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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 18 जुलाई, 2020 11:34 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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सचिन पायलट (Sachin Pilot) का ये भर कहना कि वो बीजेपी में नहीं जा रहे हैं, ताजा विवाद में टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ है. यही वो सार्वजनिक बयान है जिसने कांग्रेस में सचिन पायलट के खिलाफ बह रही बयार की दिशा ही मोड़ दी है. देखा जाये तो प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) भी सचिन को कांग्रेस में बनाये रखने को लेकर एक्टिव उसके बाद ही हुई हैं.

सचिन पायलट को ये आश्वासन जरूर मिला है कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी दी जा सकती है, लेकिन पी. चिदंबरम (P. Chidambaram) के साथ हुई बातचीत के बाद कोई शक शुबहा नहीं होना चाहिये कि राजस्थान में तो उनकी एंट्री बैन ही रहने वाली है - और ऐसा तब तक तो संभव ही है जब तक अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं

बगावत भी पायलट को विरासत में मिली है

अव्वल तो प्रियंका गांधी वाड्रा की कोशिश सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच सुलह कराने की है, लेकिन ऐसा हुआ तो वो किसी के लिए भी ठीक नहीं होगा. न अशोक गहलोत के लिए, न सचिन पायलट के लिए और न ही कांग्रेस पार्टी के लिए ही.

एनडीटीवी ने सचिन पायलट के करीबी सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि प्रियंका गांधी वाड्रा से बातचीत के तीन घंटे बाद ही उनको डिप्टी सीएम और राजस्थान के पीसीसी अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया.

रिपोर्ट के मुताबिक, सचिन पायलट ने प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ बातचीत के दौरान बड़े धैर्य से उनकी बात सुनी. बातचीत में जब सचिन पायलट अपनी शिकायतें दर्ज कराने लगे तो प्रियंका गांधी की तरफ से आश्वासन मिला कि उस बारे में वो कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी से बात करेंगी. बातचीत में सचिन पायलट का सवाल था कि जब उनके खिलाफ एक्शन हो रहा है तो तालमेल और सुलह की बात कैसे हो सकती है? रिपोर्ट के अनुसार, सचिन पायलट का ये भी कहना रहा कि वो अशोक गहलोत के घर मीटिंग में हिस्सा कैसे ले सकते हैं जब उनको दरकिनार किया जा रहा है.

priyanka gandhi, sachin pilot, ashok gehlotअगर प्रियंका गांधी, अशोक गहलोत और सचिन पायलट में सुलह की कोशिश कर रही हैं तो ये कांग्रेस के हित में नहीं है

इंडिया टुडे को दिये इंटरव्यू में प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ हुए संपर्क के सवाल पर सचिन पायलट का कहना रहा कि ज्यादातर बातचीत व्यक्तिगत रही और बाकी बातों का कोई नतीजा नहीं निकला. हां, सचिन पायलट ने कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला के इस दावे को खारिज कर दिया था कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी उन तक पहुंचे थे. सचिन पायलट का कहना रहा कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी से उनकी कोई बातचीत नहीं हुई है.

अब सवाल है कि जब प्रियंका गांधी के साथ बातचीत में कोई नतीजा निकला ही नहीं तो सचिन पायलट को पदों से हटाया क्यों गया? और जब हटा दिया गया तो फिर आगे बातचीत का क्या मतलब रह जाता है?

आखिर प्रियंका गांधी का आश्वासन भी तो इतना ही भर रहा कि सचिन पायलट की जो शिकायतें हैं उन पर वो सोनिया गांधी और राहुल गांधी से बात करेंगी - क्या निगोशिएशन के दौरान एकतरफा एक्शन होने चाहिये?

दरअसल, सचिन पायलट के खिलाफ एक्शन एक तरीके से उनको सख्ती का एहसास कराने की कोशिश रही - और बाकियों के लिए चेतावनी, ताकि सनद रहे और फिलहाल या फिर भविष्य में कोई भी सचिन पायलट की तरह गांधी परिवार को चुनौती देने की हिमाकत न करे. असल में ये देखने को मिल रहा था कि कांग्रेस में अलग अलग छोर से सचिन पायलट के समर्थन में आवाजें उठने लगी थीं. मुंबई से प्रिया दत्त और संजय निरूपम तो यूपी से जितिन प्रसाद और प्रवक्ता पद से हटाये जाने के बाद भी संजय झा ट्विटर पर सचिन पायलट के पक्ष में मुहिम चलाये हुए थे. कपिल सिब्बल जैसे नेता भी कांग्रेस नेतृत्व पर कटाक्ष ही कर रहे थे. बाकी नेता भी कांग्रेस को लेकर दुख ऐसे जता रहे थे जिसमें सहानुभूति सचिन पायलट के साथ ही नजर आ रही थी. जब कांग्रेस नेतृत्व पर सीधे सवाल उठेंगे तो कोई न कोई सख्त कदम उठाये ही जाएंगे - सचिन पायलट के मामले में भी यही हुआ है.

हो सकता है सचिन पायलट के खिलाफ एक्शन न हुआ होता तो उनको सपोर्ट करने वाले कांग्रेस विधायकों की संख्या 18 से ज्यादा भी होती. सचिन पायलट भी खुद को उसी जगह से प्रोटेक्ट करते जो उनको कांग्रेस नेतृत्व ने बख्शीश समझ दे रखी थी. जो दिया था वो वापस ले लिया. बस इतना ही तो हुआ. अब हुआ तो हुआ. सचिन पायलट के खिलाफ एक्शन भले ही बाकी युवा कांग्रेसियों को सबक देने के लिए हो, लेकिन सोनिया गांधी ये तो नहीं ही भूली होंगी कि सचिन पायलट के पिता ने भी कभी उनको ही चैलेंज करने का मन बना लिया था. सच तो ये है कि सचिन पायलट को राजनीति तो विरासत में मिली ही, बगावती तेवर भी उसी विरासत का हिस्सा है.

1997 में सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट ने बगावत करके ही तो सीताराम केसरी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था. ये बात अलग है कि सीताराम केसरी से मात खा गये. लेकिन वो माने कहां - 1998 में तो वो सोनिया गांधी के खिलाफ भी मैदान में उतरने का फैसला कर ही चुके थे. वो तो कांग्रेस के ही उनके साथियों ने गांधी परिवार के पक्ष में दबाव डाल कर फैसला बदलने के लिए राजी कर लिया.

पहली मदद तो पायलट कांग्रेस में ही मांगते रहे हैं

मालूम होता है कि सचिन पायलट ने राजस्थान विधानसभा स्पीकर से मिले नोटिस को लेकर हाईकोर्ट जाने से पहले पी. चिदंबरम को फोन किया था - और अभिषेक मनु सिंघवी को भी. समझने वाली बात ये है कि कांग्रेस के ये दोनों ही सीनियर नेता देश के जाने माने वकीलों में शुमार किये जाते हैं.

हालांकि, राजस्थान हाई कोर्ट में सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों की तरफ से पैरवी मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे कर रहे हैं, जबकि अभिषेक मनु सिंघवीअदालत में राजस्थान के स्पीकर सीपी जोशी का पक्ष रख रहे हैं. सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों में बहस भी हुई है.

हाई कोर्ट में हो रही इस बहस का एक बड़ा ही दिलचस्प पहलू भी है, जिसका जिक्र सूत्र बन कर मीडिया से बातचीत कर रहे कांग्रेस नेता भी कई बार कर चुके हैं. ये कांग्रेस नेता सचिन पायलट के वकीलों की पसंद की तरफ भी इशारा कर रहे हैं. पेशा तो पेशा है, लेकिन अमूमन मुकुल रोहतगी अक्सर बीजेपी नेताओं की तरफ से अदालतों में पेश होते हैं और कांग्रेस की तरफ से अभिषेक मनु सिंघवी के साथ भी तीखी बहसें रूटीन जैसी ही हैं.

अब अगर कांग्रेस नेता सचिन पायलट के वकीलों की पसंद के आधार पर उनकी बीजेपी से करीबी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं ये उनकी नासमझी और जानकारी का अभाव ही लगता है. सच बिलकुल उसका उलटा है.

सच तो ये है कि सचिन पायलट ने कानूनी राय के लिए सबसे पहले कांग्रेस के भीतर ही फोन किया है. इंटरव्यू में जब सचिन पायलट से पूछा गया था कि सार्वजनिक लड़ाई की जगह वो क्यों नहीं पार्टी फोरम पर कोशिश किये, जवाब यही रहा कि पहले तो वहीं गये थे. सचिन पायलट के मुताबिक वो अपनी मुश्किल हर मंच पर उठा चुके थे, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. खबर तो ये भी है कि खुली बगावत से पहले सचिन पायलट अपने विधायकों के साथ सोनिया गांधी से मिलकर बात करना चाहते थे, लेकिन उनको अहमद पटेल के पास भेज दिया गया था - और ऐसे मामलों को डील करने के लिए अहमद पटेल तो अपनेआम में एक कमेटी ही हैं - ठीक वैसे ही जैसे हर चुनावी हार के बाद एके एंटनी के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी जाती है. जिसकी जांच रिपोर्ट पहले से तैयार रहती है, सिर्फ तारीख और जगह छोड़ कर.

अभिषेक मनु सिंघवी ने एनडीटीवी को बताया है कि सचिन पायलट ने कानूनी राय और केस की पैरवी के लिए उनको फोन किया था, लेकिन वो पहले से ही स्पीकर को कानूनी राय दे रहे थे. लिहाजा हंस कर मना कर दिया. बातचीत में पी. चिदंबरम ने कानूनी तो नहीं लेकिन व्यवहारिक राय देने के जिक्र जरूर किया है. चिदंबरम ने सचिन पायलट को साफ साफ बता दिया है कि कांग्रेस फोरम पर ही बातचीत के जरिये रास्ता निकालने का उनके पास पूरा मौका है, लेकिन सबकुछ पहले जैसा तो संभव नहीं है. राजस्थान में भी संभावना न के बराबर ही है, राष्ट्रीय राजनीति में किसी न किसी रूप में एकोमोडेट जरूर किया जाएगा.

सवाल है कि स्पीकर कानूनी राय न भी मांगे होते तो क्या अभिषेक मनु सिंघवी के पास हंस कर टालने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था. अदालतों जैसी बहसें गांधी परिवार के दरबार में तो होने से रहीं. मुमकिन भी नहीं हैं. वैसे मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे ने सचिन पायलट की तरफ से हाईकोर्ट में भी ऐसी ही दलील दी है - अपनी बात रखना बगावत कैसे मानी जा सकती है?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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