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Updated: 16 जून, 2016 08:33 PM
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भूल सुधार में कांग्रेस ने काफी तेजी दिखाई है. कमलनाथ प्रकरण में उसे तत्काल गलती का अहसास हुआ - और आनन फानन में कमलनाथ का इस्तीफा स्वीकार भी हो गया.

संभव है कमलनाथ को पंजाब का प्रभारी नहीं बनाया गया होता तो ये मामला 84 दंगा चर्चा में नहीं आता. लेकिन क्या कमलनाथ के इस्तीफे से ये प्रकरण खत्म हो जाएगा?

मुद्दा बनेगा क्या?

पंजाब चुनाव का प्रभारी बनाये जाने के साथ ही कमलनाथ हर किसी के निशाने पर आ गये. पंजाब में सत्ताधारी अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने तो उन पर हमला बोला ही - कांग्रेस के अंदर भी तकरीबन वैसी ही धारणा बनी थी.

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पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कहा कि कमलनाथ को पंजाब का इंचार्ज बनाकर कांग्रेस ने सिख कम्युनिटी को ठेस पहुंचायी है - और उनके दर्द को ताजा कर दिया है.

आम आदमी पार्टी ने तो यहां तक कहा कि कमलनाथ को '84 के सिख विरोधी दंगों में उनकी भूमिका के लिए कांग्रेस अवॉर्ड दे रही है. अब आप के नेता बन चुके जाने माने वकील एचएस फूलका ने दंगों के दौरान कमलनाथ को दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज के पास देखे जाने का मामला उठाया.

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नाम नहीं, फिर भी बेदाग नहीं...

हालांकि, कमलनाथ ने सारे इल्जाम खारिज करते हुए कहा कि उन्हें बेवजह घसीटा जा रहा है जबकि दंगों के मामले में कभी उनका नाम नहीं आया. अपने दो पेज के इस्तीफे में भी कमलनाथ ने इन बातों का जिक्र किया.

सार्वजनिक तौर पर दून स्कूल के दोस्त होने के नाते अमरिंदर सिंह ने भी कमलनाथ का बचाव किया, लेकिन बाद में आलाकमान से गंभीर चर्चा की. उसी के बाद कमलनाथ ने इस्तीफा लिखा और उसे तत्काल प्रभाव से मंजूर भी कर लिया गया. कैप्टन दून स्कूल में कमलनाथ के सीनियर रहे हैं.

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कमलनाथ को प्रभारी बनाने से पहले कांग्रेस की सीनियर टीम शायद भूल गयी कि सिख दंगों को लेकर अरविंद केजरीवाल का क्या अप्रोच रहा है. केजरीवाल ने तो तब भी ये मुद्दा उठाया था जब देश में असहिष्णुता पर बहस जोर पकड़ रखी थी. तब केजरीवाल ने कहा था कि अगर 84 के दंगे के पीड़ितों को इंसाफ मिला होता तो गुजरात का दंगा और दादरी जैसी घटनाएं देखने को नहीं मिलतीं.

जब ये फैसला हुआ कि यूपी और पंजाब के प्रभारियों को बदला जाना है और कांग्रेस नेताओं के सामने अगर दो ही नाम थे फिर तो ऐसा भी हो सकता था कि कमलनाथ को यूपी और गुलामनबी आजाद को पंजाब का प्रभारी बना दिया जाता. हाल के दिनों में इन दोनों ही नेताओं ने बढ़ चढ़ कर कांग्रेस का बचाव किया है - और सत्ता पक्ष के खिलाफ जोरदार काउंटर अटैक किया है.

अब जबकि कमलनाथ इस्तीफा दे चुके हैं, क्या केजरीवाल सिख विरोधी दंगों का जिक्र छोड़ देंगे? कहना मुश्किल है. वैसे ये ऐसा मसला है कि थोड़े से जिक्र से भी असर ज्यादा पड़ता है. देखना होगा, कमलनाथ के मैदान से हट जाने के साथ ही ये मुद्दा खत्म हो जाता है या नहीं?

वे दो जख्म

गुजरते वक्त के साथ सारे जख्म भर ही जाते हैं, लेकिन कोई न कोई उन्हें कुरेद कर जब तब हरा कर ही देता है - इस बार ये भूमिका निभाई है राजनीति ने.

सिखों के कांग्रेस से नाराजगी के दो कारण रहे हैं. एक, ऑपरेशन ब्लू स्टार और दूसरा, 84 का ही सिख दंगा. ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए तो कांग्रेस ने माफी भी मांग ली है. प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह ने अगस्त 2005 में अफसोस तो जताया लेकिन सिख दंगे के लिए कांग्रेस की ओर से कभी भी ऐसी कोई बात नहीं हुई. न ही दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के 'बड़े पेड़ जब गिरते हैं...' वाले बयान के लिए कभी किसी ने खेद प्रकट किया.

कमलनाथ एपिसोड के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों को जरूर सबक मिला होगा. इससे पहले वे जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं लगा सके. लगातार हार के बावजूद कांग्रेस के रणनीतिकार स्थिति का ठीक आकलन नहीं कर पा रहे हैं. ऐसा साफ तौर पर नजर आता है.

राज्य सभा चुनाव के दौरान हरियाणा में जो कुछ हुआ वो भी तो एक रणनीतिक चूक ही थी, फिर भी किसी ने गौर नहीं किया. हरियाणा और कमलनाथ का मामला बिलकुल अलग है लेकिन राजनीतिक तौर पर चूक एक ही जैसी है.

कांग्रेस की विरोधी पार्टियों ने उसके नेताओं को ठीक से याद दिलायी है - '84 के दाग न धुले हैं न मिटे हैं'. कांग्रेस को भी ये बात याद रखनी ही होगी.

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