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Updated: 28 मार्च, 2020 11:28 AM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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कोरोना वायरस (Coronavirus) के कहर की अनदेखी करने वाले शाहीन बाग (Shaheenbagh) में बैठे प्रदर्शनकारियों को दिल्ली पुलिस (Delhi Police) ने अन्तत: जबरदस्ती हटा दिया. ये कोरोना वायरस से सहमें देश के धरने को समाप्त करने की तमाम अपीलों को भी खारिज कर रहे थे. इन बेहद विषम हालातों में इनकी जिद्द के कारण सारा देश ही इनसे नाराज था. इनसे मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों से लेकर समाज के अन्य सभी वर्गों के महत्वपूर्ण लोग धरने को खत्म करने के लिए हाथ जोड़ रहे थे. पर धरने देने वाली औरतें किसी की भी सुनने को तैयार ही नहीं थी. यह तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी वाली स्थिति थी. पहली बात यह कि शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ धरना (Shaheenbagh Anti CAA Protest) ऐसे स्थान पर चल रहा था, जहां पर उसे चलना ही नहीं चाहिए था. पर शुरू में ही प्रशासन और दिल्ली पुलिस की लापरवाही और नाकामी के कारण ये औरतें धरने पर बैठ गईं या कुछ दिग्भ्रमित समाज विरोधी तत्वों के द्वारा बैठा दी गईं. उसके बाद इन्होने पूरी सड़क घेर ली और अब अपनी जगह से हिलने के लिए तैयार ही नहीं थी.

Shaheenbagh, CAA Protest, Delhi Police, Modi Government शाहीनबाग़ में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शन करती महिलाएं

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह तो बार-बार यह कह ही रहे थे कि भारत के नागरिकों पर (सीएए) या एनआरए का कोई असर ही नहीं होगा. इसके बावजूद शाहीन बाग की आदरणीय दादियाँ टस से मस होने के लिए तैयार नहीं थीं. इनकी जिद तब तो सारी सीमाओं को पार गई जब ये जनता कर्फ्यू के आह्वान के समय भी धरना स्थल पर मौजूद थीं. भले ही मात्र दो-चार ही बची थीं प्रधानमंत्री ने कोरोना से लड़ने के लिए जनता कर्फ्यू का आहवान किया था. इन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि दुनिया की करीब दो अरब आबादी पूरी तरह लॉकडाउन में है.

वह अपने घरों के अंदर कैद हैं, कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे के कारण. पर इन्हें तो इतनी विषय परिस्थिति से भी मानो कोई सरोकार ही नहीं था. यह अच्छा ही हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी के पूरे भारत में लॉकडाउन लागू करने की घोषणा से पहले ही शाहीन बाग के धरने को हटा दिया गया. यदि शाहीन बाग में धरने को तमाम अपीलों के समय ही खत्म करने के बारे में फैसला हो जाता तो आंदोलनकारियों की भी बची-खुची इज्जत बच जाती.

पर उन्हें अपने मान-सम्मान की भी कोई परवाह ही नहीं थी. आखिर जब ये नहीं हट रही थीं तो दिल्ली पुलिस ने इस गैर क़ानूनी धरने को जबरदस्ती हटा दिया. इनके टैंट आदि को पूरी तरह जेसीबी उखाड़ दिया और ट्रकों में लड़कर ले गये. इस तरह 15 दिसंबर से चले आ रहे धरने का अंत हो गया. बड़ें बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले, वाली कहावत चरितार्थ हुई.

गौर करने वाली बात यह है कि जब धरने को हटाया जा रहा था तब बहुत से स्थानीय लोग पुलिस को उपहार स्वरूप फूल दे रहे थे. वे धरने को खत्म करने का तहेदिल से समर्थन कर रहे थे. याद रखें कि पुलिस को फूल देने वाले ज्यादातर मुस्लिम समाज के ही लोग थे. इन्हें भी अब समझ में आने लगा था कि शाहीन बाग के धरने ने अपनी उपयोगिता खो दी है.

पुलिस कारवाई को समाज के विभिन्न वर्गों का समर्थन मिला. पर इन आंदोलनकारियों के जिद्दी रवैया के कारण इनसे सब दूर होने लगे थे. माफ करें, पर यह सच है कि शाहीन बाग का मंच तो मुख्य रूप से देश विरोधी शक्तियों को मिलने लगा था. शाहीन बाग के मंच से प्रदशर्नकारियों को जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष ने कहा था कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो लड़ाई चल रही है उसमें हम कश्मीर को पीछे नहीं छोड़ सकते.

कश्मीर से ही संविधान में छेड़छाड़ शुरू हुई है. आइशी घोष ने ये बातें कश्मीर के संदर्भ में कही थीं. अब बताइये कि सीएए का कश्मीर से क्या सम्बन्ध है ? उनका इशारा जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 हटाने की ओर था. घोष जब भाषण दे रही थी तब तबीयत से तालियां भी पीटी जा रही थी. उन्हें किसी ने रोका भी नहीं था. क्यों? इसी शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कथित मानवाधिकारवादी हर्ष मंदर ने भी कहा था हमें सुप्रीम कोर्ट या संसद से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है.

हमें सड़क पर उतरना ही होगा. मंदर के जहरीले भाषण को भी सैकड़ों की तादाद में लोगों ने सुना था. हालांकि शाहीन बाग की दादियां तो यह बार-बार कह रह रही थीं कि वे संविधान की रक्षा के लिए आंदोलनरत हैं. पर अफसोस जब आइषी घोष या हर्ष मंदर देश विरोधी भाषण दे रहे थे तब कोई बोला नहीं था. भला दादियों को संविधान का क्या पता? क्या यह सच नहीं है कि शाहीन बाग आंदोलन का ही हिस्सा था आतंकवादी शरजील इमाम? वह गर्व से ख़ुद को शाहीन बाग़ में चले विरोध प्रदर्शन का आयोजक भी बताता रहा था.

शरजील कहता था 'अगर हमें असम के लोगों की मदद करनी है तो उसे भारत से काट देना करना होगा,' इमाम खुल्लम खुल्ला झूठ बयाँ कर रहा था, 'असम में जो मुसलमानों का हाल है, आपको पता है. सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) लागू हो गया वहां. डिटेंशन कैंप में लोग डाले जा रहे हैं. वहां क़त्ल-ए-आम चल रहा है. छह-आठ महीने में पता चला सारे बंगालियों को मार दिया, हिंदू हो या मुसलमान.' वह साफ झूठ बयां कर मुसलमानों को भडका रहा था.

खैर, अब शाहीन बाग का आंदोलन तो खत्म हो गया है. कोरोना वायरस पर विजय पाने के बाद देश में सामान्य स्थितियां भी बहाल हो जाएंगी. तब देश में सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन करने की छूट होगी. लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है. जाहिर है, सामान्य हालातों में फिर से धऱने-प्रदर्शन और रैलियों के दौर चालू हो जाएंगे. इसमें कोई भी बुराई भी नहीं है.

पर अब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि धरने- रैलियों उन्हीं स्थानों पर हों जो जगह इन सबके लिए तय हैं. दिल्ली में इस बाबत जंतर-मंतर निर्धारित जगह है. वहां पर लंबे समय से धरने आयोजित हो रहे हैं.

बड़ा सवाल यह है किसने शाहीन बाग की दादियों को दक्षिण दिल्ली की एक खास सड़क पर धरना देने की इजाजत दे दी ? तब ही उन पर कठोर एक्शन क्यों नहीं हुआ? चूक कहां हुई? क्या किसी को नेशनल हाईवे पर धरना देने की अनुमति मिल सकती है? नहीं न. तो फिर किसी को अति महत्वपूर्ण सड़क पर धरना देने की अनुमति क्यों दी गई? इन सवालों के जवाब देश को चाहिए.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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