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Updated: 25 जनवरी, 2022 10:43 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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यूपी चुनाव 2022 (UP Election 2022) से पहले कांग्रेस के लिए मुश्किलें कम होती नही दिख रही हैं. कांग्रेस के घोषित प्रत्याशियों के पाला बदलने से शुरू हुआ दलबदल अब बड़े नामों तक पहुंच गया है. पूर्वांचल में धमक रखने वाले कांग्रेस के कद्दावर नेता आरपीएन सिंह (RPN Singh) ने 'देर आए, दुरुस्त आए' कहते हुए भाजपा का दामन थाम लिया है. 'राजा साहेब' के नाम से मशहूर आरपीएन सिंह कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की कोर टीम के सदस्य रहे हैं. आरपीएन सिंह ने यूपी चुनाव में भाजपा प्रभारी धर्मेद्र प्रधान और केंद्रीय मंत्री व अपने पुराने दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया की मौजूदगी में पार्टी की सदस्यता ली. खैर, आरपीएन सिंह के आने-जाने से किसे और क्या सियासी नफा-नुकसान होगा, ये तो आने वाला वक्त बता ही देगा. लेकिन, यूपी चुनाव 2022 से पहले पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार आरपीएन सिंह ने कांग्रेस छोड़ी है, तो दोष प्रियंका गांधी का ही है. आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों...

Priyanka Gandhi RPN Singhप्रियंका गांधी यूपी में कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं. तो, आरपीएन सिंह को जाने से क्यों नही रोक सकींं?

आरपीएन का जाना चौंकाता नहीं है

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में पार्टी की कमान अपने हाथों में ले रखी है. हर एक छोटे-बड़े सियासी फैसलों से लेकर रणनीतिक स्तर पर भी कांग्रेस में प्रियंका गांधी की ही छाप नजर आती है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो प्रियंका गांधी यूपी में कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं. इस स्थिति में यूपी प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को साधना और उन्‍हें योग्य जिम्मेदारी देने का काम उन्हीं का था. लेकिन, प्रियंका गांधी ने भी राहुल गांधी की तरह 'एकला चलो' वाला रुख अपनाया. तो RPN का जाना चौंकाने वाला कैसे हुआ? यूपी में कांग्रेस इस स्थिति में नही है कि पार्टी अपने कद्दावर नेताओं को इतनी आसानी से खो दे. और, अगर ये माना जाए कि प्रियंका गांधी यूपी चुनाव 2022 के जरिये मिशन 2024 की तैयारी कर रही हैं, तो इस लिहाज से भी आरपीएन सिंह का जाना कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका ही है. जो सीधा इशारा है कि प्रियंका गांधी रणनीति बनाने में कमजोर साबित हुई हैं.

प्रियंका गांधी ने असंतुष्टों को रोकने के लिए क्या किया?

अगर RPN Singh कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के गुट जी-23 का हिस्सा हैं. और, प्रियंका गांधी को ये बात पहले से पता थी. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि यूपी से आने वाले नेताओं को असंतुष्‍टों के समूह से बाहर निकालने के लिए उन्होंने क्या किया? प्रियंका गांधी यूपी में कांग्रेस के जातीय और धार्मिक समीकरण ही सुलझाती रह गईं. सियासी समीकरणों को साधने का उन्हें ख्याल ही नही रहा. बीते साल कांग्रेस को अलविदा कहने वाले जितिन प्रसाद हों या ललितेशपति त्रिपाठी या अदिति सिंह, कांग्रेस महासचिव इन सभी लोगों को रोकने में पूरी तरह से नाकाम नजर आई हैं. और, इन्हें रोकने के लिए प्रियंका गांधी के पास कोई रणनीति भी नजर नहीं आती है. किसी पार्टी के लिए अहम उसके नेता ही होते हैं. और, खासकर यूपी में यह कांग्रेस के लिए विपदाकाल बन सकता है. क्योंकि, तीन दशक तक सूबे की सत्ता से बाहर रहने के बाद कांग्रेस के नेताओं का पार्टी के लिए समर्पण बनाए रखना किसी चुनौती से कम नही है.

भूपेश बघेल को यूपी के नेताओं से ज्यादा वरीयता क्यों?

यूपी चुनाव 2022 के मद्देनजर कांग्रेस के तमाम कार्यक्रमों में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के साथ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल नजर आते रहे. भूपेश बघेल ने भले ही छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता से बेदखल करते हुए बड़ा कारनामा कर दिया हो. लेकिन, उनका वो जादू छत्तीसगढ़ तक ही सीमित है. क्योंकि, इससे पहले असम विधानसभा चुनाव में भी भूपेश बघेल को प्रियंका-राहुल की जोड़ी ने आगे से आगे बढ़ाकर वोट बटोरने की कोशिश की थी. जो चुनावी नतीजे आने पर फेल साबित हुई थी. छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल कांग्रेस के रैलियों में भीड़ नहीं जुटा सकते हैं. सूबे के स्थानीय नेता ही जमीनी स्तर पर कांग्रेस की विचारधारा को मजबूत करते हैं. तो, प्रियंका गांधी ने आरपीएन सिंह जैसे यूपी के नेताओं को अग्रिम पंक्ति में रखना क्यों उचित नहीं समझा?

क्या फेल है कांग्रेस का सूचना तंत्र?

आरपीएन सिंह का कांग्रेस छोड़ना पार्टी के लिए बड़ा झटका है या नहीं, ये यूपी चुनाव 2022 के नतीजे तय करेंगे. लेकिन, अहम सवाल ये है कि क्‍या कांग्रेस का सूचना तंत्र इतना कमजोर है कि आरपीएन सिंह पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, इसका अंदाजा किसी को नहीं हुआ? उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों पर प्रियंका गांधी के बलबूते पर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने जा रही है. ऐसे में अगर कांग्रेस को आरपीएन के जाने की भनक नहीं लगी, तो यह बात पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी बनकर सामने आती है. और, अगर पता भी था, तो आरपीएन सिंह को एक दिन पहले स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल किए जाने का क्या तुक था? क्योंकि, आरपीएन सिंह का स्टार प्रचारक बनाए जाने के बाद पार्टी छोड़ना और भाजपा में शामिल होना, भगवा दल को एक बड़ा नेता अपनी ओर ले आने का बूस्ट देगा. 

क्या प्रियंका गांधी के मुद्दे सिर्फ सुर्खियां बटोरने के लिए हैं?

यूपी चुनाव में प्रियंका गांधी 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' जैसे चुनावी कैंपेन और 40 फीसदी महिलाओं को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाए जाने को लेकर चर्चा में बनी हुई हैं. इससे भी ज्यादा चर्चा इस बात पर है कि उन्होंने 40 फीसदी टिकट में उन महिलाओं को तवज्जो दी है, जो संघर्षशील और शोषित रही हैं. तो, क्या प्रियंका गांधी जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं, वह सिर्फ मीडिया में बने रहने के लिए है? आरपीएन सिंह या जितिन प्रसाद या अदिति सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं की उपेक्षा कर कांग्रेस को क्या हासिल हुआ है? इसकी वजह से उसका जनाधार ही कम हुआ है. तो, इन तमाम मुद्दों को उठाते हुए कांग्रेस यूपी चुनाव में जीत हासिल करने का ख्वाब किस लिहाज से देख रही है.

दिल्ली में जाकर ही क्यों होती है 'यूपी की बात'?

जब प्रियंका गांधी ने कांग्रेस पार्टी का मेनिफेस्टो जारी करते हुए खुद को सीएम चेहरा बताया, तो उनके आसपास यूपी का कोई भी बड़ा नेता नहीं था. तिस पर कुछ ही समय बाद उन्होंने अपने इस बयान से यू-टर्न भी ले लिया. यूपी चुनाव के लिए इतनी अहम घोषणा के लिए प्रियंका गांधी ने 'लखनऊ' की जगह 'दिल्ली' को तवज्जो दी. हालांकि, इस दौरान उनके साथ राहुल गांधी और रणदीप सुरजेवाला नजर आए. लेकिन, राहुल और सुरजेवाला के साथ यूपी की बात कहकर उन्होंने सूबे के कांग्रेस नेताओं को क्या मैसेज दिया? एक तरह से प्रियंका गांधी ने स्पष्ट कर दिया कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है. लेकिन, उसकी अहमियत इतनी भी नही है कि प्रियंका गांधी यूपी चुनाव 2022 में अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दें. जब इस तरह का संदेश कांग्रेस नेताओं के बीच जाएगा, तो उनका पाला बदलना कोई बड़ी बात नहीं कही जा सकती है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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