचार खत्म कर देने के दावे के साथ हिमाचल प्रदेश के लोगों को भी लॉलीपॉप दिखा रहे हैं.

जाहिर है, अरविंद केजरीवाल सब कुछ अपने बूते करना चाहते हैं. पहले भी वो विपक्षी दलों के बीज मिसफिट रहे हैं और अब तो लगता होगा कि जरूरत ही क्या है?

ये तो शरद पवार भी जानते हैं कि जिस पार्टी की दो राज्यों में सरकार हो, भला उसे नजरअंदाज कर विपक्ष कितना मजबूत हो पाएगा?

3. राहुल गांधी की जिद: राहुल गांधी को तो न अरविंद केजरीवाल पसंद हैं और न अब ममता बनर्जी बर्दाश्त हो पा रही होंगी - और जिस तरीके की राजनीतिक राह पर वो संघर्ष कर रहे हैं, प्रधानमंत्री पद पर आजीवन दावेदारी तो उनकी ही बनती है.

अब ये जानते हुए भी कि कांग्रेस न चुनाव जीतने के उपाय कर पा रही है, न प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी छोड़ रही है, भला शरद पवार विपक्ष का नेता बन कर अपना अब तक का किया धरा क्यों बर्बाद करें - परदे के पीछे की राजनीति में कल को बीजेपी के साथ हाथ मिला लेने का स्कोप तो बचा हुआ है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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