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Updated: 05 मार्च, 2022 12:46 PM
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रूस- यूक्रेन युद्ध को लेकर संयुक्त राष्ट्र में हुई वोटिंग में तीसरी बार भारत अनुपस्थित रहकर तटस्थ रहा. खुद को दुनिया का दरोग़ा समझने वाले अमेरिका का भारत से कहना है कि वह रूस के साथ अपने संबंधों से अलग हो जाए. अमेरिका के असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ साउथ एंड सेंट्रल एशिया डोनाल्ड लू तो एक कदम और आगे बढ़ गए. जो बात भारत को पता नहीं है वह दुनिया को बताने लगे. भारत की तरफ़ से लू ने हीं कह दिया कि भारत ने रूस के साथ MIG 29, रशियन हेलीकाप्टर और एंटी टैंक वैपन का ऑर्डर कैंसिल कर दिया है. लू ने कहा कि हम इस दिशा में काम कर रहे हैं कि भारत रूस को लेकर अपना नजरिया साफ़ करे. दरअसल अमेरिका का ग़ुस्सा इस बात को लेकर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया को बता दिया है कि भारत जियो पोलिटिकल स्ट्रैटेजी में किसी का पिछलग्गू नहीं है. रूस -यूक्रेन युद्ध ने भारत के बार्गेनिंग पावर को भी बढ़ा दिया है.

कुछ लोग इसे भारत का डिलेमा या किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति बता रहे हैं मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर-लाल नेहरु के नॅन एलाईनमेंट मूवमेंट के दर्शन के रास्ते पर चलने का फ़ैसला कर दुनिया को यह बता दिया है कि कि भारत एक संप्रभुता संपन्न देश है और उसके हक में क्या है वह अच्छे से जानता है.

भारत ने भी एक क़दम आगे बढ़कर क्वाड के देशों को समझा दिया है कि हमें रूस-यूक्रेन मामले से ख़ुद को दूर ही रखना है. इसे लेकर देश भर में बहस चल रही है कि भारत के हित में क्या है और उसे क्या करना चाहिए. कुछ लोगों का तर्क है कि भारत महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन से पैदा हुआ और नेहरू के आदर्शवादी लोकतांत्रिक सपने का देश है.

Joe Biden, America, Russia, Ukraine, India, Narendra Modi, Prime Minister, War, Chinaरूस यूक्रेन विवाद पर भारत ने दुनिया को अपना रुख बता दिया है

फिर रूस की विस्तारवादी नीति के ख़िलाफ़ हमें क्यों नहीं खड़ा होना चाहिए. कुछ व्यवसायिक हित वाले लोगों को लगता है कि अमेरिका के साथ रहने में भारत की भलाई है क्योंकि हाल के बरसों में भारत और अमेरिका कम से कम व्यापार के मामलों में काफ़ी आगे निकले हैं और भारत अमेरिका की नज़दीकियों की वजह से ही अमेरिका ने पाकिस्तान को मदद देना बंद किया है जिससे पाकिस्तान की कमर टूटी है.

भारत की नई पीढ़ी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका में हाउडी मोदी के नारों के बीच गरजते और बरसते देखा है, शानदार स्वागत भी देखा है. अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा से लेकर प्रधानमंत्री मोदी के जबरा दोस्त बराक ओबामा और डॉनल्ड ट्रंप की भारत की यात्रा की भव्यता भी देखी है. मगर लाख टके का सवाल है दिखाऊ और टिकाऊ में तो अंतर होता ही है.

भारत अमेरिका के बीच रिश्ते दुकान के बाहर लगे हुए उस पैंम्पलेट की तरह है कि फ़ैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा ना करें.बदली हुई परिस्थितियों में अमेरिका भारत को अपना क़रीबी मित्र मानता है मगर भारत ने जो भुगता है उसे लेकर अभी भी अमेरिका के प्रति भरोसे का संकट है.

भारत और रूस की दोस्ती बहुत पुरानी नहीं है मगर आंख मूंदकर कर भरोसा करनेवाली रही है. आज़ादी के बाद पहली बार जब भारत पर संकट खड़ा हुआ तो अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक जो भारत को अपना मानते थे दूर खड़े होकर तमाशा देखते रहे. प्रधानमंत्री जवाहर-लाल नेहरू सत्य -अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले एक नए लोकतांत्रिक देश के अलावा व्यक्तिगत रूप में भी मदद मांगते रहे मगर तथा कथित दोस्त नहीं आए और आगे बढ़कर संभालने आया तो सोवियत संघ रूस.

1959 से लेकर 1962 तक भारत चीन के सम्राज्यवादी नीतियों और धोखे का शिकार होता रहा. ठीक वैसे हीं जैसे अमेरिका और पश्चिमी यूरोप आज यूक्रेन को लेकर रूस पर आरोप लगाते हैं .परिस्थितियां वही हैं मगर जो लोग भारत से मदद मांग रहे हैं उनके सोचने का नजरिया तब अलग था और आज अलग है. अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी खुद को भारत का मित्र कहते थे. कैनेडी खुद को मानवता का मित्र भी कहते थे.

चीन ने भारत पर हमला किया तो प्रधानमंत्री नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को दो चिट्ठियां लिखी. नेहरू ने कहा कि हमें कम से कम 12 फ़ाईटर प्लेन और मॉडर्न रडार सिस्टम दे दो. पर कनेडी ने मना कर दिया.बावजूद इसके कि अमेरिका और ब्रिटेन चीन के साम्राज्यवादी नीति और भारत पर हमले का कड़ा विरोध कर रहे थे पर युद्ध होने पर साथ नहीं दिया. ब्रिटेन ने भी फाइटर जेट देने से मना कर दिया.

भारत उस वक़्त भरोसा कर अमेरिका और खुफिया ऐजेंसीसीआईए के भरोसे रहा चीन के खिलाफ रणनीति बनाते रहा. मगर तब भारत का साथ देने के लिए रूस सामने आया. यह सच है कि स्टालिन कभी भी नेहरू को पसंद नहीं करता था और लोकतांत्रिक देश के नाते नेहरू की अमेरिका से दोस्ती को वह संदेह के नज़रिए से देखता था.

इसके बावजूद सोवियत संघ के तत्कालीन प्रमुख निकिता ख्रुश्चेव ने भारत को हथियार और मिग फ़ाईटर प्लेन भेजे. जब इजिप्ट को छोड़कर नेहरू के नॅन एलाईनमेंट मूवमेंट यानी निर्गुट देशों ने साथ देने या स्टैंड लेने से मना कर दिया था तब युद्ध के बीच अगस्त 1962 में रूस-भारत में 12 मिग फ़ाईटर के लिए एग्रीमेंट हुआ.

ऐसी बात नहीं थी कि अमेरिका मदद नहीं कर सकता था क्योंकि उसी वक़्त सोवियत संघ रूस को घेरने के लिए वह इटली और तुर्की में जूपिटर ब्लास्टिक मिसाइलें तैनात कर रहा था पर उसे लगा कि अब बिना किसी फ़ायदे के हम भारत के पचड़े में क्यों फँसे और चीन को क्यों नाराज़ करें क्योंकि चीन सोवियत संघ को घेरने के लिए उनके काम आ सकता था.भारत ने एक बार फिर अमेरिका से 1964 में भी फाइटर जेट देने के लिए कहा मगर उस वक़्त भी अमेरिका और ब्रिटेन दोनों ने दुबारा से मना कर दिया.

अमेरिका ने युद्ध में तो साथ दिया नहीं मगर उल्टे नाराज़ होकर सोवियत संघ को घेरने के लिए पाकिस्तान से दोस्ती कर ली. वह भारत और सोवियत संघ की नजदीकियों से नाराज़ होकर पाकिस्तान को खुब मदद करने लगा. चीन और अमेरिका के बीच भारत और सोवियत संघ के खिलाफ़ प्रगाढ़ दोस्ती हुई. आज जो चीन की ऊंचाई दिख रही है उसकी देन अमेरिका ही है.

आज भले ही अमेरिका चीन से परेशान हैं मगर सच्चाई यही है कि चीन के बाज़ार को अमेरिका और उसके दोस्त जापान ने हीं तब खड़ा किया था और आज जब वह भस्मासुर बन गया है तो यूएसए और जापान दोनों दोस्ती के लिए चीन का कोई दुश्मन खोज रहे हैं. अमेरिका ने सिर्फ़ चीन को हीं नहीं खड़ा किया है बल्कि भारत का बड़ा सिरदर्द अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान भी खड़ा कर दिया है.

सोवियत संघ को घेरने के लिए पाकिस्तान में अमरीका ने ख़ूब आतंकी संगठन खड़े किए.सोवियत संघ के खिलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान में कट्टर इस्लामी माहौल बनाकर सबके हाथों में हथियार थमा दिया और जब सोवियत संघ का विघटन हो गया तो अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान को बुरे हालात में छोड़कर चला गया. क्योंकि सोवियत संघ बचा नहीं और रूस की सीमा अफ़ग़ानिस्तान से मिलती नहीं थी.

अमेरिका ने जब भी कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को घेरने की कोशिश की है तो संयुक्त राष्ट्र में रूस भारत की तरफ़ से वीटो लेकर चट्टानी एकता के साथ खड़ा रहा है.रूस हमेशा से भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता के लिए कोशिश करता रहा है. अभी तक रूस हमारे लिए रक्षा कवच रहा है.

हालांकि सोवियत संघ के ज़माने की तरह 80 फ़ीसदी सैन्य समान तो रूस से हमारे पास नहीं आते हैं मगर आज भी 40 फ़ीसदी की सप्लाई रूस ही करता है. सोवियत संघ ने अपने विघटन के दौर में भी मिखाईल गोर्वाचेव और राजीव गांधी ने भारत की प्रगति के लिए एतिहासिक समझौता किया था. आज भारत एक न्यूक्लियर पावर है तो इसमें सोवियत संघ का बड़ा योगदान है. इसी न्यूक्लियर पावर के बल पर भारत एक रीज़नल पावर है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समझते हैं कि अमेरिका के स्टेडियम में खड़े होकर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ जलसा करना और मुसीबत में एक दोस्त के साथ खड़े होने में क्या अंतर है.ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ को खड़ा करने के बाद और सोवियत संघ के खिलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान को खड़ा करने के बाद कैसे अमेरिका छोड़कर भाग गया यह भारत कैसे भूल सकता है.

खुद यूक्रेन को अकेला छोड़ कर किनारे बैठकर धमकियां दे रहे अमेरिका पर भारत भरोसा कैसे करे कि वह मुसीबत में साथ खड़ा रहेगा. इसलिए भारत की यह रणनीति बिलकुल सही और साफ़ है कि ओल्ड इज़ गोल्ड, नया नौ दिन पुराना सौ दिन.पुराने और भरोसेमंद मित्र को छोड़कर नए की तलाश करना भारत के हित में नहीं होगा.

साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ़ भारत का जन्म हुआ है इसलिए वह खुलकर रूस का साथ भी नहीं दे सकता है लिहाज़ा बेहतर यही है जो भारत कर रहा है.वैसे भी रूस और यूक्रेन के युद्ध में कोई भी दूध का धुला हुआ नहीं है. इसलिए अमेरिका को समझना चाहिए कि यह मसला वोट का नहीं भरोसे का है.

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