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Updated: 13 जनवरी, 2023 05:57 PM
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2019 के केंद्र सरकार के फैसले पर ऐसा क्या हो गया कि हंगामा बरपा गया ? दिसंबर 2022 तक तो सब कुछ ठीक था. सालों दर सालों से जैन तीर्थ यात्री सम्मेद शिखर जी खूब आ रहे थे, आदिवासी भी अपने तौर तरीकों से अपने इष्ट देवता मरंगबुरू की पूजा अर्चना करते आ रहे थे. अन्य लोग, जो ना तो जैन है ना ही आदिवासी, पारसनाथ पहाड़ घूमने और पिकनिक मनाने भी आते रहे थे. लेकिन जनवरी 2023 से मानों सब कुछ बदल गया है. क्यों कर सैंकड़ों वर्षों का समन्वय अशांत हो चला है - समझना आसान नहीं है ! दरअसल एकाएक ही अप्रत्याशित अनकही और अनचाही टकराव की स्थिति निर्मित हो गई है या फिर बिना किसी लाग लपेट के कहें तो निर्मित कर दी गई हैं. क़यास भी लगाए जा रहें हैं परंतु विडंबना ही है कि सारे ही स्वार्थपरक हैं. थोड़ा हार्श होगा कहना लेकिन रहा नहीं जा रहा कहते हुए कि फर्जी आवाजों के पीछे विशुद्ध राजनीति है. कुल मिलाकर झारखंड की पारसनाथ पहाड़ी विवाद का केंद्र बन गई है, हालांकि तब लगा था मामला शांत हो गया है जब केंद्र सरकार ने झारखंड में ‘सम्मेद शिखरजी’ से संबंधित पारसनाथ पहाड़ी पर सभी प्रकार की पर्यटन गतिविधियों पर रोक लगा दी और साथ ही झारखंड सरकार को इसकी शुचिता अक्षुण्ण रखने के लिए तत्काल सभी जरूरी कदम उठाने के निर्देश भी दे दिए.

Sammed Shikharji, Parasnath, Jharkhand, Hemant Soren, Jain, Tourism, Tourist, Modi Governmentसम्मेद शिखरजी के संरक्षण के लिए जैन समुदाय का प्रदर्शन लगातार जारी है

परंतु वस्तुस्थिति 'सम्मेद शिखरजी बनाम मरंग गुरू' निर्मित हो गई है. शायद यही राजनीतिक 'खेला' होता है जिसमें जैन समुदाय के साथ 'खेला' हो गया एक चूक की वजह से. काश! थोड़ा सा राजनैतिक कौशल जैन समुदाय के विभिन्न धड़ों के प्रतिनिधियों ने भी दिखाया होता और केंद्र सरकार के साथ साथ झारखण्ड राज्य की शिबू सोरेन सरकार को भरपूर श्रेय दे देते. अंततः शिबू सोरेन सरकार एक्सपोज़ होती नजर आ रही है, जेएमएम के विधायक और नेता गण खुलकर ताल ठोक रहे हैं कि 25 जनवरी तक अगर मरांग गुरु का अधिकार आदिवासियों को नहीं मिला तो हम ताकत दिखा देंगे.

आस्था के नाम पर कब्जा नहीं करने दिया जाएगा. उधर इंटरनेशनल संथाल कौंसिल कहता है 'जैन धर्म के लोग यहां अतिथि बनकर आये और वे सीएनटी एक्ट (जिसके तहत प्रावधान है कि संबंधित क्षेत्र में किसी आदिवासी की जमीन को कोई व्यवसायी अपने हित के लिए नहीं खरीद सकता. मकसद आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों की जमीनों को संरक्षित और सुरक्षित रखने का है) का सरेआम उल्लंघन करते आये हैं. 36 धर्मशालाएं बना ली, मंदिर बना लिए और अब कहते हैं कि मंदिर के 10 किमी के एरिया को जैन धर्म के लोगों के हवाले कर दिया जाए.'

अचानक ही क्योंकर मांग उठा दी गई है कि "पूरी पहाड़ी को केंद्र सरकार लिखित तौर पर मरांग बुरू घोषित करे, आदिवासी जमीन पर जो निर्माण हुए हैं उसको ध्वस्त किया जाए. जैन समाज के लोग तीर्थ करने के लिए आते रहें, उससे हमें कोई दिक्कत नहीं है. बस अपना अधिकार न जमाएं. ज जो भी तीर्थयात्री आज तक आए हैं, उनकी सेवा आदिवासियों ने ही की है. उन्हीं की बदौलत तीर्थयात्रा संभव हो पाती है.

उधर जैन समाज भी मानों बहक गया है या फिर वही कहें कि समाज को बहका दिया गया है. उग्र होना तो इस समाज का स्वभाव नहीं था, ना ही घमंड करना. फिर क्यों जगह जगह वे जुलूस निकाल रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं और नारे बुलंद कर रहे हैं कि 'गली गली में नारा है शिखर जी हमारा है.' दरअसल यही तो राजनीति है, बवाल खड़ा कर दो और फिर अपनी रोटियां सेंक लो. इस बार सदियों से समन्वित जैन समाज और जनजातीय समाज को आमने सामने खड़ा कर दिया गया है एक 'गोलमेज सम्मलेन' के लिए ताकि राजनीतिक पार्टियां और निहित स्वार्थी सोशलिस्ट और एक्टिविस्ट अपने अपने हित साध सकें.

आखिर विवाद होंगे तभी तो नेताओं की पूछ होगी .और अब तो समन्वय के लिए बैठकों का दौर शुरू हो गया है जिसकी शुरुआत ही बेमेल क्लेम से होती है कि पारसनाथ मरांग गुरु था, है और रहेगा ; "मरांग गुरु पारसनाथ" में तीर्थंकरों से जो संबंध रहा है वह आगे भी रहेगा. मुफ्त में बेचारा 'पर्यटन' बदनाम हो गया. जैन समाज को सशंकित कर गया कि इलाका व्यभिचार का अड्डा बन जाएगा, होटल खुल जाएंगे, नॉन वेज और शराब बिकेगी और भी ना जाने क्या क्या ? कौन बताए उन्हे कि 'धार्मिक स्थल' घोषित किया जाना तो आज तक किसी भी जगह के लिए नहीं हुआ.

अपनी अपनी आस्था होती है जिसके अनुसार लोग एक जगह को अपना धार्मिक स्थल मानने लगते हैं. हां, उनकी मांग होनी चाहिए थी 'धार्मिक पर्यटन स्थल' घोषित किया जाने की ताकि जैन धर्म की मान्यताओं और आस्था के अनुरूप आगंतुकों के आचार विचार और व्यवहार के लिए कायदे कानून लागू हो सके. ऐसा ही तो हर धार्मिक स्थल मसलन अमृतसर, सारनाथ , बोधगया में होता आया है. और नियम, कायदे कानून कैसे लागू किये जाने चाहिए या कैसे स्वतः ही अपनाये जाते हैं, देखना हो तो चले जाइये अमृतसर के स्वर्ण मंदिर या फिर सिक्किम के गंगटोक में.

यहां तक कि सम्मेद शिखर जी स्वयं प्रमाण है जहां गैर जैन भी श्रद्धा रखते आये हैं जैन धर्म की आस्था के प्रति. हां, अपवाद कहां नहीं होते ? क्या जैनों में ही अपवाद नहीं है? खैर ! बातें अंतहीन होती हैं. चलिए एग्जामिन करते हैं आखिर 2019 के केंद्र सरकार के फैसले पर इस वक्त हंगामा क्यों खड़ा हुआ ? झारखंड की तत्कालीन रघुवर दास सरकार की पहल को आगे बढ़ाते हुए मोदी सरकार के फैसले के मुताबिक जेएमएम की सोरेन सरकार ने पारसनाथ के इलाके को इको टूरिज्म क्षेत्र घोषित कर दिया था. और फिर बेवजह तूल देती घटनाओं का सिलसिला चालू हो गया.

शुरुआत हुई पिछले साल अक्टूबर महीने में पारसनाथ पर्यटन विकास प्राधिकरण के गठन की प्रक्रिया से जिसमें प्राधिकरण के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में दो दिगंबर जैन, दो श्वेतांबर जैन और दो स्थानीय आदिवासी समुदाय के सदस्य होने थे. बैठक में जैन समुदाय के लोगों ने यहां पर्यटन शब्द पर आपत्ति जताई थी. तत्पश्चात जो हुआ वो तो होना ही था यानी सोशल मीडिया का वायरल फीवर और दुर्भाग्य से तक़रीबन सौ फीसदी जैन तो है हीं सोशल मीडिया पर.

सो कह सकते हैं उनकी भावनाओं को भड़काने के लिए ही साल 2022 का एक वीडियो वायरल किया गया, जिसमें यह दिख रहा था कि कुछ लोग पारसनाथ पहाड़ पर पिकनिक कर रहे हैं, जिसमें वह मांस पका रहे हैं. इस वीडियो की पुष्टि के लिए केंद्र की कई एजेंसियों की चिट्ठी गिरिडीह जिलाधिकारी के पास पहुंची. और जब एक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण घर कर जाता है तो इंसान के एक्शन भी तदनुसार ही होते हैं.

और यह हुआ जब 28 दिसंबर 2022 को स्कूल छात्र-छात्राओं का एक दल पारसनाथ पहाड़ चढ़ने जा रहा था. उसी वक्त नागपुर के एक जैन तीर्थ यात्री संतोष जैन ने उन बच्चों को ऊपर जाने के रोक दिया. संतोष जैन का कहना था कि जूता-चप्पल लेकर ऊपर नहीं जा सकते हो. यह अपवित्र होता है. तुम लोग जैन नहीं हो, तो क्यों जा रहे हो? नतीजन स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया ये कहकर कि पहाड़ पर तो कोई भी जा सकता है. आज से नहीं, हमेशा से सभी लोग जाते रहे हैं. बात यहाँ तक बढ़ी कि स्थानीय लोगों ने विरोधस्वरूप बाजार भी बंद रखा.

दरअसल जैन समाज तो एक साल पहले से ही कुलबुलाने लगा था जब बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने 'जाहेर थान' में पूजा-अर्चना की और साथ ही वहां एक "जोहार मरांग बुरु" के तहत बोर्ड भी लगाया गया था. और फिर जैन धर्म गुरु विनम्र सागर जी महाराज का एक वीडियो भी वायरल हुआ, जिसमें उनकी 'विनम्रता' ध्वस्त होती नजर आयी. वे कह रहे है कि 'उसको यहां भगवान नहीं, रेवेन्यू दिख रहा है. पर्यटन स्थल बनाने के बाद आवागमन बढ़ेगा.

तो झारखंड सरकार का हो सकता है, कोष बढ़ जाए. वो मांगे, गले तक खोलकर जैन समाज से अपेक्षा कर दे, कि हमको इतना पैसा चाहिए, उनके गले तक हम ठूसकर नोट की गड्डी भर देंगे, इतनी ताकत रखते हैं.’एक बात होती है जो दिल को छू जाती है और एक बात होती है जो दिल पे ली जाती है. और वही जनजातीय समाज के साथ हुआ है. उन्हें लगता है कि हमारे 'नाम' को ही मिटा दिया गया है, केंद्र सरकार की चिट्ठी से लेकर अखबारों, चैनलों और अन्य मीडिया तक में पारसनाथ या सम्मेद शिखर के नाम का जिक्र होता है, कहीं भी मरांग बुरु नहीं लिखा जाता है. यही भावना जो घर करा दी गयी है, भारी पड़ रही है.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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